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सँवर  : स्त्री० [सं० स्मरण] १. याद। स्मृति। २. वृत्तान्त। हाल। ३. खबर। समाचार। स्त्री० [हिं० सँवरना] सँवेरे अर्थात सजे हुए होने की अवस्था या भाव।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
संवर  : पं० [सम्√व् (वरण करना)+अप्] १. संवरण करने की क्रिया। या भाव। २. रुकावट। रोक। ३. इंद्रिय-निग्रह। ४. जैन दर्शन में कर्मों का प्रवाह रोकना। ५. बौद्ध मतानुसार एक प्रकार का व्रत। ६. जलाशयों आदि बाँध। ७. पुल। सेतु। ८. चुनने की क्रिया या भाव। चुनाव। ९. कन्या का अपने लिए वर चुनना। स्वयंवर।
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संवरण  : पुं० [सं०] [वि० संवरणीय] १. दूर करना। हटाना। २. बन्द करना। ३. आच्छादित करना। ढकना। ४. छिपाना। ५. कोई ऐसी चीज जिसमें कोई दूसरी चीज छिपाई, ढकी या रोकी जाय। ६. आड़ करने या बचाने वाली चीज। ७. मनोवेग आदि को दबा या रोककर वश में रखना। नियंत्रण से बाहर न होने देना। निग्रह। जैसे—क्रोध या लोभ का संवरण करना। ८. जलाशयों आदि का बाँध। ९. पुल। सेतु। १॰. पसंद करना। चुनना। ११. कन्या का विवाह के लिए अपना पति या वर चुनना। १२. वैद्यक में गुदा के चमड़े की तीन तहों या पर्तों में से एक। १३. आज-कल सभा-समितियों, सँसदों आदि में किसी विषय पर यथेष्ट वाद-विवाद हो चुकने पर किया जाने वाला उसका अंत या समाप्ति। (क्लोजर)
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संवरणीय  : वि० [सम्√वृ (वरण करना)+अनीयर्] [स्त्री० संवरणीया] १. जिसका संवरण हो सकता हो या होना उचित हो। २. जिसे छिपाकर रखना वांछित हो। गोपनीय। ३. जो वरण अर्थात विवाह के योग्य हो चुका हो।
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सँवरना  : अ० [सं० संवर्णन] १. बनकर अच्छी या ठीक दशा को प्राप्त होना अथवा सुंदर रूप में आना। सँवारा जाना। २. अलंकृत या सज्जित होना। स० [सं० स्मरण] स्मरण करना। उदा—पुनि बिसरा भा सँवरना, जनु सपने भइ भेंट।—जायसी।
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सँवरा  : वि०=साँवला।
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सँवरिया  : वि०=साँवला। पुं०=साँवलिया।
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संवर्ग  : पुं० [सम्√वृजी् (मना करना)+घञ्] १. अपनी ओर समेटना। २. इकट्ठा करना। ३. खा-जाना। भक्षण। ४. खपत। ५. विलय। ६. (गणित में) गुणन फल।
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संवर्जन  : पुं० [सम्√वृज (त्यागना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० संवर्जित, वि० संवर्जनीय, संवृक्त] १. बलपूर्वक ले लेना। हरण करना। छीनना। २. उड़ा डालना। समाप्त कर देना।
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संवर्त  : पुं० [सं०] १. लपेटना। २. घुमाव। फेरा। लपेट। ३. लपेट कर बनाई हुई पिंडी। ४. शत्रु से भिड़ना। ५. गोली। बटी। ६. बड़ी राशि या समूह। ७. संवत्सर। ८. एक प्रकार का दिव्यास्त्र। ९. ग्रहों का एक प्रकार का योग। १॰. एक केतु का नाम। ११. एक कल्प का नाम। १२. प्रलय काल के भेदों में से एक। १३. इंद्र का अनुचर एक मेघ जिससे बहुत जल बरसता है। १४. बादल। मेघ। १५. बहेड़ा।
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संवर्त-कल्प  : पुं० [मध्यम० स०] बौद्धों के अनुसार प्रलय का एक प्रकार या रूप।
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संवर्तक  : वि० [सं०√वृत् (रहना)+णिच्-ण्वुल्-अक] १. संवर्तन करने या लपेटने वाला। २. नाश या लय करने वाला। पुं० १. कृष्ण के भाई बलराम का एक नाम। २. बलराम का एक अस्त्र, हल। ३. बड़वानल। ४. बहेड़ा। ५. प्रलय नामक मेघ। ६. प्रलय मेघ की अग्नि।
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संवर्तकी  : पुं० [संवर्तक+इति, संर्वतकिन्] कृष्ण के भाई बलराम का एक नाम।
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संवर्तन  : पुं० [सं०√वृत् (रहना)+ल्युट्-अन] [वि० संवर्तनीय, संवृत, भू० कृ० संवर्तित] १. लपेटना। २. चक्कर या फेरा देना। ३. किसी ओर प्रवत्त होना या मुड़ना। ४. पहुँचना। ५. खेत जोतने का हल। ६. भारतीय युद्ध कला में, एक शत्रु का प्रसार रोकना।
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संवर्तनी  : स्त्री० [संवर्तन-ङीष्] सृष्टि का लय। प्रलय।
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संवर्तनीय  : वि० [सं०√वृत् (रहना)+अनीयर्] जिसका संवर्तन हो सकता हो या होने को हो।
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संवर्ति  : स्त्री० [संवृत+इति] दे० ‘संवर्तिका’।
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संवर्तिका  : स्त्री० [संवर्ति+कन्+टाप्] १. लपेटी हुई वस्तु। २. बत्ती। ३. ऐसा बँधा हुआ पत्ता जो अभी खिलने या फूलने को हो। ४. खेत जोतने का हल।
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संवर्तित  : भू० कृ० [सं०√वृत् (रहना)+क्त] १. लपेटा हुआ। २. घुमाया, फेरा या मोड़ा हुआ।
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संवर्ती  : वि० [सं०] [स्त्री० संवर्तिनी] १. किसी के साथ वर्तमान रहने या होने वाला। २. किसी समान पद या स्थिति में रहने वाला। ३. एक ही काल में औरों के साथ, प्रायः उसी रूप में परंतु भिन्न-भिन्न स्थानों पर होने वाला। (कान्करेन्ट) जैसे—संवर्ती घोषणा या सूची=ऐसी घोषणा या सूची जो एक सात कई स्थानों में प्रकाशित हो।
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संवर्द्धक  : पुं० [सम्√वृध् (बढाना)+णिच्-ण्वुल्-अक] संवर्धन करनेवाला।
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संवर्द्धन  : पुं० [सम्√वृध (बढ़ना)+णिच्-ल्युट्-अन] [वि० संवर्द्धनीय, संवर्द्धित, संवृद्ध] १. अच्छी तरह बढ़ना या बढ़ना। २. जितना या जो पहले से वर्तनाम हो उसमें कुछ और अधिकता या वृद्धि करना। (आग्मेन्टेशन) ३. पशु-पक्षियों पौधों आदि के संबंध में ऐसी क्रिया और देख भाल करना जिससे उनके वंश आदि का विकास, विस्तार या वृद्धि हो। (कल्चर) जैसे—पपीते के पेड़ों, मधुमक्खियों आदि का संवर्धन। पाल-पोसकर बड़ा करना। ४. उन्नत करना। बढ़ाना।
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संवर्द्धनीय  : वि० [सम्√वृध् (बढ़ाना) णिच्-अनीयर] जिसका संवर्द्धन करना आवश्यक या उचित हो। २. जिसका पालन-पोषण करना आवश्यक या उचित हो।
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संवर्द्धित  : भू० कृ० [सम्‘√वृध् (भढ़ना)+णिच्-क्त] जिसका संवर्द्धन किया गया हो या हुआ हो।
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संवर्धन  : पु०=संवर्द्धन।
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