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चित  : वि० [सं०√चि (चयन करना)+क्त] १. चुनकर इकट्ठा किया हुआ। ढेर के रूप में लगाया हुआ। २. ढका हुआ। आच्छादित। वि० [सं० चित्र] इस प्रकार जमीन पर लंबा पड़ा हुआ कि पीठ या पीछे की ओर के सब अंग जमीन से लगे हों और छाती, पेट मुँह आदि ऊपर हो। पीठ के बल सीधा पड़ा हुआ। ‘औधा’ या ‘पट’ का विपर्याय। विशेष-प्राचीन काल में चित्र प्रायः कपड़ों पर बनाये जाते थे। जिस ओर चित्र बना रहता था उस ओर का भाग चित्र कहलाता था, और इसके विपरीत नीचे वाला भाग पट (कपड़ा) कहलाता था। इसी चित्र-पट मे के चित्र और पट शब्द से विशेषण रूप में ‘चित’ और ‘पट’ शब्द बने है। मुहावरा–(किसी को) चित करना=कुश्ती में पछाड़कर जमीन पर सीधा पटकना और जो हराने का सूचक होता है। चित होना=बेसुध होकर या और किसी प्रकार सीधे पड़ जाना। जैसे–इतनी भाँग में तो तुम चित हो जाओंगे। पद–चारों खाने (या शाने) चित (क) हाथ पैर फैलाये बिलकुल पीठ के बल पड़ा हुआ। (ख) लाक्षणिक रूप में पूरी तरह से परास्त या हारा हुआ। क्रि० वि० पीठ के बल। जैसे–चित गिरना या लेटना। पुं० [हिं० चितवन] चितवन। दृष्टि। नजर। पुं० चित्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चित-चोर  : पुं० [हिं० चित+चोर] चित्त को चुराने अर्थात् मोहित करने या लुभावने वाला। बलपूर्वक अपनी ओर अनुरक्त और मुग्ध कर लेनेवाला। परम आकर्षक और मनोहर। (व्यक्ति)।
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चित-पट  : पुं० [हिं० चित+पट] १. बाजी लगाकर खेला जानेवाला एक प्रकार का खेल जिसमें किसी फेंकी हुई वस्तु (जैसे–सिक्का आदि) के चित या पट पड़ने पर हार या जीत मानी जाती है। २. मल-युद्ध। कुश्ती (क्व०)।
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चित-बाहु  : पुं० [हिं० चित+बाहु] तलवार चलाने के ३२ प्रकारों या हाथों में से एक।
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चित-भंग  : पुं० [हिं० चित+भंग] १. वह अवस्था जिसमें मनुष्य का चित या मन एकाग्र और स्वस्थ न रह सके। मानस शांति में होनेवाली बाधा। २. किसी ओर से मन उचटने पर होनेवाली उदासी और विकलता। ३. चेतना, ज्ञान, बुद्धि आदि का ठिकाने न रहना।
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चितउन  : स्त्री०=चितवन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चितउर  : पुं० १. दे० ‘चित्तौर’। २. दे० चित्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चितकबरा  : वि० [सं० चित्र+कर्बुर] [स्त्री० चितकबरी] १. सफेद रंग पर काले, लाल या पीले दागों वाला। २. रंग-बिरंगा। कबरा। चितला। शबल। जैसे–चितकबरा कबूतर, चितकबरी बिल्ली। पुं० उक्त प्रकार का रंग या वर्ण।
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चितकाबर  : वि०=चितकबरा।
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चितकूट  : पुं०=चित्रकूट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चितगुपति  : पुं०=चित्रगुप्त।
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चितरना  : स० [सं० चित्र] १. चित्रित करना। चित्र बनाना २. बेल-बूटों आदि की तरह की आकृतियाँ बनाना। जैसे–आड़ चितरना=किसी रंग या चमकीली चीज के मस्तक या मुख पर बेल-बूटों आदि की आकृतियाँ बनाना। ३. ठीक ढंग से लगाना। जैसे–काजल चितरना।
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चितरवा  : पुं० दे० ‘चितरोख’।
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चितरा  : पुं०=चीतल (देखें)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चितराला  : पुं० [सं० चित्र] एक प्रकार का छोटा जंतु या पशु जो छोटे-छोटे झुड़ों में रहता है और प्रायः पेड़ों पर चढ़कर गिलहरियाँ, चिड़ियाँ आदि खाता है।
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चितरोख  : पुं० [सं० चित्रक] लाल रंग की एक प्रकार की छोटी सुन्दर चिड़िया जिसकी चोंच और पीठ काली तथा पैर कुछ लाल होते हैं।
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चितला  : वि० [सं० चित्रल] चितकबरा। रंग-बिरंगा। पुं० १. एक प्रकार का खरबूजा जिसके छिलके पर चितियाँ होती हैं। २. एक प्रकार की बड़ी मछली जिसकी पीठ उभारदार होती है और जिसके शरीर से यथेष्ट चरबी निकलती है जो खाने और जलाने के काम आती है।
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चितवन  : स्त्री० [हिं० चितवना] १. किसी की ओर प्रेमपूर्वक या स्नेहपूर्वक देखने की अवस्था, ढंग या भाव। २. दृष्टि। निगाह।
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चितवना  : स० [सं० चित्=ध्यानपूर्वक देखना] १. अनुराग या स्नेहपूर्वक किसी की ओर देखना। उदाहरण–जियत मरत झुकि झुकि परत जेहि चितवन इक बार।–बिहारी। २. यों ही या जल्दी में देख जाना। उदाहरण–फिरि चितवा पाछै प्रभु देखा।–तुलसी।
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चितवनि  : स्त्री०=चितवन।
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चितवाना  : स० [हिं० चितवना का प्रे०] किसी को चितवने (देखने) में प्रवृत्त करना।
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चितसारी  : स्त्री० दे० ‘चित्रसारी’।
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चिता  : स्त्री० [सं०√चि (चयन करना)+क्त-टाप्] १. क्रम से चुनकर रखी या सजाई हुई लकड़ियों का वह ढेर जिस पर मृत शरीर जलाये जाते हैं। चिति। चित्या। चैत्य। मुहावरा–चिता चुनना या सजाना=शव-दाह के लिए लकड़ियाँ क्रम से सजाकर रखना। चिता तैयार करना। चिता पर चढ़नामरने पर जलाये जाने के लिए चिता पर रखा जाना। (स्त्री का) चिता पर चढना=पति के शव के साथ उसकी चिता पर जलने के लिए जाकर बैठना। २. श्मशान। मरघट।
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चिता-प्रताप  : पुं० [ष० त०] जीते जी चिता पर रखकर जला देने का दंड।
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चिता-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] मरघट। श्मशान।
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चिता-साधन  : पुं० [ष० त०] चिता के पास या श्मसान पर बैठकर इष्ट सिद्धि के लिए मंत्र आदि जपना। (तंत्र)।
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चिताउनी  : स्त्री० १=चेतावनी। २.=चितवन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिताना  : स०=चेताना (देखें)। अ० [सं० चित्रण] चित्रित होना। उदाहरण–लता सुमन पशु पच्छि चित्र सौ चारू चिताए।–रत्नाकर। स०–चित्रित करना।
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चितारना  : स० [सं० चिंतन] १. चित्त या मन में लाना। किसी ओर चित्त या ध्यान देना। उदाहरण–युगै चितारै भी चुगै चुगि चुगि चितारै।–कबीर। २. ध्यान में लाना। याद करना। उदाहरण–रे पपइया प्यारे कब को बैर चितारयौ।–मीराँ। स० चितरना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चितारी  : पुं०=चितेरा।
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चितारोहण  : पुं० [चिता-आरोहण, ष० त०] १. चिता पर जल मरने के उद्देश्य से चढ़कर बैठना। २. विधवा स्त्री का सती होने के लिए अपने पति के शव के साथ चिता पर बैठना।
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चितावनी  : स्त्री०=चेतावनी।
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चिति  : स्त्री० [सं०√चि (चयन करना)+क्तिन्] १. चुनकर लगाने या सजाने की क्रिया या भाव। २. चिता। ३. ढेर। राशि। ४. अग्नि का एक प्रकार का वैदिक संस्कार। ५. यज्ञ में वेदी बनाने की ईटों का एक संस्कार। ६. चेतनता। ७. दुर्गा।
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चिति-व्यवहार  : पुं० [ष० त०] गणित की वह क्रिया जिसके द्वारा किसी दीवार या मकान में लगनेवाली ईटों आदि की संख्या जानी जाती है।
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चितिका  : स्त्री० [सं० चिति√कै (शब्द करना)+क-टाप्] १. करधनी। मेखला। २. दे० ‘चिति’।
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चितिया  : वि० [हिं० चित्ती] जिस पर चित्तियाँ या दाग पड़े हों। चित्तीदार। जैसे–चितिया साँप, चितिया हिरन।
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चितिया-गुड़  : पुं० [हिं०] खजूर की चीनी की जूसी से जमाया हुआ गुड़।
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चितु  : पुं०=चित्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चितेला  : पुं०=चितेरा।
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चितैना  : स०=चितवना।
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चितोद्रेक  : पुं० [सं० चित्त-उद्रेक, ष० त०] गर्व। घमंड।
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चितौन  : स्त्री०=चितवन।
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चितौना  : स०=चितवना।
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चितौनि(नी)  : स्त्री०=चितवन।
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चित्  : स्त्री०[सं०√चित् (ज्ञाने)+क्विप्] १. सोची, विचारी या अनुभूत की हुई कोई बात। विचार। अनुभूति। २. चेतना। ज्ञान। ३. चित्त की वृत्ति। ४. हृदय। मन। ५. आत्मा। ६. ब्रह्म। ७. रामानुजाचार्य के अनुसार तीन पदार्थों में से एक जो ज्ञान-स्वरूप, नित्य, निर्मल और भोक्ता कहा गया है। ८. अग्नि। प्रत्यय० संस्कृत का एक अनिश्चयवाचक प्रत्यय जो कः, किम् आदि सर्वनाम शब्दों में लगता है। जैसे–कदाचित्, कश्चित्, किंचित् आदि।
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चित्कार  : पुं०=चीत्कार।
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चित्त  : पुं० [सं०√चित्(ज्ञान करना)+क्त] १. अंतःकरम की चार वृत्तियों में से एक जो अंतरिद्रिय के रूप में मानी गई है और जिसके द्वारा धारण, भावना आदि की क्रियाएँ संपन्न होती है। जी। दिल। मुहावरा–चित्त उचटना=किसी काम, बात या स्थान से जी विरक्त होना या हटना। दिल को भला न लगना। चित्त करना=जी चाहना। इच्छा होना। जैसे–उनसे मिलने को मेरा चित्त नहीं करता। चित्त चढ़ना=दे० ‘‘चित पर चढ़ना’। चित्त चिहुँटना=प्रेमासक्त होने के कारण मन में कष्टदायक स्मृति होना। उदाहरण–नहिं अन्हाय नहिं जाय घर चित चिहुँठयों स्मृति तकि तीर।–बिहारी। चित्त चुराना-मन को मोहित करना। चित्त देना=ध्यान देना। मत लगाना। उदाहरण–चित्त दै सुनो हमारी बात।-सूर। चित्त धरना (क) किसी बात पर ध्यान देना। मन लगाना। (ख) कोई बात या विचार मन में लाना। उदाहरण–हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ।–सूर। चित्त पर चढ़ना=(क) मन में बसने के कारण बार-बार ध्यान में आना। (ख) स्मृति जाग्रत होना। याद आना, या पड़ना। चित्त बँटना=एक बात या विषय की ओर ध्यान रहने की दशा में कुछ समय के लिए दूसरी ओर ध्यान जाना जो बाधा के रूप में हो जाता है। चित्त में जमना, धँसना, या बैठना अच्छी तरह हृदयंगम होना। दृढ़ निश्चय के रूप में मन में बैठना। चित्त में होना या चित्त होना=इच्छा होना। जी चाहना। चित्त लगना=किसी काम या बात में मन की वृत्ति लगना। ध्यान लगना। जैसे–चित्त लगाकर काम किया करो। चित्त से उतरना (क) ध्यान में न रहना। भूल जाना। जैसे–वह बात हमारे चित्त से उतर गई थी। (ख) पहले की तरह आदरणीय या प्रिय न रह जाना। जैसे–अब तो वह हमारे चित्त से उतर गया है। चित्त से न उतरनाध्यान में बराबर बना रहना। न भूलना। २. नृत्य में, श्रृंगारिक प्रसंगों में अनुराग, प्रसन्नता आदि प्रकट करनेवाली चितवन या दृष्टि। वि० चित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चित्त-कलित  : वि० [स० त०] १. मन में जिसकी आशा या ध्यान किया गया हो। २. प्रत्याशित।
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चित्त-गर्भ  : वि० [सं० चित्त√गर्भ (ग्रहण करना)+अच्, उप० स०] मनोहर। सुंदर।
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चित्त-चारी(रिन्)  : वि० [सं० चित्√चर् (चलना)+णिनि, उप० स०] दूसरों की इच्छा के अनुसार आचरण करने या चलनेवाला।
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चित्त-चौर  : पुं० [ष० त०]=चित्त-चोर।
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चित्त-जन्मा(न्मन्)  : पुं०[ब० स०] कामदेव।
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चित्त-निवृत्ति  : स्त्री० [ष० त०] इच्छा, कष्ट, भावना आदि से होनेवाला चित्त का छुटकारा या निवृत्ति। मन की शांति, संतोष और सुख।
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चित्त-प्रसादन  : पुं० [ष० त०] योग में चित्त का एक संस्कार जो करुणा, मैत्री, हर्ष आदि के उपयुक्त व्यवहार द्वारा होता है। जैसे–किसी को सुखी देखकर प्रसन्न होना, दुःखी के प्रति करुणा दिखाना, पुण्य के प्रति हर्ष और पाप के प्रति उपेक्षा करना। इस से चित्त में सात्त्विक वृत्ति का प्रादुर्भाव होता है।
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चित्त-भंग  : पुं० [ब० स०] बदरिकाश्रम के समीप स्थित एक पर्वत श्रेणी।
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चित्त-भू  : पुं० [सं० चित्त√भू (होना)+क्विप्, उप० स०] १. प्रेम। २. कामदेव।
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चित्त-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] योग-साधन के समय होनेवाली चित्त की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ या वृत्तियाँ जिनमें से कुछ तो अनुकूल और कुछ बाधक होती हैं। मुख्यतः क्षिप्त, मूल, विक्षिप्त और निरुद्ध ये पाँच चित्तभूमियाँ मानी गई है जिनमें से अन्तिम दो योग-साधन के लिए अनुकूल होती हैं।
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चित्त-भेद  : पुं० [ष० त०] मन की अस्थिरता और चंचलता। २. दृष्टिकोणों या विचारों में होनेवाला भेद।
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चित्त-भ्रम  : पुं० [ष० त०] १. मन में होनेवाला किसी प्रकार का भ्रम या भ्रांति। २. [ब० स०] उन्माद। पागलपन।
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चित्त-भ्रांति  : स्त्री० [ष० त०]=चित्त-भ्रम।
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चित्त-योनि  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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चित्त-विक्षेप  : पुं० [ष० त०] १. चित्त का एकाग्र न हो पाना या न रह जाना। चित्त का स्थिर न रहना। २. चित्त की अस्थिरता या चंचलता।
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चित्त-विद्  : पुं० [सं० चित्त√विद् (जानना)+क्विप्, उप० स०] १. वह जो दूसरों के चित्त की बात जानता हो। २. वह जो चित्त या मन के सब भेद और रहस्य जानता हो।
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चित्त-विप्लव  : पुं० [ब० स०] उन्माद। पागलपन।
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चित्त-विभ्रंश  : पुं० [ब० स०]=चित्त-भ्रम।
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चित्त-विश्लेषण  : पुं०[ष० त०] मनोविश्लेषण। (दे०)
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चित्त-वृत्ति  : स्त्री० [ष० त०] १. चित्त की गति। चित्त की अवस्था। २. अभिरुचि। झुकाव।
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चित्त-शुद्धि  : स्त्री० [ष० त०] बुरे विचारों को मन से हटाकर अच्छी बातों की ओर ध्यान देना। जिससे चित्त निर्मल तथा शुद्ध हो जाय।
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चित्त-हारी(रिन्)  : वि० [सं० चित्त√हृ (हरण करना)+णिनि, उप० स०] चित्त हरण करनेवाला, अर्थात् आकर्षक। मनोहर।
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चित्तक  : पुं० दे० ‘चित्रक’।
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चित्तज  : वि० [सं० चित्त√जन् (उत्पन्न होना)+ड, उप० स०] चित या मन में उत्पन्न। पुं० १. प्रेम। २. कामदेव।
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चित्तज्ञ  : वि० [सं० चित्त√ज्ञा (जानना)+क, उप० स०] दूसरों के चित्र या मन की बातें जाननेवाला।
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चित्तर  : पुं०=चित्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चित्तर-सारी  : स्त्री०=चित्रशाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चित्तरा  : स्त्री० चित्रा (नक्षत्र)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चित्तल  : पु० चीतल। (मृग)।
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चित्तवान्(वत्)  : वि० [सं० चिता+मतुप्, मव] [स्त्री० चित्रवती] जिसके चित्त में सदा अच्छी बातें रहती हों।
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चित्ताकर्षक  : वि० [सं०चित्त-आकर्षक, ष० त०] जो चित्त को अपनी ओर आकृष्ट करता हो। मोहित करने या लुभानेवाला।
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चित्तापहारक  : वि० [सं० चित्त-अपहारक, ष० त०]=चित्तहारी।
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चित्ताभोग  : पुं० [सं० चित्त-आभोग, ष० त०] १. पूर्ण चेतनता। २. किसी विषय के प्रति मन की आसक्ति।
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चित्तासंग  : पुं० [सं० चित्त-आर्सग] अनुराग। प्रेम।
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चित्ति  : स्त्री० [सं०√चित्त (ज्ञान होना)+क्तिन्] १. चित्त की वह वृत्ति जो मनु्ष्य को सोचने-विचारने में प्रवृत्त या समर्थ करती है। २. ख्याति। प्रसिद्धि। ३. आस्था। श्रद्धा। ४. कर्म। कार्य। ५. उद्देश्य। लक्ष्य। ६. अथर्व ऋषि की पत्नी का नाम।
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चित्ती  : स्त्री० [सं० चित्र, प्रा० चित्त] १. किसी एक रंगवाली वस्तु पर दूसरे रंग का लाया हुआ चिन्ह्र या दाग। मुहावरा–(रोटी पर) चित्ती पड़ना=रोटी सेंकते समय उस पर छोटे-छोटे दाग पड़ना। २. वे छोटे-छोटे चिन्ह जो वस्त्रों पर काढ़े या छापे जाते हैं। ३. मादा लाल। मुनिया। ४. एक प्रकार का साँप। चीतल। (दे०)। स्त्री० [हिं० चित्त=सफेद दाग] एक ओर से कुछ रगड़ा हुआ इमली का चिआँ जिससे छोटे लड़के जूआ खेलते हैं।
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चित्तौर  : पुं० [सं० चित्रकूट, प्रा० चित्त ऊड़ चितउड़] राजपूताने का एक प्रसिद्ध नगर जहाँ किसी समय महाराणा प्रताप की राजधानी थी।
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चित्य  : वि० [सं०√चि (चयन)+क्यपु, तुक् आगम] १. इकट्ठा किये या चुने जाने के योग्य। २. जो इकट्ठा किया या चुना जा सके। ३. चिता संबंधी। पुं० १. चिता। २. अग्नि।
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चित्र  : पुं० [सं०√चित्र (लिखना)+अच्] १. चंदन आदि से शरीर के किसी अंग विशेषतः मस्तक पर बनाया जानेवाला चिन्ह। तिलक। २. कलम कूचीं पेंसिल आदि की सहायता से कपडे़ कागज दीवार या किसी चिपटे तलवाली वस्तु पर बनाई हुई किसी वस्तु या व्यक्ति की आकृति। क्रि० प्र०–उतारना।–बनाना।–लिखना। ३. यंत्र की सहायता से खींचा या छापा जानेवाला चित्र। जैसे–कैमरे का चित्र (फोटो) या समाचार-पत्रों में प्रकाशित होनेवाले चित्र। ४. कल्पना करने या सोचने पर मानसिक चक्षुओं के सामने आनेवाली आकृति या रूप। मानसिक चित्र। ५. चित्र काव्य। (दे०) ६. एक प्रकार का वर्ण-वृत्त जिसका प्रत्येक चरण समानिका वृत्त के दो चरणों के योग से बनता है। ७. काव्य के तीन अंगो में से एक जिसमें व्यंग्य की प्रधानता नहीं होती। अलंकार। ८. चित्रगुप्त। ९. एक यम का नाम १॰. धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक। ११. रेंड़ का पेड़। १२. अशोक का वृक्ष। १३. चित्रक। चीता। १४. एक प्रकार का कोढ़ जिसमें शरीर में सफेद चितियाँ या दाग पड़ जाते हैं वि० १. रंग-बिंरंगा। कई रंगों का २. चित-कबरा। ३. अनेक प्रकार का। कई तरह का। ४. अदभुत। विचित्र। विलक्षण। ५. प्रायः बदलता रहनेवाला या तरह-तरह के रंग बदलनेवाला। ६. चित्र की तरह सब प्रकार से ठीक, दुरुस्त और सुंदर।
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चित्र-कंठ  : पुं० [ब० स०] कबूतर।
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चित्र-कंबल  : पुं० [कर्म० स०] १. कालीन दरी या इसी तरह की और कोई रंगीन बुनावटवाला कपड़ा। २. हाथी की झूल।
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चित्र-कर  : पुं० [सं०√चित्रकृ (करना)+ट, उप० स०] १. एक संकर जाति जिसकी उत्पत्ति विश्वकर्मा पुरुष और शूद्रा स्त्री से कही गई है। २. उक्त जाति का व्यक्ति। ३. तिनिश का पेड़। ४. चित्रकार।
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चित्र-कर्म(न्)  : पुं० [ष० त०] चित्रकारी।
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चित्र-कला  : स्त्री० [ष० त०] चित्र अंकित करने की क्रिया, ढंग भाव या विद्या। तसवीर बनाने का हुनर।
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चित्र-काय  : पुं० [ब० स०] चीता (जंतु)।
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चित्र-कार  : पुं० [सं० चित्र√कृ (करना)+अण्, उप० स०] वह व्यक्ति जो चित्र अंकित करने की कला में दक्ष हो। चित्र बनानेवाला। चितेरा।
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चित्र-काव्य  : पुं० [मध्य० स०] वह आलंकारिक काव्य जिसके चरणों की रचना ऐसी युक्ति से की गई हो कि वे चरण किसी विशिष्ट क्रम से लिखे जाने पर कमल, खड़ग, घोड़े, रथ, हाथी आदि के चित्रों के समान बन जाते हों। (इसकी गणना अधम प्रकार के काव्यों में होती है।)
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चित्र-कुष्ठ  : पुं० [मध्य० स०] सफेद कोढ़।
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चित्र-कूट  : पुं० [सं० ब० स०] १. उत्तर प्रदेश का एक प्रसिद्ध रमणीय पर्वत जहां वन-वास के समय राम-लक्ष्मण और सीता ने बहुत दिनों तक निवास किया था। यह बाँदा जिले में है और इसके नीचे पयोष्णी नदी बहती है। २. हिमवत् खंड के अनुसार हिमालय की एक चोटी का नाम। ३. राजस्थान के चित्तौर नगर का पुराना नाम।
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चित्र-कृत्  : पुं० [सं० चित्र√कृ (करना)+क्विप्, तुक्, उप० स०] १. चित्र कार। २. तिनिश का पेड़। वि० अद्भुत। विलक्षण।
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चित्र-केतु  : पुं० [ब० स०] १. वह जिसकी पताका चित्रित या रंग-बिरंगी हो। २. लक्ष्मण के एक पुत्र का नाम। (भागवत) ३. वशिष्ठ के एक पुत्र का नाम। ४. गरुड़ के एक पुत्र का नाम। ५. शूरसेन का एक पौराणिक राजा जिसे नारद ने मंत्र का उपदेश दिया था।
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चित्र-कोण  : पुं० [ब० स०] १. कुटकी। २. काली कपास।
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चित्र-गंध  : पुं० [ब० स०] हरताल।
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चित्र-घंटा  : स्त्री० [ब० स०] एक देवी जो नौ दुर्गाओं में से एक है।
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चित्र-जल्प  : पुं० [कर्म० स०] साहित्य में ऐसी बातें जो मान करनेवाली नायिका अथवा रूठा हुआ नायक एक दूसरे से कहते हैं। (इसके दस भेद कहे गये हैं)।
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चित्र-जात  : पुं०=चित्र योग।
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चित्र-तंडुल  : पुं० [ब० स०] वायविडंग।
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चित्र-तल  : पुं० [ष० त०] वह तल या सतह जिस पर चित्र अंकित हो। जैसे–कपड़ा, कागज, काठ, पत्थर आदि।
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चित्र-ताल  : पुं० [कर्म० स०] संगीत में एक प्रकार का चौताला ताल।
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चित्र-तैल  : पुं०[कर्म० स०] अंडी या रेंडी का तेल।
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चित्र-त्वक्(च्)  : पुं० [ब० स०] भोज-पत्र।
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चित्र-दंडक  : पुं० [ब० स० कप्] जमीकंद। सूरन।
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चित्र-देव  : पुं० [कर्म० स०] कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम।
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चित्र-देवी  : स्त्री० [कर्म० स०] १. एक प्रकार की देवी या शक्ति। २. महेन्द्रवारुणी लता।
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चित्र-धर्मा(र्म)  : पुं० [ब० स० अनिच्] महाभारत में उल्लिखित एक दैत्य।
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चित्र-धाम  : पुं० [कर्म० स०] यज्ञादि में पृथ्वी पर बनाया जानेवाला एक चौखूँटा चक्र जिसके खाने भिन्न-भिन्न रंगों से भरे जाते हैं। सर्वतोभद्र चक्र।
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चित्र-नेत्रा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] मैना पक्षी।
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चित्र-पक्ष  : पुं० [ब० स०] तीतर पक्षी।
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चित्र-पट  : पुं० [ष० त० ] १. वह पट (वस्त्र) जिस पर प्राचीन भारत में चित्र बनता था। २. कपड़े या चमड़े पर बना हुआ वह चित्र जो लपेटकर रखा जा सकता हो और आवश्यकता पड़ने पर दीवार आदि पर टाँगा जा सकता हो। ३. कोई ऐसा तल (जैसे–कागज, काठ, पत्थर, हाथी दांत आदि) जिस पर चित्र बना या अंकित हुआ हो। ४. चल-चित्र। (दे०)।
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चित्र-पटी  : स्त्री० [ष० त०] छोटा चित्र-पट।
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चित्र-पत्र  : पुं० [ब० स०] आँख की पुतली के पीछे का वह परदा जिस पर देखी जानेवाली वस्तुओं का प्रतिबिंब पड़ता है। वि० रंग-बिरंगे और विचित्र पंखों या परों वाला।
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चित्र-पत्रिका  : स्त्री० [ब० स० कप्, टाप्, इत्व] १. कपित्थपर्णी वृक्ष। २. द्रोणपुष्पी। गूमा।
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चित्र-पत्री  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] जल-पिप्पली।
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चित्र-पथा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] प्रभास तीर्थ के अंतर्गत ब्रह्मकुंड के पास की एक छोटी नदी जो अब सूख चली है।
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चित्र-पदा  : पुं० [ब० स० टाप्] १. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में २ भगण और २ गुरु होते हैं। २. मैना पक्षी। ३. लजालू या लज्जावती लता। छूई-मुई।
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चित्र-पर्णी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] १. मजीठ। २. कनफोड़ा नाम की लता। ३. जल-पिप्पली। ४. द्रोण पुष्पी। गूमा।
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चित्र-पादा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] मैना पक्षी।
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चित्र-पिच्छक  : पुं० [ब० स०] मयूर। मोर।
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चित्र-पुंख  : पुं० [ब० स०] बाण। तीर।
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चित्र-पुट  : पुं० [ब० स०] संगीत में एक प्रकार का छः ताला ताल।
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चित्र-पुत्री  : स्त्री० [मध्य० स०] कपड़े, लकड़ी आदि की बनी हुई गुड़िया।
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चित्र-पुष्प  : पुं० [ब० स०] शर जाति की एक घास जिसे राम-शर कहते हैं।
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चित्र-पुष्पी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] आमड़ा।
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चित्र-पृष्ठ  : पुं० [ब० स०] गौरैया पक्षी।
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चित्र-फल  : पुं० [ब० स०] चितला मछली। २. तरबूज।
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चित्र-फलक  : पुं० [ष० त०] काठ, पत्थर, हाथी-दांत आदि की वह तख्ती या पटिया जिस पर चित्र बना हो।
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चित्र-बर्ह  : पुं० [ब० स०] १. मोर। मयूर। २. गरुड़ के एक पुत्र का नाम।
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चित्र-भानु  : पुं० [ब० स०] १. अग्नि। २. सूर्य। ३. चीते का पेड़। ४. आक। मदार। ५. भैरव का एक नाम। ६. अश्विनीकुमार। ७. साठ संवत्सरों के अंतर्गत सोलहवें वर्ष का नाम. ८. अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा के पिता जो मणिपुर में राज्य करते थे।
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चित्र-भेषजा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] कठगूलर। कठूमर।
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चित्र-भोग  : पुं० [ब० स०] राजा का वह सहायक और शुभ-चिंतक जो समय पर अनेक प्रकार के पदार्थों तथा गाड़ी घोड़े आदि से उसकी सहायता करे। कौ०)।
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चित्र-मंच  : पुं० [ब० स०] संगीत में एक प्रकार का ताल।
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चित्र-मंडप  : पुं० [ब० स०] १. अश्विनी कुमार । २. अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा के पिता का नाम।
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चित्र-मंडल  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का साँप।
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चित्र-मति  : वि० [ब० स०] विचित्र या विलक्षण बुद्धिवाला।
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चित्र-मद  : पुं० [तृ० त०] नाटक में किसी स्त्री का पति या प्रेमी का अभिनय या चित्र देखकर मस्त होना और उसके प्रति अपने अनुराग का भाव दिखलाना।
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चित्र-मृग  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का चितकबरा हिरन जिसकी पीठ पर सफेद सफेद-चित्तियाँ होती हैं। चीतल।
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चित्र-मेखल  : पुं०[ब० स०] मयूर। मोर।
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चित्र-योग  : पुं० [कर्म० स०] ६४ कलाओं में से एक जिसके द्वारा बुड्ढे को जवान या जवान को बुड्ढा बनाया जाता था।
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चित्र-योधी(धिन्)  : वि० [सं० चित्र√युध् (युद्ध करना)+णिनि, उप० स०] असाधारण और विलक्षण योद्धा। अद्भुत ढंग से युद्ध करनेवाला। पुं० १. अर्जुन। २. अर्जुन वृक्ष।
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चित्र-रथ  : पुं० [ब० स०] १. सूर्य। २. कुबेर का सखा एक गंधर्व, अंगारपर्ण। ३. गद के एक पुत्र और श्रीकृष्ण के पौत्र का नाम ४. गंधर्वों के एक राजा का नाम जो कश्यप ऋषि का पुत्र था।
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चित्र-रश्मि  : पुं० [ब० स०] ४९ मरुतों में से एक।
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चित्र-रेखा  : स्त्री० [ब० स०] वाणासुर की कन्या ऊषा की एक सखी का नाम।
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चित्र-रेफ  : पुं० [ब० स०] १. भागवत के अनुसार शाकद्वीप के राजा प्रियव्रत् के पुत्र मेधातिथि के सात पुत्रों में से एक। २. उक्त के नाम पर प्रसिद्ध एक वर्ष अर्थात् भूखंड।
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चित्र-लता  : स्त्री० [कर्म० स०] मँजीठ।
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चित्र-लिखित  : भू० कृ० [उपमि० स०] १. जो चित्र की तरह सुन्दर बनाकर या सजा-सँवारकर लिखा गया हो। २. जो लिखे हुए चित्र की तरह निश्चल हो गया हो।
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चित्र-लिपि  : स्त्री० [मध्य० स०] वह लिपि जिसमें अक्षरों या वर्णों की जगह वस्तुओँ और क्रियाओं के चित्र बनाकर उनके द्वारा भाव व्यक्त किये जाते हैं। (पिक्टोग्राफी) जैसे–चीन की प्राचीन लिपि।
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चित्र-लेखक  : पुं० [ष० त०] चित्रकार
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चित्र-लेखन  : पुं० [ष० त०] १. कलम, कूँची आदि की सहायता से चित्र अंकित करना। २. बहुत बनाकर और सुन्दर अक्षर लिखना।
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चित्र-लेखनी  : स्त्री० [ष० त०] चित्र अंकित करने की कलम। कूँची।
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चित्र-लेखा  : स्त्री० [ब० स०] १. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में १ भगण, १ मगण, १ नगण और ३ यगण होते हैं २. बाणासुर की कन्या ऊषा की एक सखी जो चित्र बनाने में बहुत निपुण थी। ३. एक अप्सरा का नाम। ४. [ष० त०] चित्र बनाने की कलम या कूँची।
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चित्र-लोचना  : स्त्री० [ब० स०] मैना पक्षी।
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चित्र-वन  : पुं० [कर्म० स०] गंडकी नदी के किनारे का पुराण-प्रसिद्ध एक वन।
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चित्र-वर्मा(र्मन्)  : पुं० [ब० स०] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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चित्र-वल्ली  : स्त्री० [कर्म० स०] १. विचित्र नामक लता। २. महेन्द्रवारुणी।
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चित्र-वहा  : स्त्री० [सं० चित्र√वह् (ढोना)+अच्-टाप्] महाभारत के अनुसार एक नदी।
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चित्र-वाण  : पुं० [ब० स०] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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चित्र-विचित्र  : वि० [द्व० स०] १. जिसमें कई रंग हों। रंग बिरंगा। २. जिसके कई रूप या प्रकार हों। ३. विलक्षण। ४. बेल-बूटेदार. ५. नक्काशीदार।
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चित्र-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] चित्र बनाने की विद्या। चित्रकारी। चित्रकला।
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चित्र-विन्यास  : पुं० [ष० त०] चित्रकारी।
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चित्र-वीर्य्य  : वि० [ब० स०] विचित्र और बहुत बड़ा बलवान या वीर। पुं० लाल रेंड।
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चित्र-शार्दूल  : पुं० [कर्म० स०] चीता नामक हिंसक पशु।
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चित्र-शाला  : स्त्री० [ष० त०] १. वह स्थान जहां चित्र बनते हों या विक्रयार्थ रखे जाते हों। २. वह स्थान जहाँ प्रदर्शन के लिए बहुत से चित्र रखे रहते हों। ३. एक कमरा जिसमें बहुत से चित्र टँगें या लगे हों। (पिक्चर गैलरी) ४. मध्य युग में दंपति के रहने और सोने का कमरा। (राज०)
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चित्र-शालिका  : स्त्री०=चित्र-शाला।
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चित्र-शिखंडिज  : पुं० [सं० चित्र-शिखंडिन्√जन् (उत्पत्ति+ड, उप० स०] बृहस्पति।
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चित्र-शिखंडी(डिन्)  : पुं० [सं० चित्र-शिखंड, कर्म० स०+इनि] मरीचि, अंगिरा, अत्रि पुलस्त्य, पुलह क्रतु वसिष्ठ ये सातों ऋषि। सप्तऋषि।
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चित्र-शिर(स्)  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक गंधर्व का नाम। २. मल-मूत्र के विकार से उत्पन्न होनेवाला एक प्रकार का विष। (सुश्रुत)।
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चित्र-शिल्पी(ल्पिन्)  : पुं० [ष० त०] चित्रकार।
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चित्र-संग  : पुं० [ब० स०] १६ अक्षरों का एक वर्ण-वृत्त।
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चित्र-सभा  : स्त्री० चित्र=शाला।
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चित्र-सर्प  : पुं० [कर्म० स०] चीतल साँप।
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चित्र-सामग्री  : स्त्री० [ष० त०] चित्र अंकित करने की सामग्री। जैसे–रंग, तूलिका, कागज कपड़ा आदि।
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चित्र-सारी  : स्त्री० [सं० चित्र-शाला] १. चित्र अंकित करने या बनाने की क्रिया या भाव। २. चित्रशाला। ३. राजाओं के भोग-विलास और शयन का कमरा जिसमें अनेक सुंदर चित्र लगे रहते थे। ४. स्त्रियों की वह ओढ़नी जिस पर सलमे-सितारे का काम हुआ हो।
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चित्र-सेन  : पुं० [ब० स०] १. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। २. एक गंधर्व का नाम। ३. पुरुवंशी राजा परीक्षित के एक पुत्र। ४. पुराणानुसार शंबरासुर का एक पुत्र।
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चित्र-हस्त  : पुं० [ब० स०] तलवार या और कोई हथियार चलाने का एक विशिष्ट ढंग या हाथ।
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चित्रक  : पुं० [सं० चित्र+कन्] १. मस्तक पर लगाया जानेवाला टीका या तिलक। २. चीता नामक पेड़। ३. चीता नाम का जंतु। ४. रेड़ का पेड़। ५. चिरायता। ६. मुचकुंद का पेड़। ७. चित्रकार। ८. बहादुर। शूर-वीर।
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चित्रकर्मी(र्मिन्)  : पुं० [सं० चित्रकर्म+इनि] १. चित्रकार। मुसौवर। २. अदभुत या विलक्षण काम करनेवाला व्यक्ति। ३. तिनिश का पेड़।
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चित्रकारी  : स्त्री० [हिं० चित्र+कारी] १. चित्र बनाने की कला या विद्या। २. चित्रकार का काम, पद या भाव। ३. बनाये हुए चित्र।
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चित्रगुप्त  : पुं० [ब० स०] पुराणानुसार चौदह यमराजों में से एक जो प्राणियों के पाप और पुण्य का लेखा रखनेवाले कहे गये हैं।
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चित्रण  : पुं० [सं०√चित्र+णिच्+ल्युट-अन] १. चित्र अंकित करने या बनाने की क्रिया या भाव। २. चित्र में रंग भरने का भाव। ३. किसी घटना, भाव, वस्तु, व्यक्ति, आदि का विशद तथा सजीव रूप से शब्दों में किया जानेवाला वर्णन। जैसे–चरित्र-चित्रण।
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चित्रना  : स० [सं० चित्र+हिं० ना (प्रत्य)] १. चित्र आदि बनाना। २. चित्रों में रंग भरना। ३. किसी तल या बेल-बूटे आदि बनाना। ४. शोभा के लिए मुँह पर चमकी आदि लगाना।
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चित्रफला  : स्त्री० [ब० स० टाप्] १. ककड़ी। २. बैंगन। ३. भटकटैया। ४. लिंगिनी नाम की लता। ५. महेंन्द्र वारुणी लता। ६. फलुई नाम की मछली।
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चित्ररथा  : स्त्री० [सं० चित्ररथ+टाप्] महाभारत में वर्णित एक नदी।
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चित्रल  : वि० [सं० चित्र√ला (लेना+क] चितकबरा। रंग-बिंरगा। चितला।
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चित्रला  : स्त्री० [सं० चित्रिल+टाप्] गोरख इमली।
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चित्रवत  : पुं०=चित्रकार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चित्रवती  : स्त्री० [सं० चित्र+मतुप्, वत्व,+ङीष्] गांधार स्वर की एक मूर्च्छना। (संगीत)।
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चित्रवत्  : वि० [सं० चित+वति] उसी प्रकार गति-रहित और स्तब्ध जिस प्रकार चित्र होता है। (ला०)।
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चित्रवदाल  : पुं० [सं०√ आल, आअल् (पर्याप्ति)+अच्, चित्रवत्, आल, कर्म० स०] पाठीन मत्स्य। पहिना मछली।
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चित्रस्थ  : वि० [सं० चित्र√स्था (ठहरना)+क] १. चित्र में अंकित किया हुआ। २. चित्र में अंकित व्यक्ति के समान निश्चल या स्तब्ध।
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चित्रा  : स्त्री० [सं०√चित्र+अच्-टाप्] १. सत्ताइस नक्षत्रों में से चौदहवाँ नक्षत्र जिसमें तीन तारे होते हैं। इसमें गृह-प्रवेश, गृहारंभ और यानों, वाहनों आदि का व्यवहार शुभ कहा गया है। २. मूषिकपर्णी या मूसाकानी लता। ३. ककड़ी खीरा आदि फल। ४. दंती वृक्ष। ५. गाँडर नामक घास। ६. मँजीठ। ७. बायबिंडग। ८. अजवायन। ९. चितकबरी गाय। १॰. एक अप्सरा का नाम। ११. सुभद्रा का एक नाम। १२. एक प्राचीन नदी। १३. एक प्रकार की रागिनी जो भैरव राग की पत्नी कही गई है। १४. संगीत में एक प्रकार की मूर्च्छना। १५. एक प्रकार का पुराना बाजा। १६. पंद्रह अक्षरों की एक वर्णवृत्ति जिसमें पहले तीन नगण, फिर दो यगम होते हैं। १७. एक प्रकार की चौपाई जिसके प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं और अंत में एक गुरु होता है। इसकी पाँचवी, आठवीं और नवीं मात्रा लघु तथा अंतिम मात्रा गुरु होती है।
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चित्रा-विरली  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पुराना कामदार कपड़ा जो आज-कल की जामदानी की तरह का होता था।
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चित्रांकन  : पुं० [चित्र-अंकन, ष० त०] [भू० कृ० चित्रांकित] चित्र अंकित करने या हाथ में तसवीर बनाने का काम। आलेख्य कर्म। (पेन्टिंग)।
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चित्रांकित  : भू० कृ० [सं० चित्र-अंकित, स० त० जो चित्र के रूप में या चित्र में अंकित किया गया हो। चित्रित।
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चित्राक्ष  : पुं० [चित्र-अक्षि, ब० स० षच्] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। वि० [स्त्री० चित्राक्षी] विचित्र और सुन्दर आँखोंवाला।
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चित्राक्षी  : स्त्री० [सं० चित्राक्ष+ङीष्] मैना पक्षी।
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चित्रांग  : भू० [चित्र-अंग, ब० स०] जिसके अंग पर चित्तियाँ धारियाँ चिन्ह्र आदि हों। पुं.१.चित्रक या चीता नाम का पेड़। २. चीतल सांप। ३. ईगुर। सिंदूर। ४. हरताल।
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चित्रांगद  : पुं० [चित्र-अंगद, ब० स०] १. सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न राजा शांतनु के एक पुत्र और विचित्रवीर्य्य के छोटे भाई। २. पुराणानुसार एक गंधर्व। ३. महाभारत के अनुसार दशार्ण के एक राजा।
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चित्रांगदा  : स्त्री० [सं० चित्रांगद+टाप्] १. मणिपुर के राजा चित्रवाहन की कन्या जो अर्जुन को ब्याही थी। और जो बभ्रुवाहन की माता थी। २. रावण की एक पत्नी जिसके गर्भ से वीरबाहु का जन्म हुआ था।
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चित्रांगी  : स्त्री० [सं० चित्रांग+ङीष्] १. मँजीठ। २. कनखजूरा।
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चित्राटीर  : पुं० [सं० चित्रा√अट् (गति)+ईरच्] १. चंद्रमा। २. शिव का घंटाकर्ण नामक अनुचर।
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चित्रादित्य  : पुं० [चित्र-आदित्य, मध्य० स०] प्रभास क्षेत्र में चित्रगुप्त की स्थापित सूर्य्य की मूर्ति। (स्कंद पुराण)।
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चित्राधार  : पुं० [चित्र-आधार, ष० त०] कोरे पन्नों की नत्थी की हुई वह पुस्तक जिसमें आग्रहण, चित्र, रेखा-चित्र आदि लगाये जाते हैं। (एलबम)।
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चित्रान्न  : पुं० [चित्र-अन्न, कर्म० स०] बकरी के दूध में पकाया और बकरी के कान के रक्त में रंगा हुआ जौ और चावल। (कर्मकांड)।
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चित्रायस  : पुं० [चित्र-अयस्, कर्म० स० टच्] इस्पात। (लोहा)।
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चित्रायुध  : पुं० [चित्र-आयुध, कर्म० स०] १. विलक्षण अस्त्र। २. [ब० स०] धृतराष्ट्र का एक पुत्र। वि० जिसके पास विचित्र या विलक्षण अस्त्र-शस्त्र हों।
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चित्रार  : पुं० चित्रकार। उदाहरण–किरि कठचीत्र पूतली निज करि चीत्रारै लागी चित्रण।–प्रिथीराज।
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चित्राल  : पुं० [?] कश्मीर के पश्चिम का एक पहाड़ी प्रदेश। चितराल।
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चित्रालय  : पुं० [चित्र-आलय, ष० त०] चित्रशाला। (दे०)।
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चित्रावसु  : स्त्री० [सं०] तारों से शोभित रात।
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चित्राश्व  : पुं० [चित्र-अश्व, ब० स०] सत्यवान् का एक नाम।
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चित्रिक  : पुं० [सं० चैत+क, पृषो० सिद्धि] चैत का महीना। चैत मास।
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चित्रिणी  : स्त्री० [सं० चित्र+इनि+ङीप्] कामशास्त्र तथा साहित्य में चार प्रकार की नायिकाओं या स्त्रियों में वह नायिका जो अनेक प्रकार की कलाओं तथा बनाव-सिंगार करने में निपुण हो।
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चित्रित  : भू० कृ० [सं०√चित्र्+क्त] १. चित्र के रूप में खींचा या दिखाया हुआ। २. जिसका रंग-रूप चित्र में दिखाया गया हो। ३. जिस पर चितियाँ बेल-बूटे आदि बनें हों। ४. जिसका चित्रण हुआ हो। ५. जो शब्दों में बहुत ही सुन्दर रूप में लिखा गया हो।
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चित्री(त्रिन्)  : वि० [सं० चित्र+इनि] १. चितकबरा। २. चित्रित।
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चित्रीकरण  : पुं० [सं० चित्र+चिव्, ईत्व० दीर्घ√कृ (करना)+ल्युट्-अन] १. विभिन्न वर्णों से रंग भरकर चित्रित करना। २. चित्र के रूप में लाना या उपस्थित करना। ३. सजाना।
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चित्रेश  : पुं० [चित्रा-ईश, ष० त०] चित्रा नक्षत्र के पति चंद्रमा।
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चित्रोक्ति  : स्त्री० [चित्रा-उक्ति, कर्म० स०] १. आकाश। २. अलंकृत भाषा में कही हुई बात। ३. सुन्दर अलंकारों से युक्त उक्ति या कविता।
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चित्रोत्तर  : पुं० [चित्र-उत्तर, ब० स०] साहित्य में उत्तर अलंकार का एक भेद जिसमें प्रश्न ऐसे विचित्र ढंग से रखे जाते हैं कि उन्हीं के शब्दों में उनके उत्तर भी रहते हैं अथवा कई प्रश्नों का एक ही उत्तर भी रहता है। जैसे–‘मुग्धा तियकी केलि रुचि कोन भौन में होय। में का उत्तर ‘कोन भौन’ अर्थात् भवन का कोना है।
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चित्रोत्पला  : स्त्री० [चित्र-उत्पल, ब० स०] उड़ीसा की एक नदी जिसे आज-कल चितरतला कहते हैं २. पुराणानुसार ऋक्षपाद पर्वत से निकली हुई एक नदी।
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चित्र्य  : वि० [सं०√चित्र+ण्यत्] १. पूज्य २. चुनने या चयन किये जाने के योग्य। ३. जिसे चित्र के रूप में लाया जा सके। ४. जो चित्र के रूप में अंकित किये जाने के लिए उपयुक्त हो।
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