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लिंगानुशासन  : पुं० [सं० लिंग-अनुशासन, ष० त०] वह शास्त्र जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि वाक्य रचना में कौन सा शब्द किस अवस्था में किस लिंग में प्रयुक्त होता है। विशेष—हमारे यहाँ की संस्कृत, पालि, प्राकृत, आदि पुरानी भाषाओं में एक ही शब्द भिन्न-भिन्न प्रसंगों में भिन्न-भिन्न लिंगों में प्रयुक्त होता था। यथा—पाले या हिम के अर्थ में ‘शिशिर’ शब्द पुं० शीत काल के अर्थ में ‘पुन्नपुंसक’ (देखें) और शीतलता से युक्त पदार्थ के अर्थ में विशेष्यलिंग (देखें) होता है। यही बात कुछ शब्दों में पर्यायों के संबंध में भी होती है। यथा-स्त्री शब्द स्त्री-लिंग है और ‘कलत्र’ नपुंसक लिंग है। इन सब विभेदों के कारण और नियम बतलाना ही ‘लिंगानुशासन’ कहलाता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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