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मान्य  : वि० [सं०√मान्+ण्यत्] [स्त्री० मान्या] १. (बात) जिसे मान सकें। माने जाने के योग्य। २. (व्यक्ति) जिसका मान या सम्मान करना आवश्यक या उचित हो। मान या सम्मान का अधिकारी या पात्र। ३. प्रार्थना के रूप में उपस्थित किये जाने के योग्य। प्रार्थनीय। पुं० १. विष्णु २. शिव। ३. मैत्रावरुण।
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मान्य औषध कोश  : पुं० [सं०] दे० ‘भेषज संग्रह’।
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मान्य-व्यक्ति  : पुं० दे० ‘ग्राह्य-व्यक्ति’।
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मान्य-स्थान  : पुं० [सं० ष० त०] आदर या मान्य का कारण।
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मान्यता  : स्त्री० [सं० मान्य+तल्+टाप्] १. मान्य होने की अवस्था या भाव। २. किसी विषय में माने और स्थिर किये हुए तत्त्व या सिद्धांत। जैसे—कविता के स्वरूप के सम्बन्ध में उनकी कुछ मान्यताएँ बहुत ही अनोखी (या नयी) हैं। ३. सिद्धांत प्रथा आदि के रूप में मानने योग्य कोई तत्व, तथ्य या बात। ४. किसी बड़ी संस्था द्वारा किसी दूसरी छोटी संस्था के संबंध में यह मान लिया जाना कि वह प्रामाणिक है और उसके किये हुए कार्य ठीक समझे जायँगे। ५. वह अवस्था जिसमें उक्त प्रकार की बातें मान ली जाती है और उसके अनुसार छोटी संस्था को बड़ी संस्था के अंग के रूप में काम करने का अधिकार मिल जाता है। (रिकाग्निशन)।
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