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धर्म-निरपेक्षता की अनोखी मिसाल बादशाह अकबर की प्रेरणादायक संक्षिप्त जीवनी...
अबुल फज़ल दावा करता है कि अकबर में वे सभी आवश्यक गुण मौजूद थे जो लोगों को आध्यात्मिक आनंद दिला सकें, संघर्षरत विभिन्न धर्मालंबियों के बीच सामंजस्य स्थापित कर सकें। अबुल फज़ल द्वारा प्रतिपादित पादशाह के सिद्धांत ने अकबर को एक ऐसी समुचित वैचारिक आधार-भूमि प्रदान की, जिस पर उसके व्यापक संप्रदाय-निरपेक्ष साम्राज्य, पितृ-व्यवहार प्रधान निरंकुश शासन तथा सामासिक संस्कृति स्थापित की। इस विचारधारा के परिणामस्वरूप ही अकबर संकीर्ण धार्मिक मनोवृत्तियों से ऊपर उठ सका और उसकी राज्य-संबंधी नीतियां कथनी और करनी दोनों रूपों में इस्लाम के प्रतिबंधों से मुक्त रहीं। उसकी शासन कला का सूत्र इस्लामी कानून और हिदायतों के अनुसार नहीं चलता था, वरन् ‘सुलह -ऐ-कुल’ (सर्वत्र शांति) से बंधा हुआ था।
अबुल फज़ल द्वारा विकसित प्रभुसत्ता का सिद्धांत मुख्यतः इस बात पर बल देता है कि अकबर की स्थिति उसके विरोधियों, विशेषकर उलेमा, की तुलना में ऊंची थी। चूंकि पादशाह हर स्तर पर पाए जाने वाले मतभेदों या छोटे-बड़े संघर्षों को दूर करता है इसलिए उसके हाथ में निरंकुश शक्ति होना चाहिए ताकि वह अपने कर्तव्य का निर्वाह सुगमता से करता रहे। अबुल फज़ल के सिद्धांत में ऐसी कोई बात नजर नहीं आती जो, कुछ कट्टर सुन्नी उलेमाओं को छोड़कर सामान्यतः मुसलमानों की दृष्टि में आपत्तिजनक हो। वस्तुतः देखा जाए तो अबुल फज़ल की प्रभुसत्ता संबंधी संकल्पना तत्कालीन तीन धाराओं-मुगल धारा, मुस्लिम धारा और हिंदू धारा-का मिश्रण है जिसने एक नई मुख्य धारा का रूप ले लिया।
राजत्व का सिद्धांत अकबर के एकतंत्रीय स्वेच्छाचारी तंत्र में अभिव्यक्त हुआ। वह सरकार की सभी शाखाओं का मुखिया था और उसके प्राधिकार पर किसी का नियंत्रण नहीं था। वह न केवल राजाध्यक्ष था अपितु धर्माध्यक्ष भी था और अपने को खलीफा मानता था। सिद्धांत रूप में, कुरान का कानून राज्य में मूलभूत कानून माना जाता था जिसका शब्दशः पालन अनिवार्य था किंतु यह कानून किसी भी तरह से पादशाह पर, बाध्यकारी शक्ति के रूप में लागू नहीं हुआ। चूंकि पादशाह को मुगल राज-व्यवस्था में उच्चतम अधिकार प्राप्त था इसलिए वह कुछ एकांतिक अधिकारों और परमाधिकारों का हकदार था। जैसे-संवैधानिक और प्रशासनिक महत्व वाले परमाधिकार; खेल-कूद, आखेट, मनोरंजन आदि तथा युद्ध-क्रीड़ा से संबंधित परमाधिकार और पादशाह के नाम पर पढ़ी जाने वाली जुम्मे की नमाज़ (खुतबा), दरबार में मिलने वाली सलामियां, जिन्हें तसलीम और ‘कोर्निश’ कहते थे, एवं ‘शिकारे-जरगाह, (एक विशेष प्रकार का शिकार) के अधिकार।
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