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शब्द का अर्थ

पर्याय  : पुं० [सं० परि√ई (गति)+घञ्] १. पारस्परिक संबंध की दृष्टि से वे शब्द जो सामान्यतः किसी एक ही चीज, बात या भाव का बोध कराते हों। साधारणतः पर्यायों के अभिधेयार्थ समान होते हैं, लक्ष्यार्थों में भिन्नता हो सकती है। (सिनामिन) २. क्रम। सिलसिला। ३. एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें अनेक आश्रय ग्रहण करने का वर्णन होता है। ४. प्रकार। भेद। ५. अवसर। मौका। ६. बनाने या रचने की क्रिया। निर्माण। ७. द्रव्य का गुण या धर्म। ८. समय का व्यतीत होना। ९. दो व्यक्तियों में होनेवाला ऐसा नाता या संबंध जो एक ही कुल में जन्म लेने के कारण माना जाता या होता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पर्याय  : पुं० [सं० परि√ई (गति)+घञ्] १. पारस्परिक संबंध की दृष्टि से वे शब्द जो सामान्यतः किसी एक ही चीज, बात या भाव का बोध कराते हों। साधारणतः पर्यायों के अभिधेयार्थ समान होते हैं, लक्ष्यार्थों में भिन्नता हो सकती है। (सिनामिन) २. क्रम। सिलसिला। ३. एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें अनेक आश्रय ग्रहण करने का वर्णन होता है। ४. प्रकार। भेद। ५. अवसर। मौका। ६. बनाने या रचने की क्रिया। निर्माण। ७. द्रव्य का गुण या धर्म। ८. समय का व्यतीत होना। ९. दो व्यक्तियों में होनेवाला ऐसा नाता या संबंध जो एक ही कुल में जन्म लेने के कारण माना जाता या होता है।
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पर्याय-कोश  : पुं० [ष० त०] वह शब्दकोश जिसमें शब्दों के पर्याय बतलाये गये हों तथा उनमें होनेवाली परस्पर आर्थी अंतरों का विवेचन किया गया हो।
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पर्याय-कोश  : पुं० [ष० त०] वह शब्दकोश जिसमें शब्दों के पर्याय बतलाये गये हों तथा उनमें होनेवाली परस्पर आर्थी अंतरों का विवेचन किया गया हो।
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पर्याय-क्रम  : पुं० [ष० त०] १. पद, मान आदि के विचार से स्थिर किया जानेवाला क्रम। बड़ाई-छोटाई आदि के विचार से लगाया हुआ क्रम। २. उत्तरोत्तर होती रहनेवाली वृद्धि।
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पर्याय-क्रम  : पुं० [ष० त०] १. पद, मान आदि के विचार से स्थिर किया जानेवाला क्रम। बड़ाई-छोटाई आदि के विचार से लगाया हुआ क्रम। २. उत्तरोत्तर होती रहनेवाली वृद्धि।
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पर्याय-वृत्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] ऐसा स्वभाव जिसके कारण एक छोड़कर दूसरे को, फिर उसे छोड़कर किसी और को अपनाते चलने का क्रम चलता रहता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पर्याय-वृत्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] ऐसा स्वभाव जिसके कारण एक छोड़कर दूसरे को, फिर उसे छोड़कर किसी और को अपनाते चलने का क्रम चलता रहता है।
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पर्याय-शयन  : पुं० [तृ० त०] एक के बाद दूसरे का या पारी पारी से सोना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पर्याय-शयन  : पुं० [तृ० त०] एक के बाद दूसरे का या पारी पारी से सोना।
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पर्यायकी  : स्त्री० [सं०] भाषा विज्ञान का एक अंग, जिसमें पर्याय शब्दों के पारस्परिक सूक्ष्म अंतरों और भेद-प्रभेदों का अध्ययन किया जाता है। (सिनॉमिनी)
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पर्यायकी  : स्त्री० [सं०] भाषा विज्ञान का एक अंग, जिसमें पर्याय शब्दों के पारस्परिक सूक्ष्म अंतरों और भेद-प्रभेदों का अध्ययन किया जाता है। (सिनॉमिनी)
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पर्यायज्ञ  : पुं० [सं० पर्याय√ज्ञा (जानना)+क] पर्यायों के सूक्ष्म अंतर जानने वाला विद्वान् व्यक्ति। (सिनानिमिस्ट)
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पर्यायज्ञ  : पुं० [सं० पर्याय√ज्ञा (जानना)+क] पर्यायों के सूक्ष्म अंतर जानने वाला विद्वान् व्यक्ति। (सिनानिमिस्ट)
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पर्यायवाचक  : वि० [सं०] १. पर्याय के रूप में होनेवाला। २. जो संबंध के विचार से पर्याय हो।
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पर्यायवाचक  : वि० [सं०] १. पर्याय के रूप में होनेवाला। २. जो संबंध के विचार से पर्याय हो।
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पर्यायवाची (चिन्)  : वि० [सं०]=पर्यायवाचक।
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पर्यायवाची (चिन्)  : वि० [सं०]=पर्यायवाचक।
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पर्यायिक  : वि० [सं० पर्याय+ठन्—इक] १. पर्याय-संबंधी। पर्याय का। २. पर्याय के रूप में होनेवाला। पुं० नृत्य और संगीत का एक अंग।
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पर्यायिक  : वि० [सं० पर्याय+ठन्—इक] १. पर्याय-संबंधी। पर्याय का। २. पर्याय के रूप में होनेवाला। पुं० नृत्य और संगीत का एक अंग।
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पर्यायी  : वि० [सं०] पर्यावाचक।
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पर्यायी  : वि० [सं०] पर्यावाचक।
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पर्यायोक्ति  : स्त्री० [सं० पर्याय—उक्ति, तृ० त०] एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें (क) कोई बात सीधी तरह से न कहकर चमत्कारिक और विलक्षण ढंग से कही जाती है। जैसे—नायक के बिछुड़ने के समय रोती हुई नायिका का अपने आँसुओं से यह कहना कि जरा ठहरो, और मेरे प्राण भी अपने साथ लेते जाओ। (ख) किसी बहाने या युक्ति से कोई काम करने का उल्लेख होता है। जैसे—पक्षियों और हिरनों को देखने के बहाने सीता जी बार-बार श्रीराम की ओर देखती थीं।
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पर्यायोक्ति  : स्त्री० [सं० पर्याय—उक्ति, तृ० त०] एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें (क) कोई बात सीधी तरह से न कहकर चमत्कारिक और विलक्षण ढंग से कही जाती है। जैसे—नायक के बिछुड़ने के समय रोती हुई नायिका का अपने आँसुओं से यह कहना कि जरा ठहरो, और मेरे प्राण भी अपने साथ लेते जाओ। (ख) किसी बहाने या युक्ति से कोई काम करने का उल्लेख होता है। जैसे—पक्षियों और हिरनों को देखने के बहाने सीता जी बार-बार श्रीराम की ओर देखती थीं।
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