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टकसाल  : स्त्री० [सं० टकसाला] [वि० टकसाली] १. प्राचीन भारत में वह कारखाना जहाँ पैसे, रुपए आदि के सिक्के ढलते थे। २. आज-कल वह स्थान जहाँ आधुनिक यंत्रों से ठप्पों आदि की सहायता से रुपए, पैसे आदि के सिक्के तैयार किये या बनाये जाते हैं। ३. लाक्षणिक रूप में वह स्थान जहाँ मानक चीजें बनती हों। मुहावरा–टकसाल चढाना=(क) प्राचीन भारत में खरे-खोटे की परख के लिए सिक्कों का टकसाल में पहुंचाना। (ख) लाक्षणिक रूप में, किसी चीज का ऐसे स्थान में पहुँचना जहाँ उसकी बुराई-भलाई की परख हो सके। (ग) दुष्कर्मों आदि में पराकाष्ठा या पूर्णता तक पहुँचना। (परिहास और व्यंग्य) पद–टकसाल बाहर=(चीज या बात) जो ठीक, प्रामाणिक या मानक न मानी जाती हो। जैसे–इस प्रकार के प्रयोग आधुनिक भाषा में टकसाल बाहर माने जाते हैं। ४. वह चीज या बात जो सब प्रकार से ठीक, निर्दोष प्रामाणिक या मानक मानी जाती हो। उदाहरण–सार शब्द टकसार। (ल) है, हिरदय माँहि बिबेक।–कबीर।
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टकसाली  : वि० [हिं० टकसाल] १. टकसाल-संबंधी। टकसाल का। २. टकसाल में ढला या बना हुआ। ३. उतना ही प्रामाणिक और लोक-मान्य जितना टकसाल में ढाला हुआ अली सिक्का होता है। सब तरह से चलनसार, ठीक और मान्य। शिष्ट-सम्मत। जैसे–बा० बालमुकुन्द गुप्त की भाषा टकसाली होती थी। ४. सब प्रकार से परीक्षित और प्रामाणिक। जैसे–आप की हर बात टकसाली होती है। पुं० मध्ययुग में टकसाल या सिक्के ढालनेवाले विभाग का प्रधान अधिकारी।
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