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आभास  : पुं० [सं० आ√भास् (दीप्ति)+अच्] १. चमक। दीप्ति। द्युति। २. कांति। शोभा। ३. छाया। प्रतिबिम्ब। ४. ऐसी बाहरी आकृति रूप या रंग जिसे देखने पर किसी और चीज का धोखा हो सकता हो। ५. उक्त प्रकार की आकृति या रूपरंग के कारण होनेवाला धोखा या भ्रम। जैसे—रस्सी में सांप या सीपी में चांदी का आभास होना। ६. किसी चीज के अनुकरण या ढंग पर बनी हुई कोई दूसरी ऐसी चीज जो ठीक पूरी या शुद्ध न होने पर भी बहुत कुछ मूल की छाया से युक्त हो और देखने में बहुत कुछ वैसी ही जान पड़ती हों। जैसे—यह रस नहीं बल्कि रस का आभास (रसभास) मात्र है। ७. किसी चीज या बात में दिखाई देने वाली किसी दूसरी चीज या बात की ऐसी छाया या झलक जो उस दूसरी चीज या बात का कुछ अनुमान कराती हो। जैसे—उनकी बातों में ही इस बात का आभास था कि वे किसी तरह नहीं मानेगें। ८. ऐसा तर्क या प्रतिपादन जो वास्तव में ठीक न होने पर भी ऊपर से देखने में अच्छा और ठीक जान पड़े। जैसे—हेतु और हेत्वाभास (हेतु का आभास) में बहुत अंतर है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
आभासन  : पुं० [सं० आ√भास्+ल्युट्-अन] १. आभास या आलोक से युक्त करना। प्रकाश से युक्त करना। २. स्पष्ट करना। ३. किसी बात का आभास या झलक देना अथवा उसकी हलकी प्रतीति कराना।
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आभासवाद  : पुं० [सं० ष० त०] वह दार्शनिक सिद्धांत जिसमें यह माना जाता है कि जितनी अमूर्त्त धारणाएँ या भावनाएँ हैं, वे आभास मात्र या देखने भर की हैं, उनकी वास्तविक सत्ता नहीं हैं। (नॉमिनलिज़्म)
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आभासीन  : वि० [सं० आभास से] १. आभास से युक्त। चमकीला। २. आभास रूप में अर्थात् बहुत हलके रूप में दिखाई देनेवाला।
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आभास्वर  : वि० [सं० आ√भास्+वरच्] जिसमें बहुत अधिक आभा या चमक हो। बहुत चमकीला। पुं० एक देव-वर्ग।
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