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आर्य  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+ण्यत्] [भाव० आर्यत्व, स्त्री० आर्या] १. आदरणीय, प्रतिष्ठित या श्रेष्ठ व्यक्ति। २. वह जो अपने धर्म के प्रति पूरी निष्ठा और श्रद्धा रखता हो। ३. एक प्रसिद्ध प्राचीन उन्नत और सभ्य जाति जो मध्य एशिया से आकर आर्यावर्त्त या भारत में बसी थी, और जिसकी कुछ शाखाएँ यूरोप आदि की ओर फैली थी। ४. आचार्य, गुरु, पति आदि पूज्य व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त होनेवाला एक पुराना संबोधन। ५. मनु, सावर्ण का एक पुत्र। ६. एक बुद्ध। वि० १. उत्तम। श्रेष्ठ। २. पूज्य। मान्य। ३. कुलीन। ४. उपयुक्त।
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आर्य-घोटक  : पुं० [सं० कर्म० स०] जलूस में निकाला जानेवाला बिना सवार का सजा हुआ घोड़ा। कोतल।
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आर्य-पुत्र  : पुं० [ष० त०] १. आर्यों की संतान। २. स्त्री की ओर से पति के प्रति प्रयुक्त होने वाला एक प्राचीन संबोधन।
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आर्य-वृत्त  : पुं० [ष० त०] धर्मात्मा और सदाचारी।
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आर्य-सत्य  : पुं० [ष० त०] बौद्धों में माने जानेवाले चार मूल और परम उत्कृष्ट सत्य सिद्धांत जो बौद्ध धर्म के मूल आधार माने गये हैं।
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आर्य-समाज  : पुं० [ष० त०] [वि० आर्य-समाजी] हिंदुओं के अंतर्गत एक आधुनिक संप्रदाय जिसे स्वामी दयानंद सरस्वती ने स्थापित किया था। और जो मूर्ति-पूजा, पुराणों आदि का खंडन तथा मूल वैदिक धर्म का पोषण करता है।
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आर्य-समाजी (जिन्)  : पुं० [सं० आर्यसमाज+इनि] वह जो आर्यसमाज के सिद्धांत मानता हो और उसका अनुयायी हो। वि० १. आर्यसमाज संबंधी। २. आर्य समाजियों की तरह का।
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आर्यत्व  : पुं० [सं० आर्य+त्व] आर्य होने की अवस्था, गुण, या भाव। आर्यपन।
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आर्यव  : पुं० [सं० आर्य√वा (गति)+क] १. अच्छा और श्रेष्ठ आचरण। सदाचार। २. उचित और न्याय संगत व्यवहार।
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आर्या-गीति  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] आर्या छंद का एक भेद जिसके सम चरणों में बीस और विषम चरणों में बारह मात्राएँ होती है।
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आर्यावर्त्त  : पुं० [सं० आर्य-आ√वृत्त (रहना)+घञ्] भारतवर्ष का वह उत्तरी और मध्य भाग जिसमें आर्य जाति पहले पहल आकर बसी थी।
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आर्येतर  : वि० [सं० आर्य-इतर, पं० त०] १. जो आर्यन हो, बल्कि उससे भिन्न हो।
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आर्य्या  : स्त्री० [सं० आर्य+टाप्] १. पार्वती। २. पितामही, सास आदि बड़ी बूढ़ियों के लिए आदर सूचक-संबोधन। ३. एक प्रकार का अर्ध-मात्रिक छंद।
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