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विष्व  : वि० [सं०√विष् (प्याप्त होना)+क्वन्] १. हिस्र। २. हानिकारक। ३. दुष्ट।
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विष्वककिरण  : स्त्री० [सं०] दे० ‘ब्रह्माण्ड किरण’।
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विष्वक्  : वि० [सं०] १. बराबर इधर-उधर घूमनेवाला। २. विश्व-संबंधी। विश्व का। २. सारे विश्व में समान रूप से होने यापाया जानेवाला। (यूनीवर्सल) ३. इस जगत् से भिन्न शेष सारे विश्व से संबंध रखनेवाला। पृथ्वी को छोड़कर सारे आकाश और ब्रह्माण्ड का। ब्रह्माण्डीय। (कॉस्मिक)। अव्य० १. चारों ओर। २. सब जगह। पुं०=विषुव।
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विष्वक्वाद  : पुं० [सं०] दे० ‘विश्ववाद’।
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विष्वक्सिद्धान्त  : पुं० [सं० कर्म० स०] दर्शन और न्यायशास्त्रों में वह सिद्धान्त जो किसी वर्ग या विभाग के सभी व्यक्तियों या सभी प्रकार के तत्त्वों के लिए समान रूप से प्रयुक्त होता या हो सकता हो (डाँक्ट्रिन आँफ यूनिवर्सल्स)।
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विष्वक्सेन  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। २. शिव। ३. एक मनु का नाम जो मत्स्य पुराण के अनुसार तेरहवें और विष्णु पुराण के अनुसार चौदहवें हैं।
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विष्वग्वात  : पुं० [सं०] एक प्रकार की दूषित वायु।
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