नई पुस्तकें >> लेख-आलेख लेख-आलेखसुधीर निगम
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समसामयिक विषयों पर सुधीर निगम के लेख
घास जंगल में खुद-ब-खुद उग आती है और पालतू जानवर वहीं जाकर लंच लेते है। जो व्यस्तता के कारण जंगल नहीं जा पाते उनके लिए गट्ठर के रूप में ´लंच पैक´ आ जाता है। अवश्य ही घास खाने में बहुत स्वादिष्ट होती होगी तभी घास-खाऊ जानवर उसे खाकर चटखारे लेते हुए बराबर मुंह चलाते रहते हैं भले ही हम लोग उसे ´पागुर´ कहते रहें। इधर हम लोग सभ्य हो गए और हमने जंगल खा लिए। जंगल और घास का चोली-दामन का साथ था अतः विरोध में घास ने भी उगना बंद कर दिया। जानवर बेचारे भूसे पर गुजर करने लगे। थोड़ी बहुत घास जो बची उसे असलम जैसे पहलवान खाने लगे, बड़े लोग छोटों को डालने लगे या पार्टियों के नाम रखने के काम आने लगी।
वैज्ञानिक अवधारणा है कि आदमी सहित कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं होता सिर्फ उसका रूप-परिवर्तन हो जाता है। यदि वह नेहरू होकर मरता है तो उसका परिवर्तित रूप यानी राख देश के खेत खलिहानों में बिखेर दी जाती है ताकि उस प्रतापी राख रूपी खाद से अच्छी घास उग सके। परंतु आम आदमी की राख पता नहीं कहां चली जाती है क्योंकि लोग-बाग उसके राख होने से पहले ही मात्र परिर्वतन की प्रक्रिया शुरू करके यानी आग देकर अपने अपने काम पे चले जाते हैं। इसी सिद्धांत के अधीन, असलम जैसे पहलवानों के लिए खुराकी छोड़कर, शेष घास जलकर भस्म हो गई और रूप परिवर्तित कर ´राजनैतिक मुद्दा´ बन गई। परिवर्तन के बाद यह फिज़ां में बोई जाती है और वोटरों के दिमाग में पनपाकर चुनाव के वक्त काट ली जाती है। जिस पार्टी के पास घास के गठ्ठर अन्य की तुलना में बड़े होते हैं वही सरकार बना लेती है। आजकल छोटे-छोटे घास के गठ्ठरों को आपस में बांधकर बड़े होने का आभास देकर सत्ता हथियाने का प्रचलन है।
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