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शिक्षण का संसार : मकदूनिया फिर एक बार
ईसा पूर्व 343-342 के लगभग अरस्तू को मकदूनिया के शासक फिलिप का एक गोपनीय पत्र मिला। लिखा था, ‘‘फिलिप का पत्र अरस्तू को, अभिनंदन। ज्ञात हो कि मेरा एक किशोर पुत्र है। मैं देवताओं के प्रति इस कारण आभारी हूं कि वह आपके युग में जन्म लेकर आया है। मुझे आशा है कि आपके द्वारा शिक्षित-प्रशिक्षित किया जाकर वह हमारे और राज्य के उत्तराधिकारी के रूप में योग्य सिद्ध होगा।’’
फिलिप अपने पुत्र सिकंदर की शिक्षा हेतु अरस्तू को नियुक्त करना चाहता था। अरस्तू का नाम निर्णीत करने से पूर्व उसने इसोक्रेटस और स्प्यूसियस जैसे शिक्षाशास्त्रियों के नाम पर भी विचार किया था। स्प्यूसियस तो, जो प्लेटो की अकादमी का अध्यक्ष था, त्याग-पत्र देने को प्रस्तुत हो गया था। फिलिप स्वयं अधिक पढ़ा-लिखा नहीं था अतएव अपने पुत्र को सर्वोत्तम शिक्षा देना चाहता था क्योंकि उसके लिए उसने सीमातीत योजनाएं बना रखी थीं। वह लगभग सौ से ऊपर नगर राज्यों को, जिनमें भ्रष्टाचार अपने चरम पर था, जीतकर बृहत्तर ग्रीस का निर्माण कर उसमें विलय कर देना चाहता था। उसके आदमी उत्साही किसान और विकट योद्धा थे और शहर के दुर्गुणों से दूर थे। उसका स्वप्न था कि ग्रीस विश्व का राजनीतिक केन्द्र बने। अरस्तू ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया। वह स्वयं फिलिप को पसंद करता था।
फिलिस के आमंत्रण से और दो शिक्षा-शास्त्रियों के ऊपर स्थान देने से अरस्तू की बढ़ती हुई ख्याति का पता चलता है कि अपने समय का एक बड़ा सम्राट उसे एक महानतम अध्यापक समझे। प्राचीन यूनान और रोम में राजा और सम्राट दार्शनिकों को किस सम्मान और श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे उसका अनुमान लगाना आज कठिन है। प्राचीन भारत में भी दार्शनिक ऋषियों और ब्राह्मण विचारकों की सत्ता-संचालन में प्रमुख भूमिका रही है।
फिलिप द्वारा अरस्तू को बुलाए जाने की बात कदाचित शिक्षा तक सीमित नहीं थी। कुछ राजनीतिक कारण भी थे।
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