शब्द का अर्थ
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अवसर :
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पुं० [सं० अव√सृ (गति)+अच्] १. नियत या निश्चित परिस्थिति या समय। जैसे—इसका अवसर एक वर्ष बाद आयेगा। २. ऐसी अनुकूल या वांछनीय परिस्थिति जिसमें अपनी रुचि के अनुसार कार्य किया जा सके। जैसे—ऐसा अवसर भाग्य से ही मिलता है। मुहावरा—अवसर चूकना=किसी अनुकूल या इष्ट परिस्थिति का हाथ से निकल जाना। अवसर ताकना-अनुकूल या इष्ट परिस्थिति की प्रतीक्षा में रहना। अवसर लेना=उपयुक्त समय देखकर किसी से बदला चुकाना। ३. दे० ‘अवकाश’। |
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अवसर-ग्रहण :
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पुं० [ष० त०] दे० ‘अवकाशग्रहण’। |
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अवसर-प्राप्त :
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वि० [सं० ब० स०] =अवकाश-प्राप्त। |
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अवसरवाद :
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पुं० [ष० त०] एक पाश्चात्य दार्शनिक सिद्धांत जिसके अनुसार ईश्वर ही कर्त्ता और ज्ञाता माना जाता है और जीव उसका निमित्त मात्र समझा जाता है। २. यह सिद्धांत कि जब जैसा अवसर आवे तब वैसा काम करके मतलब निकालना चाहिए। (अपारच्युनिज्म)। |
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अवसरवादी (दिन्) :
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वि० [सं० अवसरवाद+इनि] अपने लाभ या अपने स्वार्थ के लिए सदा उपयुक्त अवसर की ताक या तलाश में रहने और उससे लाभ उठानेवाला। |
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अवसरिक :
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वि० [सं० अवसर+ठन्-इक] बीच-बीच में या कुछ विशिष्ट अवसरों पर होता रहनेवाला। (आँकिजनल) |
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अवसर्ग :
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पुं० [सं० अव√सृज् (त्यागना)+घञ्] १. मुक्ति। छुटकारा। २. शिथिलता। ३. देन अथवा दंड आदि में होनेवाली कमी या छूट। (रेमिशन)। |
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अवसर्जन :
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पुं० [सं० अव√सृज्+ल्युट्-अन] १. छोड़ना। त्यागना। २. मुक्त या स्वतंत्र करना। |
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अवसर्प :
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पुं० [सं० अव√सृप् (गति)+घञ्] भेदिया। जासूस। |
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अवसर्पण :
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पुं० [सं० अव√सृप्+ल्युट्-अन] १. ऊपर से नीचे आना या उतरना। २. अघःपतन। |
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अवसर्पिणी :
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स्त्री० [सं० अव√सृप्+णिनि-ङीष्] जैन शास्त्रानुसार पतन का वह काल विभाग जिसमें रूप आदि का क्रमशः ह्रास होता है। अवरोह। विरोह। विवर्त्त। |
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अवसर्पी (र्पिन्) :
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वि० [सं० अव√सृप्+णिनि] नीचे आने या उतरनेवाला। |
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