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जीवनी/आत्मकथा >> अरस्तू

अरस्तू

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10541
आईएसबीएन :9781613016299

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सरल शब्दों में महान दार्शनिक की संक्षिप्त जीवनी- मात्र 12 हजार शब्दों में…


अरस्तू ने एक प्रसंग में कहा है कि उसके पूर्वज आकाश पिंडो को देवता मानते थे। बहुतत्व में पदार्थ होना अनिवार्य है, इसलिए आकाश को, जो पिंडो का आधार है, मूल अस्तित्व मानना उचित न होगा। प्रथम कारण या प्रथम सत्ता में गति नहीं हो सकती। वह केवल प्राथमिक गति उत्पन्न कर सकता है। प्राथमिक गति चक्राकार गति है। इन दोनों विचारों को संयुक्त करने से स्पष्ट होता है कि प्राथमिक सत्ता, जो प्राथमिक गति का कारण है, प्राथमिक गति करने वाले से भिन्न है। यहां भी ईश्वर का ही संकेत है।

प्रथम चालक की चर्चा करते हुए अरस्तू ने मेटाफिजिका में कहा है कि वह अनिवार्य रूप से स्थित है। अनिवार्य स्थिति का अर्थ स्पष्ट करते हुए अरस्तू कहता है कि अनिवार्य रूप से वही स्थित हो सकता है जो प्राकृतिक आंदोलनों के विरुद्ध स्वभाव का हो और सदा एक ही प्रकार से स्थित रहता हो। इससे भी ईश्वर का ही अनिवार्य रूप से होना सिद्ध होता है।

अंत में ईश्वर के स्वभाव के संबंध में दो प्रसंगों में अरस्तू बतलाता है कि वह चेतन सत्ता है। इनमें से प्रथम प्रसंग में वह स्पष्ट रूप से कहता है कि इसी सत्ता पर आकाश और प्रकृति दोनों निर्भर हैं। ईश्वर को चेतन सत्ता बतलाते हुए वह ईश्वर में विचार और विचार के विषय का तादात्म्य दिखाता है। वह कहता है कि ईश्वरीय विचार की समस्या अति दुरूह है। यदि ‘वह’ कुछ नहीं सोचता है तो वह आलसी मनुष्य की भांति पड़ा सोता रहता है जो ईश्वर की शान के खिलाफ है। किंतु यदि वह अपने से भिन्न वस्तु के बारे में सोचता है तो वह वस्तु ईश्वर से अधिक मूल्यवान होगी जिसके विषय में ईश्वर सोचता रहता है। इस प्रकार उसने यह तय किया कि ईश्वर अपने ही विषय में सोचता रहता है। ठीक भी है जब वह सभी कारणों का कारण है, संसार की आदि सत्ता है, उसमें संपूर्ण प्रकृति की वास्तविकता वर्तमान है, तब वह अपने से भिन्न किस वस्तु का चिंतन करेगा। गीता (7.7) में भी कहा गया है ‘मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणि गणा इव’ अर्थात् जो कुछ भी इस संसार में है वह मुझमें उसी प्रकार पिरोया हुआ है जैसे मणियां धागे में पिरोई जाती है।

इस चिंतनशील ईश्वर के विषय में अरस्तू का कथन है कि वहीं संपूर्ण जगत का शुभ है। वह नित्य है, शाश्वत है और उस आनंद में निरंतर लीन रहता है जिसकी एक साधारण झलक हम मनुष्यों को कभी-कभी थोड़ी देर के लिए मिल पाती है। अरस्तू ईश्वर में जीवन का भी आरोपण करता है। किंतु वह उसे मनुष्यों की भांति नहीं मानता।

अरस्तू के दर्शन संबंधी संपूर्ण विवेचन पर दृष्टि डालकर यदि हम एक बार फिर प्रश्न करें कि ‘द्रव्य’ क्या है, तो उत्तर मिलेगा कि सच्चे अर्थों में अरस्तू के द्रव्य संबंधी विचार ईश्वर पर ही घटित होते हैं। ईश्वर सर्वोच्च अंतिम कारण है जिसकी ओर संपूर्ण प्रकृति आकृष्ट रहती है किंतु शाश्वत आत्मसंपर्क में मग्न होने के कारण, प्रकृति में निरंतर होने वाले परिवर्तन के प्रति वह उदासीन रहता है।

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