शब्द का अर्थ
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चित्त :
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पुं० [सं०√चित्(ज्ञान करना)+क्त] १. अंतःकरम की चार वृत्तियों में से एक जो अंतरिद्रिय के रूप में मानी गई है और जिसके द्वारा धारण, भावना आदि की क्रियाएँ संपन्न होती है। जी। दिल। मुहावरा–चित्त उचटना=किसी काम, बात या स्थान से जी विरक्त होना या हटना। दिल को भला न लगना। चित्त करना=जी चाहना। इच्छा होना। जैसे–उनसे मिलने को मेरा चित्त नहीं करता। चित्त चढ़ना=दे० ‘‘चित पर चढ़ना’। चित्त चिहुँटना=प्रेमासक्त होने के कारण मन में कष्टदायक स्मृति होना। उदाहरण–नहिं अन्हाय नहिं जाय घर चित चिहुँठयों स्मृति तकि तीर।–बिहारी। चित्त चुराना-मन को मोहित करना। चित्त देना=ध्यान देना। मत लगाना। उदाहरण–चित्त दै सुनो हमारी बात।-सूर। चित्त धरना (क) किसी बात पर ध्यान देना। मन लगाना। (ख) कोई बात या विचार मन में लाना। उदाहरण–हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ।–सूर। चित्त पर चढ़ना=(क) मन में बसने के कारण बार-बार ध्यान में आना। (ख) स्मृति जाग्रत होना। याद आना, या पड़ना। चित्त बँटना=एक बात या विषय की ओर ध्यान रहने की दशा में कुछ समय के लिए दूसरी ओर ध्यान जाना जो बाधा के रूप में हो जाता है। चित्त में जमना, धँसना, या बैठना अच्छी तरह हृदयंगम होना। दृढ़ निश्चय के रूप में मन में बैठना। चित्त में होना या चित्त होना=इच्छा होना। जी चाहना। चित्त लगना=किसी काम या बात में मन की वृत्ति लगना। ध्यान लगना। जैसे–चित्त लगाकर काम किया करो। चित्त से उतरना (क) ध्यान में न रहना। भूल जाना। जैसे–वह बात हमारे चित्त से उतर गई थी। (ख) पहले की तरह आदरणीय या प्रिय न रह जाना। जैसे–अब तो वह हमारे चित्त से उतर गया है। चित्त से न उतरनाध्यान में बराबर बना रहना। न भूलना। २. नृत्य में, श्रृंगारिक प्रसंगों में अनुराग, प्रसन्नता आदि प्रकट करनेवाली चितवन या दृष्टि। वि० चित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चित्त-कलित :
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वि० [स० त०] १. मन में जिसकी आशा या ध्यान किया गया हो। २. प्रत्याशित। |
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चित्त-गर्भ :
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वि० [सं० चित्त√गर्भ (ग्रहण करना)+अच्, उप० स०] मनोहर। सुंदर। |
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चित्त-चारी(रिन्) :
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वि० [सं० चित्√चर् (चलना)+णिनि, उप० स०] दूसरों की इच्छा के अनुसार आचरण करने या चलनेवाला। |
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चित्त-चौर :
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पुं० [ष० त०]=चित्त-चोर। |
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चित्त-जन्मा(न्मन्) :
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पुं०[ब० स०] कामदेव। |
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चित्त-निवृत्ति :
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स्त्री० [ष० त०] इच्छा, कष्ट, भावना आदि से होनेवाला चित्त का छुटकारा या निवृत्ति। मन की शांति, संतोष और सुख। |
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चित्त-प्रसादन :
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पुं० [ष० त०] योग में चित्त का एक संस्कार जो करुणा, मैत्री, हर्ष आदि के उपयुक्त व्यवहार द्वारा होता है। जैसे–किसी को सुखी देखकर प्रसन्न होना, दुःखी के प्रति करुणा दिखाना, पुण्य के प्रति हर्ष और पाप के प्रति उपेक्षा करना। इस से चित्त में सात्त्विक वृत्ति का प्रादुर्भाव होता है। |
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चित्त-भंग :
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पुं० [ब० स०] बदरिकाश्रम के समीप स्थित एक पर्वत श्रेणी। |
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चित्त-भू :
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पुं० [सं० चित्त√भू (होना)+क्विप्, उप० स०] १. प्रेम। २. कामदेव। |
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चित्त-भूमि :
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स्त्री० [ष० त०] योग-साधन के समय होनेवाली चित्त की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ या वृत्तियाँ जिनमें से कुछ तो अनुकूल और कुछ बाधक होती हैं। मुख्यतः क्षिप्त, मूल, विक्षिप्त और निरुद्ध ये पाँच चित्तभूमियाँ मानी गई है जिनमें से अन्तिम दो योग-साधन के लिए अनुकूल होती हैं। |
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चित्त-भेद :
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पुं० [ष० त०] मन की अस्थिरता और चंचलता। २. दृष्टिकोणों या विचारों में होनेवाला भेद। |
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चित्त-भ्रम :
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पुं० [ष० त०] १. मन में होनेवाला किसी प्रकार का भ्रम या भ्रांति। २. [ब० स०] उन्माद। पागलपन। |
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चित्त-भ्रांति :
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स्त्री० [ष० त०]=चित्त-भ्रम। |
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चित्त-योनि :
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पुं० [ब० स०] कामदेव। |
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चित्त-विक्षेप :
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पुं० [ष० त०] १. चित्त का एकाग्र न हो पाना या न रह जाना। चित्त का स्थिर न रहना। २. चित्त की अस्थिरता या चंचलता। |
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चित्त-विद् :
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पुं० [सं० चित्त√विद् (जानना)+क्विप्, उप० स०] १. वह जो दूसरों के चित्त की बात जानता हो। २. वह जो चित्त या मन के सब भेद और रहस्य जानता हो। |
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चित्त-विप्लव :
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पुं० [ब० स०] उन्माद। पागलपन। |
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चित्त-विभ्रंश :
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पुं० [ब० स०]=चित्त-भ्रम। |
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चित्त-विश्लेषण :
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पुं०[ष० त०] मनोविश्लेषण। (दे०) |
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चित्त-वृत्ति :
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स्त्री० [ष० त०] १. चित्त की गति। चित्त की अवस्था। २. अभिरुचि। झुकाव। |
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चित्त-शुद्धि :
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स्त्री० [ष० त०] बुरे विचारों को मन से हटाकर अच्छी बातों की ओर ध्यान देना। जिससे चित्त निर्मल तथा शुद्ध हो जाय। |
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चित्त-हारी(रिन्) :
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वि० [सं० चित्त√हृ (हरण करना)+णिनि, उप० स०] चित्त हरण करनेवाला, अर्थात् आकर्षक। मनोहर। |
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चित्तक :
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पुं० दे० ‘चित्रक’। |
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चित्तज :
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वि० [सं० चित्त√जन् (उत्पन्न होना)+ड, उप० स०] चित या मन में उत्पन्न। पुं० १. प्रेम। २. कामदेव। |
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चित्तज्ञ :
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वि० [सं० चित्त√ज्ञा (जानना)+क, उप० स०] दूसरों के चित्र या मन की बातें जाननेवाला। |
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चित्तर :
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पुं०=चित्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चित्तर-सारी :
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स्त्री०=चित्रशाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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चित्तरा :
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स्त्री० चित्रा (नक्षत्र)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चित्तल :
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पु० चीतल। (मृग)। |
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चित्तवान्(वत्) :
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वि० [सं० चिता+मतुप्, मव] [स्त्री० चित्रवती] जिसके चित्त में सदा अच्छी बातें रहती हों। |
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चित्ताकर्षक :
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वि० [सं०चित्त-आकर्षक, ष० त०] जो चित्त को अपनी ओर आकृष्ट करता हो। मोहित करने या लुभानेवाला। |
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चित्तापहारक :
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वि० [सं० चित्त-अपहारक, ष० त०]=चित्तहारी। |
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चित्ताभोग :
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पुं० [सं० चित्त-आभोग, ष० त०] १. पूर्ण चेतनता। २. किसी विषय के प्रति मन की आसक्ति। |
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चित्तासंग :
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पुं० [सं० चित्त-आर्सग] अनुराग। प्रेम। |
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चित्ति :
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स्त्री० [सं०√चित्त (ज्ञान होना)+क्तिन्] १. चित्त की वह वृत्ति जो मनु्ष्य को सोचने-विचारने में प्रवृत्त या समर्थ करती है। २. ख्याति। प्रसिद्धि। ३. आस्था। श्रद्धा। ४. कर्म। कार्य। ५. उद्देश्य। लक्ष्य। ६. अथर्व ऋषि की पत्नी का नाम। |
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चित्ती :
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स्त्री० [सं० चित्र, प्रा० चित्त] १. किसी एक रंगवाली वस्तु पर दूसरे रंग का लाया हुआ चिन्ह्र या दाग। मुहावरा–(रोटी पर) चित्ती पड़ना=रोटी सेंकते समय उस पर छोटे-छोटे दाग पड़ना। २. वे छोटे-छोटे चिन्ह जो वस्त्रों पर काढ़े या छापे जाते हैं। ३. मादा लाल। मुनिया। ४. एक प्रकार का साँप। चीतल। (दे०)। स्त्री० [हिं० चित्त=सफेद दाग] एक ओर से कुछ रगड़ा हुआ इमली का चिआँ जिससे छोटे लड़के जूआ खेलते हैं। |
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चित्तौर :
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पुं० [सं० चित्रकूट, प्रा० चित्त ऊड़ चितउड़] राजपूताने का एक प्रसिद्ध नगर जहाँ किसी समय महाराणा प्रताप की राजधानी थी। |
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