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छिद्र  : पुं० [√छिद्+रक्] १. किसी वस्तु के बीच में का दोनों ओर से खुला हुआ छोटा भाग। छेद। जैसे–कपड़े या चलनी में का छिद्र। २. किसी घन या ठोस वस्तु में का वह गहरा स्थान जिसमें उस वस्तु का कुछ अंश निकाल लिया गया हो। जैसे–जमीन, दीवार या फल मे का छिद्र। ३. किसी कार्य वस्तु या व्यक्ति में होनेवाली कोई त्रुटि या दोष जैसे–छिद्रान्वेषण।
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छिद्र-कर्ण  : वि० [ब० स०] जिसके कान छिदे या बिधे हुए हों।
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छिद्र-पिप्पली  : स्त्री० [मध्य० स०] गजपिप्पली।
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छिद्र-वैदेही  : स्त्री० [मध्य ० स०] गजपिप्पली।
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छिद्रदर्शी(र्शिन्)  : पुं० [छिद्र√दृश् (देखना)+णिनि] व्यक्ति जो दूसरों के कार्यों में त्रुटियाँ या दोष ही ढूँढता हो।
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छिद्रांतर  : पुं० [सं० छिद्र-अंतर, ब० स०] १. सरकंडा। २. नरकुल।
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छिद्रात्मा(त्मन्)  : पुं० [सं० छिद्र-आत्मन्, ब० स०] छिद्रान्वेषी।
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छिद्रान्वेषण  : पुं० [सं० छिद्र-अन्वेषण, ष० त०] किसी कार्य, बात या व्यक्ति में से त्रुटियाँ या दोष ढूँढने का काम।
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छिद्रान्वेषी(षिन्)  : पुं० [सं० छिद्र-अनु√इष् (गति+णिनि)] वह जो छिद्रान्वेषण करता हो। दूसरों के कार्यों में से त्रुटियाँ या दोष खोजने वाला।
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छिद्रांश  : पुं० [सं० छिद्र-अंश, ब० स०] सरकंडा।
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