नई पुस्तकें >> लेख-आलेख लेख-आलेखसुधीर निगम
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समसामयिक विषयों पर सुधीर निगम के लेख
श्वान चरित
हमारा इतिहास अलिखित है, तभी लोग हमें श्वान नहीं कुत्ता कहते हैं। वैसे हमारी अपनी श्रुतियां हैं। इन्हीं के आधार पर हम अपनी श्वान-गाथा आपके सम्मुख प्रस्तुत करना चाहते हैं। इसे पढ़कर आप निर्णय करें कि हमें दुत्कार भरे संबोधन ´कुत्ता´ से अभिहित किया जाए या आदर से हमें ´श्वान´ कहा जाए। अथ कथा...
इंसान के पालतू पशु बनने से पहले हम जंगली थे। ´जंगली´ का मतलब है वन में विचरण करने वाले। हम लोग समूह में रहते जानवरों का शिकार करते और चैन की नींद सोते थे। ´चैन की नींद´ से तात्पर्य है उस समय किसी अन्य प्राणी के प्रति स्वामिभक्ति का भाव न होने से हमें हर समय सतर्क नहीं रहना पड़ता था। आमतौर पर हम घोड़ों, मृगों, बारहसिंघों को अपना शिकार बनाते थे। कभी-कभी हम लोग बड़े शिकार मारते और डटकर भोजन करते थे। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि बड़े शिकार के रूप में हम बाघ तक को मार डालते थे। विश्वास न हो तो सुनिये, कैसे? हम आठ-दस लोग किसी बाघ के पीछे पड़ जाते थे। बाघ पर न हम आक्रमण करते और न ही भौंकते। अरे नहीं, हम आजकल के अहिंसावादी नहीं थे। आक्रमण इसलिए नहीं करते थे कि बाघ हमें दबोचकर चीर डाल सकता था। और भौंकते इसलिए नहीं थे क्योंकि हम उस समय तक भौंकने की क्रिया नहीं जानते थे। हम तीन ओर से उस पर घेरा डालकर उसे भागने पर मजबूर कर देते थे ताकि वह दौड़ते-दौड़ते थककर चूर हो जाए और बेदम होकर गिर पड़े। बाघ तेज दौड़ सकता है, पर ज्यादा देर तक नहीं दौड़ पाता। फिर श्लथ होकर गिर पड़ता। उसके गिरते ही शिकार हमारा।
हमारी पूंछ अन्य जानवरों की तरह पहले सीधी थी। शिकार करते समय अन्य वन्य जानवर हमारी पूंछ पकड़कर कहीं हमें विवश न कर दें, अतः हम अपनी पूंछ पिछली टांगों के बीच में छिपाये रहते थे। यह गुर हमने गजराज से सीखा, जो सिंह से लड़ते समय अपनी सूंड मोड़कर अपने मुंह में रख लेता था। इस तरह छिपाते-छिपाते हमारी पूंछ टेड़ी हो गयी, जो हमारी अन्य आदतों की तरह आज भी वैसी ही है। इंसान ने इसे सीधा करने की बहुत कोशिश की, पर सफलता नहीं मिली। पालतू बनाने के बाद जब इंसान हमें शिकार पर ले गया और हमें पूंछ दबाये देखा, तो उसने समझा हम शिकार से डर रहे हैं, अतः उसने जड़ से पूंछ ही काट दी। गनीमत है यह अत्याचार उसने सिर्फ हमारे शिकारी भाइयों के साथ ही किया।
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