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काय  : पुं० [सं०√चि (इकट्ठा करना)+घञ्, नि० सिद्धि] १. काया (दे०)। २. बौद्ध भिक्षुओं का संघ। ३. [क+अण्, इत्व, वृद्धि] प्रजापति के उद्देश्य से दी जानेवाली हाव। ४. प्राजापत्य विवाह। ५. कनिष्ठा उँगली के नीचे का स्थान जिसे प्राजापति तीर्थ भी कहते हैं। ६. उद्देश्य या लक्ष्य। ७. पूँजी। मूलधन। अव्य० प्रश्नवाचक अव्यय। क्या। (बुदेल) जैसे—काय जू ! (संबोधन)।
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काय-चिकित्सा  : स्त्री० [ष० त०] आयुर्वेद में चिकित्सा के आठ प्रकारों या विभागों में से तीसरा, जिसमें शरीर के अंगों और उनमें होनेवाले रोगों (जैसे—उन्माद, ज्वर आदि) का विवेचन और उसकी चिकित्सा का विधान है।
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काय-बंध  : पुं० [सं० ष० त०] कमरबन्द। पटका।
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काय-व्यूह  : पुं० [उपमित० स०] १. युद्ध आदि में व्यक्तियों को खड़ा करके बनाया हुआ मोरचा या रचा हुआ व्यूह। २. [स० त०] वैद्यक में शरीर के अन्दर कफ, पित्त और अस्थि, मज्जा, माँस, शुक्र, स्नायुओं आदि का क्रम या विभाग अथवा उनका विवेचन। ३. योगियों की एक क्रिया, जिसमें वे अपने कर्मों के भोग के लिए प्रत्येक अंग और इंद्रियों का अलग ध्यान या विचार करते हैं।
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कायक  : वि० [सं० काय+वुअ-अक]=कायिक।
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कायक्क  : वि०=कायिक।
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कायजा  : पुं० [अ० कायजा] १. घोड़े के साज का वह अंश जो उसकी दुम में फँसाया जाता है। २. घोड़े की लगाम में बँधी हुई वह डोरी,जो खरहरा करते समय घुमा कर उसकी दुम में फंसाई जाती है। ३. डोरी आदि का कोई फंदा जो कहीं फँसाया जाता हो।
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कायथ  : पुं० =कायस्थ (जाति)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कायदा  : पुं० [अ० कायदः] १. कोई काम करने का अच्छा और अव्यस्थित या शिष्ट-सम्मत ढंग प्रकार प्रणाली या रीति। सलीका। जैसे—हर काम कायदे से होना चाहिए। २. चीजे आदि रखने का अच्छा और व्यवस्थित क्रम या ढंग। करीना। जैसे—सब चीजें कायदे से कमरे में रखी थीं। ३. किसी बात या विषय में परम्परा से चली आई चाल या प्रथा। जैसे—दुनिया (या भले आदमियों) का यही कायदा है। ४. आचरण, व्यवहार आदि के लिए निश्चित किये हुए नियम या विधान। विधि। जैसे—(क) सरकारी कर्मचारियों के लिए अब नये कायदे बने है। (ख) जानवरों का यही कायदा है। उदाहरण—आपके जैसा मिजाज और कायदा उन्होंने नहीं पाया है।—वृन्दावनलाला वर्मा। ५. पढ़ने-लिखने के क्षेत्र में किसी विषय की आरंभिक या पहली पुस्तक (उर्दू) जैसे—अँगरेजी, उर्दू या हिन्दी का कायदा (या कायदे की पुस्तक)।
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कायफर  : पुं० =कायफल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कायफल  : पुं० [सं० कटुफल] एक प्रसिद्ध वृक्ष, जिस की सुगंधित छाल दवा और मसालों के काम में आती है।
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कायम  : वि० [अ०] १. किसी नियत स्थान पर टिका या ठहरा हुआ। स्थिर। २. निर्मित, प्रचलित या स्थापित किया हुआ। जैसे—बच्चों के लिए स्कूल कायम करना। ३. निर्धारित या निश्चित करना। जैसे—राय या हद कायम रखना। ४. दृढ़। पक्का। जैसे—अब हम भी अपने इरादे कपर कायम हैं। ५. जो अपने प्रस्तुत या वर्त्तमान रूप या स्थिति में ज्यों-का-त्यों रहे या रहने दिया जाय। जैसे—शतरंज की बाजी आज यहीं कायम रहे, कल फिर आगे खेल होगा। मुहावरा—(शतरंज की बाजी) कायम उठाना=शतंरज की बाजी को इस प्रकार समाप्त करना, जिसमें किसी पक्ष की हार जीत न हो।
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कायम-मिजाज  : वि० [अ०] (व्यक्ति) जिसके स्वभाव में अव्यवस्था, चंचलता आदि का अभाव हो। स्थिर-चित्त।
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कायम-मुकाम  : वि० [अ०] १. जो किसी के स्थान पर अस्थायी रूप से अथवा प्रतिनिधि बनकर काम करता हो। स्थानापन्न। २. कायम। स्थिर। (बोलचाल)।
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कायर  : वि० [सं० कातर] १. जिसमें उत्साह, बल या साहस का अभाव हो। २. किसी बड़े काम या बात से डर जानेवाला। डरपोक। ३. जो असमर्थ न होने पर भी घबराकर या और किसी कारण से किसी काम से पीछे हटे या मुंह मोड़ ले। ४. डरपोक।
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कायरता  : स्त्री० [सं० कातरता] कायर होने की अवस्था, या भाव।
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कायल  : वि० [अ०] १. किसी के तर्क या विचार को ठीक समझकर मान लेने वाला। २. बात का उत्तर न दे सकने के कारण चुप हो जानेवाला। मुहावरा—(किसी को) कायल करना=अपने तर्क से या समझा-बुझा कर अपने अनुकूल करना।
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कायली  : स्त्री० [अ० कायल] (तर्क में) कायल होने की अवस्था या भाव। जैसे—कायली-माकूली की बात करो। पद—कायली-माकूली=किसी की तर्कसिद्धि बात मान लेना। स्त्री० [सं० कायरता] १. ग्लानि। २. लज्जा। शरम। स्त्री० [सं० क्ष्वेलिका, पा० ख्वेलिका] दही मथने की मथानी। (डिं०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कायस्थ  : वि० [सं० काय√स्था (ठहरना)+क] काय या शरीर में रहनेवाला। पुं० १. जीवात्मा। २. परमात्मा। ३. एक प्रसिद्ध जाति, जो अपने आपको चित्रगुप्त की संतान कहती है। इस जाति के लोग प्रायः लिखने-पढने आदि का काम करते है। ४. उक्त जाति का व्यक्ति।
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कायस्था  : स्त्री० [सं० कायस्थ+टाप्] १. हरीतकी। हड़। २. आँवला। ३. काकोली।
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काया  : स्त्री० [सं० काय] [वि० कायिक] १. जीव, जंतु, मनुष्य आदि का भौतिक या स्थूल ढाँचा। हाड़-माँस का बना हुआ शरीर। देह। २. वृक्ष का तना। ३. किसी वस्तु का बाहरी रूप या ढाँचा। जैसे—वीणा की काया। मुहावरा—काया पलट देना=किसी टूटी-फूटी वस्तु को फिर से नया रूप देना। पूरी तरह से बदल कर रूपांतरित करना। ४. संघ। समुदाय। ५. कानून के अनुसार बनी हुई कोई संस्था (बॉड़ी उक्त सभी अर्थों में)
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कायाकल्प  : पुं० [सं० कायाकल्प] १. कोई ऐसी क्रिया या व्यवस्था जिससे काया की पूरी तरह से शुद्धि हो जाय और वह अपना काम ठीक तरह से करने लगे। २. वैद्यक में उक्त उद्देश्य से की जानेवाली कुछ विशिष्ट प्रकार की चिकित्सा, जिसमें वृद्ध शरीर मे भी फिर से नया यौवन या नई शक्ति आ जाती है।
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कायापलट  : पुं० [हिं० काया+पलटना] १. आकार-प्रकार में होनेवाला बहुत बड़ा परिवर्तन या रूपांतरण। २. एक रूप या शरीर छोड़कर दूसरा रूप या शरीर धारण करना।
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कायिक  : वि० [सं० काय+ठक्-इक] १. काया या शरीर में होने या उससे संबंध रखनेवाला। जैसे—कायिक अनुभाव या भाव, कायिक रोग। २. काया या शरीर के द्वारा किया जाने अथवा होनेवाला। जैसे—कायिक पाप या पुण्य। ३. काय या संघ से संबंध रखनेवाला (बौद्ध)।
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कायिक-अनुभाव  : पुं० [कर्म० स०] १. दे० अनुभाव। २. दे० दे० ‘हाव’।
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कायिका  : स्त्री० [सं० कायिक+टाप्] काय अर्थात् मूल-धन पर मिलने वाला ब्याज। सूद।
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कायिका-वृद्धि  : स्त्री० [ष० त०] प्राचीन भारत में वह व्यवस्था जिसमें किसी से लिए हुए ऋण का ब्याज चुकाने के लिए ऋणी व्यक्ति उसके बदले में महाजन के कुछ काम या तो स्वंय कर देता था या अपने पशुओं आदि से करा देता था (स्मृति)।
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कायोढज  : पुं० [सं० काय-ऊढ, तृ० त० कायोढ़√जन् (पैदा करना)+ड] प्राजापत्य विवाह से उत्पन्न पुत्र।
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कायोत्सर्ग  : पुं० [काय-उत्सर्ग, ब० स०] जैन शिल्प में अर्हत की वह खड़ी मूर्ति जो वीतराग अवस्था में हो।
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