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साहित्य  : पुं० [सं०] १. ‘सहित’ या साथ होने की अवस्था या भाव। एक साथ होना, रहना या मिलना। २. वे सभी वस्तुएँ जिनका किसी कार्य के संपादन के लिए प्रयुक्त होता है। आवश्यक सामग्री। जैसा—पूजा का साहित्य=अक्षत, जल, फूल-माला, गंध-द्रव्य आदि। ३. किसी भाषा अथवा देश के उन सभी (गद्य और पद्य) ग्रंथो, लेखों आदि का समूह या सम्मिलित राशि, जिसमें स्थायी, उच्च और गूढ विषयों का सुन्दर रूप से व्यवस्थित विवेचन हुआ हो। (लिटरेचर) विशेष-वाङमय और साहित्य में मुख्य अंतर यह है कि वाङमय के अंतर्गत जो ज्ञान राशि का वह सारा संचित भंडार आता है जो मनुष्य को नवीन दृष्टि देता और उसे जीवन संबंधी सत्यों का परिज्ञान मात्र कराता है। परंतु साहित्य उक्त समस्त भंडार का वह विशिष्ट अंश है जो मनुष्य को ऐसी अंतर्दृष्टि देता है जिसमें कलाकार किसी प्रकार की कला सृष्टि करके आत्मोपलब्धि करता है, और रसिक लोग उस कला का आस्वादन करके लोकोत्तर आनंद का अनुभव करते हैं। वे सभी लेख, ग्रंथ आदि जिनका सौंदर्य गुण, रूप या भावुकतापूर्ण प्रभावों के कारण समाज में आदर होता है। ५. किसी विषय, कवि या लेखक से संबंध रखने वाले सभी ग्रंथों और लेखों आदि का समूह। जैसा—वैज्ञानिक साहित्य, तुलसी साहित्य। ६. किसी विषय या वस्तु से संबंध रखनेवाली कभी बातों का विस्तृत विवरण जो प्रायः उसके विज्ञापन के रूप में बाँटता है। जैसे—किसी बडे ग्रंथ, संस्था, यंत्र आदि का साहित्य। (लिटरेचर) ७. गद्य और पद्य की शैली और लेखों तथा काव्यों के गुण-दोष, भेद-प्रभेद, सौंदर्य अथवा नायिका-भेद और अलंकार आदि से संबंध रखनेवाले ग्रंथो का समूह।
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साहित्य शास्त्र  : पु० [सं० मध्यम० स०] १. वह विद्या या शास्त्र जिसमें रचनाओं के साहित्य पक्ष तथा स्वरूप पर शास्त्रीय ढंग से विचार किया जाता है। २. काव्य-शास्त्र। ३. विशेषत—प्राचीन काव्य शास्त्र जिसमें रसों, अलंकारों रीतियों आदि पर विचार किया जाता था।
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साहित्यिक  : वि० [सं० साहित्य] १. साहित्य (विशेषतः साहित्यिक कृतियों) से संबंध रखनेवाला अथवा उसके अनुरूप होनेवाला। जैसा—साहित्यिक रचना। २. जो साहित्य का ज्ञाता या पारखी हो अथवा साहित्य की रचना करना ही जिसका पेशा हो। जैसा—साहित्यिक व्यक्ति, साहित्यिक संस्था।
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साहित्यिक चोरी  : स्त्री० [सं०+हिं] किसी की साहित्यिक कृति चुराकर (कविता, लेख आदि) उसको अपनी मौलिक कृति के रूप में लोगों के सामने उपस्थित करना। (प्लेजिअरीज़्म)।
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