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परचना  : अ० [सं० परिचयन] १. किसी से इतना अधिक परिचित होना या हिल-मिल जाना कि उससे व्यवहार करने में कोई संकोच या खटका न रहे। जैसे—यह कुत्ता अभी घर के लोगों से परचा नहीं है। मुहा०—मन परचना=मन का इस प्रकार किसी ओर प्रवृत्त होना कि उसे दुःख, शोक आदि का ध्यान न आये। २. जो बात एक या अनेक बार अपने अनुकूल हो चुकी हो; जिसमें कोई बाधा या रोक-टोक न हुई हो, उसकी ओर फिर किसी आशा से उन्मुख या प्रवृत्त होना। जैसे—दो-तीन बार इस भिखमंगे को यहाँ से रोटी मिल चुकी है; अतः यह यहाँ आने के लिए परच गया है। संयो० क्रि०—जाना। अ० १.=सुलगना (आग का)। २.=जलाना (दीपक आदि का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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