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अन्य  : वि० [सं०√अन् (जीना)+य] १. उद्दिष्टि या प्रस्तुत को छोड़कर। और कोई। दूसरा। इतर। भिन्न। २. बादवाला। ३.अवशिष्ट। बचा हुआ।
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अन्य-चित्त  : वि० [ब० स०]=अन्यमनस्क।
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अन्य-जात  : वि० [ष० त०] (वस्तु) जो खो या नष्ट हो चुकी हो।
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अन्य-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] व्याकरण में (वक्ता और श्रोता से भिन्न) वह व्यक्ति या वस्तु जिसके विषय में कुछ कहा जाए। (थर्डपरसन)।
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अन्य-पुष्ट  : वि० [तृ० त०] जिसका पोषण किसी और के द्वारा हुआ हो। पुं० कोकिल। कोयल।
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अन्य-पूर्वा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] १. एक को ब्याही जाकर या वास्तव होकर फिर दूसरी से ब्याही जाने वाली कन्या। २. पुनर्विवाह करने वाली स्त्री। पुनर्भू।
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अन्य-भृत  : वि० [सं० अन्य√भू० (पोषण करना)+क्विप्] दूसरे का पालन करनेवाला। पुं० काक। कौआ।
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अन्य-मना (नस्)  : वि०=अन्यमनस्क।
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अन्य-मानस  : वि०=अन्यमनस्क।
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अन्य-वाप  : पुं० [ब० स०] कोयल।
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अन्य-संगम  : पुं० [तृ० त०] अपनी पत्नी या पति को छोड़कर किसी दूसरे के साथ होनेवाला अवैध लैगिंक संबंध।
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अन्य-संभोग-दुःखिता  : स्त्री० [सं० अन्य-संभोग, तृ० त० अन्य संभोग-दुःखिता, तृ० त०] साहित्य में, वह नायिका जो किसी दूसरी स्त्री के लक्षणों से यह जान ले कि इसने मेरे पति के साथ संभोग किया है और इस कारण से दुःखी हो।
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अन्य-साधारण  : वि० [सं० त०] बहुतों में होने या पाया जानेवाला।
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अन्य-सुरति-दुःखिता  : स्त्री० [अन्य-सुरति, तृ० त०, अन्य-सुरति-दुःखिता, तृ० त०] दे० ‘अन्य-संभोग-दुःखिता’।
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अन्यग  : पुं० [सं० अन्य√गम् (जाना)+ड] [स्त्री० अन्यगा] अन्य स्त्री के पास जाने या उससे संबंध रखनेवाला व्यक्ति। व्यभिचारी।
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अन्यगामी (मिन्)  : पुं० [सं० अन्य√गम् (जाना)+णिनि] [स्त्री० अन्यगामिनी] दे० ‘अन्यग’।
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अन्यच्च  : अव्य० [सं० अन्यत्-च, द्व० स०] १. और भी। २. इसके सिवा।
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अन्यतः  : क्रि० वि० [सं० अन्य+तमप्] १. किसी और के द्वारा। दूसरे से। २. किसी और स्थान से।
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अन्यतम  : क्रि० वि० [सं० अन्य+तमप्] जो किसी की तुलना में अन्य या दूसरा न ठहरे, अर्थात् सर्वश्रेष्ठ। पहला और श्रेष्ठ।
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अन्यतर  : वि० [सं० अन्य+तरप्] १. दो में से कोई एक। २. दूसरा। अलग, भिन्न।
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अन्यत्र  : अव्य० [सं० अन्य+वल्] किसी और स्थान पर। किसी दूसरी जगह।
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अन्यत्व  : पुं० [सं० अन्य+त्व] अन्य या दूसरा होने की अवस्था या भाव।
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अन्यत्व-भावना  : स्त्री० [ष० त०] जीवात्मा को शरीर से भिन्न समझना। (जैन)
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अन्यथा  : अव्य० [सं० अन्य+थाच्] दूसरी या विपरीत अवस्था में। नहीं तो। (अदरवाइज) वि० १. विपरीत। उलटा। २. सत्य या वास्तविक से विपरीत। मिथ्या। झूठ। मुहावरा—अन्यथा करना=पहले की आज्ञा या निश्चय रद्द करना या उलटना। (सेट एसाइड)।
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अन्यथा-भाव  : पुं० [तृ० त०] अन्य, दूसरे या भिन्न रूप में होना।
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अन्यथा-सिद्धि  : स्त्री० [तृ० त०] न्याय या तर्क में, किसी अ-यथार्थ या अ-प्रत्यक्ष कारण के आधार पर कोई बात सिद्ध करना, जो दोष माना गया है।
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अन्यदीय  : वि० [सं० अन्य+छ-ईय० दुक्] अन्य या दूसरे का। पराया।
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अन्यबीजज  : पुं० [अन्य-बीज, ष० त० अन्यबीज√जन् (उत्पन्न होना)+ड] दत्तक पुत्र।
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अन्यमनस्क  : वि० [ब० स० कप्] जिसका ध्यान और मन किसी दूसरी तरफ हो। अन-मना।
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अन्यमातृज  : वि० [वि० -मातृ, कर्म० स० अन्यमातृ√जन् (उत्पन्न होना)+ड] दूसरी या सौतेली माता से उत्पन्न।
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अन्यवादी (दिन्)  : वि० [सं० अन्य√वद् (बोलना)+णिनि] झूठी गवाही देनेवाला। पुं० प्रतिवादी।
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अन्यस  : अव्य०=अन्य को। उदाहरण—भजिए कान मूँदकर अन्यस।—निराला।
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अन्याई  : वि० =अन्यायी। उदाहरण—बहुत करी अन्याई।—सूर। स्त्री०=अन्याय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन्यापदेश  : पुं० [अन्य-अपदेश, ष० त०] दे०‘अन्योक्ति’ (अलंकार)।
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अन्याय  : पुं० [सं० न० त०] १. न्याय न करने या होने की क्रिया या भाव। २. ऐसा आचरण या कार्य जो न्याय संगत न हो। ३. दूसरे के साथ किया जानेवाला अति अनुचित व्यवहार।
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अन्यायी (यिन्)  : वि० [सं० अन्याय+इनि] १. जो न्याय न करता हो। अन्याय करनेवाला। २. दूसरों के प्रति अनुचित व्यवहार करनेवाला।
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अन्याय्य  : वि० [सं० न० त०] जो न्याय-संगत न हो। न्याय-विरुद्ध।
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अन्यारा  : वि० [हिं० अ=नहीं+न्यारा] १. जो न्यारा या अलग न हो। मिला हुआ। २. अनोखा। विलक्षण। वि० [स्त्री० अन्यारी०] दे० ‘अनियारा’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)क्रि० वि० [१] बहुत। अधिक। उदाहरण— बढ़े बंस जग मँह अन्यारा। छत्र धर्मपुर को रखवारा।
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अन्यार्थ  : वि० [सं० अन्य+अर्थ, ब० स०] उद्दिष्ट अर्थ से भिन्न अर्थ भी प्रकट करने वाला। जिसका अर्थ कुछ और हो। पुं० उद्दिष्ट से भिन्न अर्थ।
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अन्याश्रित  : वि० [सं० अन्य-आश्रित, ष० त०] दूसरे पर आश्रित या अवलंबित।
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अन्यास  : अव्य=अनायास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन्यासाधारण  : वि० [अन्य-असाधारण, स० त०] १. जो बहुतों में न हो। असाधारण। २. विचित्र।
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अन्यून  : वि० [सं० न० त०] जो न्यून या कम न हो, फलतः यथेष्ट।
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अन्योक्ति  : स्त्री० [अन्य-उक्ति, च० त०] ऐसी व्यंग्यपूर्ण उक्ति जो कही तो किसी और के संबंध में जाए, पर इस ढ़ंग से कही जाए किसी दूसरे पर भी वह ठीक-ठाक घट जाए। अ-प्रत्यक्ष कथन। जैसे—(किसी दुष्ट वाचाल को सुनाकर) तोते से यह कहना कि तुम हरदम टे-टे करते रहते हों, कभी ‘राम’ का नाम नहीं लेते।
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अन्योन्य  : वि० [सं० अन्य, द्वित्व, सु का आगम, रूत्व उत्व, गुण] [भाव० अन्योन्यता] आपस में या एक-दूसरे से लिया दिया जानेवाला। (रेसिप्रोकल) पुं० साहित्य में, एक अलंकार जिसमें दो कार्यों, वस्तुओं आदि के एक दूसरे के कारण कार्य का संबंध बतालाया जाता है अथवा दोनों के एक दूसरे के प्रति समान रूप से कार्य करने का उल्लेख होता हैं। जैसे—(क) बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज होता है। (ख) चंद्रमा के बिना रात और रात के बिना चंद्रमा की शोभा नहीं होती।
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अन्योन्य-प्रजनन  : पुं० [ब० स०] विभिन्न जाति के पशुओं या पौधों के पारस्परिक संसर्ग द्वारा उत्पन्न पशु या पौधे। (क्रास-ब्रीडिंग)
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अन्योन्य-विभाग  : पुं० [स० त०] पैतृक संपत्ति का बँटवारा करने की क्रिया या भाव।
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अन्योन्यता  : स्त्री० [सं० अन्योन्य+तल्-टाप्] अन्योन्य होने या आपस में एक-दूसरे के साथ किए या लिये दिये जाने की अवस्था या भाव। (रेसिप्रोसिटी)
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अन्योन्याभाव  : पुं० [सं० अन्योन्य-अभाव, ष० त०] तर्कशास्त्र में इस बात का सूचक स्थिति कि जो कुछ एक वस्तु है वह दूसरी वस्तु नहीं हो सकती।
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अन्योन्याश्रय  : पुं० [अन्योन्य-आश्रय, ष० त०] १. दो वस्तुओं का आपस में या एक-दूसरे पर आश्रित होना। २. न्याय में, एक वस्तु के ज्ञान से दूसरी वस्तु का होनेवाला ज्ञान। सापेक्ष ज्ञान।
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अन्योन्याश्रयी (यिन्)  : वि० [अन्योन्य-आश्रित, ष० त०] दे० ‘अन्योन्याश्रयी’।
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अन्योवर्य  : वि० [सं० अन्य-उदर, कर्म० स० अन्योदर+यत्] दूसरे के पेट से उत्पन्न। सहोदर का विपर्याय।
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