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पड़ता  : पुं० [हिं० पड़ना] १. व्यापारिक क्षेत्र में, खरीदी हुई और बेची जानेवाली चीज या माल की वह आर्थिक स्थिति, जो इस बात की सूचक होती है कि वह चीज या माल कितने दाम पर खरीदा गया है अथवा उस पर कितनी लागत आई है और उसके संबंध में कितने अनिवार्य तथा आवश्यक व्यय करने पड़ते हैं या करने पड़ेंगे। विशेष—व्यापारी लोग जब कोई माल कहीं से मँगाते या अपने यहाँ तैयार कराते या बनवाते हैं, तब पहले हिसाब लगाकर यह समझ लेते हैं कि इस पर वास्तविक रूप से हमारा इतना धन लगा है, और तब उस पर अपना मुनाफा रखकर उसे बेचते हैं। मुहा०—पड़ता खाना=ऐसी स्थिति होना कि उचित मूल्य या लागत निकालने के बाद कुछ मुनाफा या लाभ हो सके। जैसे—(क) आज-कल देहात से गेहूँ मँगाकर बाजार में बेचने से हमारा पड़ता नहीं खाता। (ख) बारह रुपये जोड़े पर यह धोती बेचने में हमारा पड़ता नहीं खाता। पड़ता निकालना,फैलाना या बैठाना=भाड़े मूल्य लागत सूद आदि का हिसाब लगाकर यह देखना कि किस चीज पर सब मिलाकर वस्तुतः हमारा कितना व्यय हुआ है। २. आर्थिक दृष्टि से आय-व्यय आदि का औसत या माध्यम। जैसे—इस दूकान से उन्हें दस रुपए रोज मुनाफे का पड़ता पड़ जाता है। क्रि० प्र०—पड़ना।—बैठना। ३. भू-कर की दर। लगान की शरह।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पड़ताल  : स्त्री० [सं० परितोलन] १. कोई काम या चीज आदि से अंत तक अच्छी तरह जाँचते हुए यह देखना कि उसमें कहीं कोई कसर या भूल तो नहीं है। अच्छी तरह की जानेवाली छान-बीन या देख-भाल। २. पटवारियों (आधुनिक लेखपालों) के द्वारा अपने खातों या पत्रियों की वह जांच, जो यह जानने के लिए की जाती है कि खेतों को जोतने-वालों के नापों और उसमें होनेवाली फसलों का ब्योरा कहीं गलत तो नहीं लिखा गया है। ३. उक्त के फलस्वरूप किया जानेवाला संसोधन या सुधार। ४. तुलना। बराबरी। मुकाबला। (क्व०)।
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पड़तालना  : स० [हिं० पड़ताल+ना (प्रत्य०)] आदि से अंत तक सब बातें देखते हुए पड़ताल अर्थात् अनुंसधान या जाँच करना।
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