नई पुस्तकें >> लेख-आलेख लेख-आलेखसुधीर निगम
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समसामयिक विषयों पर सुधीर निगम के लेख
चींटियों की एक प्रजाति विशेष प्रकार की पत्तियां काटकर अपनी बस्ती में ले जाती हैं। फिर कामगार चींटियां इन्हें चबा-चबाकर बस्ती में बनी कोठरियों की जमीन पर बिछा देती हैं। ये कोठरियां जमीन की सतह से पांच मीटर नीचे होती हैं। इन्हें ´बगीचा´ कहा जाता है, जिसकी रखवाली गुलाम चींटियां करती हैं। बिछी हुई पत्तियों पर फफूंद के तंतु रख दिए जाते हैं। इनमें कुछ खास किस्म की फफूंद ही उगती हैं। यह कार्य बिना किसी प्रयत्न के स्वतः होता है। चींटियां जब पत्तियों को चबाती हैं तो उनकी लार के साथ कुछ रसायन भी उनमें मिल जाते हैं जो ´एंटी बायोटिक´ होते हैं। यह रसायन कुछ विशेष किस्म की फफूंद को छोड़कर बाकी किसी चीज को उगने से रोकता है। जब यह फफूंद काफी बढ़ जाती है तो चींटियां उसके तंतुओं को काट देती हैं। ऐसा करने पर फफूंद के सिरे पर एक घुंडी सी बन जाती है। यही चींटियों का खाद्य-पदार्थ होता है।
चींटियां जन्म-जात खोजी होती हैं । छिपे खाद्य पदार्थ को ढूंढ़ निकालने में शैतान बच्चे या शातिर चोर भी इनकी बराबरी नहीं कर सकते। वह पदार्थ यदि मीठा हो तो कहना ही क्या! देखते ही देखते चींटियों की पूरी सेना उस पदार्थ पर धावा मार देती हैं। यह ठीक है कि खाद्य पदार्थ की सुगंध इन्हें वहां खींच लाती है पर प्रश्न यह है कि उस पदार्थ को चट करने के पश्चात वे वापस अपने आवास में कैसे पहुंचती हैं? उन्हें दिशा का ज्ञान कैसे होता है? भोजन की तलाश में दूर-दूर तक चले जाने के बावजूद वे अपने घर तक पहुंचने में कभी नहीं भटकतीं। वास्तव में चींटियां जब घर से बाहर जाती हैं तो उनके शरीर से ´´फर्मियोन हारमोन´´ नामक एक पदार्थ का स्राव होता है जो रास्ते में गिरता रहता है। इस स्राव को चींटियां आसानी से पहचानती हैं। यही कारण है कि जब एक चींटी भोजन की तलाश में निकल चुकी होती है तो अन्य साथियों को पता चल जाता है कि वह किस दिशा में गई है। लौटने पर इसी स्राव की सहायता से वे अपनी ठिकाने पर पहुंच जाती हैं।
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