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वाक्य-वक्रता :
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स्त्री० [सं०] साहित्यिक रचनाओं का एक प्रकार का सौन्दर्य सूचक तत्त्व जो वाक्य रचना के अनोखे और उत्कृष्ट बांकपन के रूप में रहता है। यह तत्त्व कवि की बहुत ही उच्च कोटि की प्रतिभा से उदभूत होता है और सारे प्रसाद गुणों, सभी रसों की निष्पति तथा अलंकारों का उदगम या मूल स्रोत होता है। उदाहरण– (क) कहाँ लौं वरनौं सुन्दरताई खेलत कुँवर कनक आँगन में, नैन निरखि छवि छाई। कुलहि लसत सिर स्याम सुभग अति, बहुविधि सुरँग बनाई। मानो नव धन ऊपर राजत मधवा धनुष चढ़ाई। अति सुदेस मृदु चिकुर हरत मनमोहन मुख बगराई। मानो प्रकट कंज पर मंजुल अलि अवली घिरि आई।–सूर। (ख) रुधिर के है जगती के प्रात, चितनल के ये सांयकाल। शून्य निश्वासों के आकाश, आँसुओं के ये सिंधु विशाल। यहाँ सुख सरसों शोक, सुमेरु, अरे जग है जग का कंकाल।–पंत। |
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समानार्थी शब्द-
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