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आरोह  : पुं० [सं० आ√रुह्+घञ्] १. किसी के ऊपर आरूढ़ होना या चढ़ना। सवार होना। २. नीचे से क्रमात् ऊपर की ओर जाना या बढ़ना। चढ़ाव। ३. वेदांत में, जीवात्मा की उत्तरोत्तर होनेवाली उन्नति या ऊर्ध्व गति। क्रमशः उत्तमोत्तम योनियों की होनेवाली प्राप्ति। ४. दर्शन और विज्ञान में कारण से कार्य का आविर्भाव होना या किसी पदार्थ का आरंभिक या हीन अवस्था से बढ़कर उन्नत और विकसित अवस्था में पहुँचना। जैसे—बीज से अंकुर या अंकुर से वृक्ष बनना, अथवा अल्प, चेतना वाले जीवों क्रमात् प्राणियों की सृष्टि होना। ५. संगीत में, पहले नीचे वाले स्वरों का उच्चारण करते हुए उत्तरोत्तर ऊँचे स्वरो का उच्चारण करना। जैसे—सा,रे,ग,म,प,ध,नि, अथवा रे,ग,प,नि,सा। ६. ऐसा मार्ग जो क्रमशः ऊँचा होता गया हो। चढ़ाई। (एस्सेन्ट, सभी अर्थों के लिए)। ७. फलित ज्योतिष में ग्रहण लगने का एक विशिष्ट प्रकार का भेद। ८. प्राचीन भारत में पशुओं के वे चमड़े जो ऊपर ओढ़ें जाते थे। ९. चूतड़। नितंव।
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आरोहक  : वि० [सं० आ√रुह्+ण्वुल्-अक] आरोहण करने या चढ़ानेवाला।
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आरोहण  : पुं० [सं० आ√रुह्+ल्युट्-अन] [कर्त्ता आरोहक, भू० कृ० आरोहित] १. ऊपर की ओर जाना या बढ़ना। २. किसी के ऊपर चढ़ना या सवार होना। ३. चढ़ाई का मार्ग का रास्ता। ४. सीढ़ी।
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आरोहना  : अ० [सं० आरोहण] ऊपर चढ़ना। आरोहण करना। उदाहरण—दरसन लागि लोग अदनि आरो हैं।—तुलसी।
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आरोहित  : भू० कृ० [सं० आरोह+इतच्] १. जिसने आरोहण किया हो। चढ़ा हुआ। २. ऊपर गया या ऊपर की ओर बढ़ा हुआ।
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आरोही (हिन्)  : पुं० [सं० आ√रुह्+णिनि] [स्त्री०आरोहिणी] १. आरोहण करने या ऊपर चढ़नेवाला। (एसेंडिग)। २. वह जो किसी के ऊपर चढ़ा हो। सवार। ३. संगीत में, स्वर-साधन का वह भेद जिसमें पहले नीचे के स्वरो का उच्चारण करते हुए क्रमशः ऊँचे स्वरों का उच्चारण किया जाता है। इसका विपर्याय अवोरही है। जैसे—सा,रे,ग,म,प,ध,नि,सा।
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