शब्द का अर्थ
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जिह :
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स्त्री० [फा० सं० ज्या] धनुष का चिल्ला। ज्या। वि० सर्व०=जिस। उदाहरण–जिह जिह बिधि रीझे हरी सोई विधि कीजै हो।–मीराँ। |
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समानार्थी शब्द-
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जिहन :
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पुं० [अ० जिहन]=जेहन। (बुद्धि)। |
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जिहाद :
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पुं० [अ०] [वि० जिहादी] १. धार्मिक उद्देश्य की सिद्धि के लिए किया जानेवाला युद्ध। २. वह युद्ध जो मध्य युग में मुसलमान अपने धार्मिक प्राचार के लिए दूसरे धर्मावलम्बियों से करते थे। मुहावरा–जिहाद का झंडा खड़ा करना=मजहब के नाम पर लड़ाई छेड़ना। |
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जिहादी :
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वि० [अ०] १. जिहाद संबंधी। २. जिहाद करनेवाला। |
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जिहानक :
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पुं० [सं०√हा(गति)+शानच्+कन्] प्रलय। |
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जिहालत :
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स्त्री०=जहालत (मूर्खता)। |
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जिहासा :
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स्त्री० [सं०√हा (त्यागना)+सन् द्वित्वादि+अ-टाप्] त्याग की इच्छा। |
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जिहासु :
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वि० [सं०√ हा+सन् द्वित्वादि+उ] त्याग की इच्छा रखनेवाला। |
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जिहीर्षा :
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स्त्री० [सं०√हृ(हरण करना)+सन् द्वित्वादि+अ-टाप्] हरने या हरण करने की इच्छा। |
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जिहीर्षु :
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वि० [सं०√हृ+सन् द्वित्वादि+उ] हरण करने की इच्छा या कामना करनेवाला। |
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जिह्म :
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वि० [सं०√हा (त्याग)+मन् सन्वद्भाव द्वित्वादि] १. टेढ़ा। वक्र। २. क्रूर। निर्दय। ३. कपटी। छली। ४. दुष्ट। पाजी। ५. खिन्न। दुःखी। ६. धीमा। मंद। पुं० १. अधर्म। २. तगर का फूल। |
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जिह्म-गति :
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वि० [ब० स०] जिसकी गति या चाल टेढ़ी हो। टेढा चलनेवाला। पुं० साँप। |
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जिह्मक्ष :
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वि० [जिह्म-अक्षि] टेढ़ी या तिरछी आँखवाला। ऐंचा या भेंगा। |
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जिह्मग :
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वि० [सं० जिह्म√ गम् (जाना)+ड] १. टेढ़ी-तिरछी चाल चलनेवाला। २. धीमी चाल से चलनेवाला। ३. चालबाज। धूर्त्त। पुं० सर्प। सांप। |
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जिह्मगामी(मिन्) :
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वि० [सं० जिह्म√ गम्+णिनि] [स्त्री० जिह्मगामिनी]=जिह्माग। |
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जिह्मता :
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स्त्री० [सं० जिह्म+तल्-टाप्] १. टेढ़ापन। वक्रता। २. धीमापन। मंदता। ३. कुटिलता ४. दुष्टता। ५. धूर्तता। |
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जिह्मित :
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वि० [सं० जिह्म+इतच्] १. टेढ़ा। २. घूमा हुआ। ३. चकित। विस्मित। |
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जिह्मीकृत :
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वि० [सं० जिह्य+च्वि√कृ (करना)+क्त, दीर्घ] झुकावा या टेढ़ा किया हुआ। |
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जिह्वक :
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पुं० [सं०√ह्व(बुलावा)+ड, द्वित्वादि+कन्] एक प्रकार का सन्निपात रोग जिसमें रोगी से स्पष्ट बोला नहीं जाता और उसकी जीभ लड़खड़ाती है। इसके रोगी प्रायः गूगें या बहरे हो जाते हैं। |
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जिह्वल :
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वि० [सं० जिह्व√ला (लेना)+क] चटोरा। |
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जिह्वा :
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वि० [सं०√लिह् (चाटना)+व, नि० सिद्धि] १. जीभ। २. आग की लपट। |
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जिह्वा-रद :
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पुं० [ब० स०] पक्षी। |
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जिह्वा-रोग :
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पुं० [ष० त०] जीभ में होनेवाले रोग जो सुश्रुत में ५ प्रकार के माने गये हैं। |
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जिह्वाग्र :
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पुं० [जिह्वा-अग्र, ष० त०] जीभ का अगला भाग। वि० (कथन, बात या विषय) जो जीभ के अगले भाग पर अर्थात् हर समय उपस्थित या प्रस्तुत रहे। जैसे–सारी गीता उन्हें जिह्वाग्र है। |
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जिह्वाच्छेद :
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पुं० [ष० त०] वह दंड जिसमें किसी की जीभ काट ली जाती है। |
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जिह्वाजप :
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वि० [तृ० त०] एक प्रकार का जप जिसमें केवल जीभ हिले। |
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जिह्वाप :
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वि० [सं० जिह्वा√ पा(पीना)+क] जीभ से जल पीनेवाला। जैसे–कुत्ता, गदहा, घोड़ा आदि। |
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जिह्वामूलीय :
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वि० [सं० जिह्वा-मूल, ष० त०+छ-ईय] १. जो जिह्वा के मूल से संबंध रखता या उसमें होता हो। २. (व्याकरण में उच्चारण की दृष्टि से वर्ण) जिसका उच्चारण जीभ के मूल या बिलकुल पिछले भाग से होता है। जैसे–यदि क या ख से पहले विसर्ग हो तो क या ख का उच्चारण (जैसे–दुःख में के ख का उच्चारण) जिह्वामूलीय हो जाता है। |
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जिह्वालिह :
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पुं० [जिह्वा√लिह् (चाटना)+क्विप्] कुत्ता। |
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जिह्विका :
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स्त्री० [सं० जिह्वा+ठन्-इक, टाप्] जीभी। |
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जिह्वोल्लेखनी :
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स्त्री० [जिह्वा-उल्लेखनी, ष० त०] जीभी। |
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