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अत्यंत  : वि० [सं० अति-अन्त, अत्या० स०] १. जो उचित अंत या सीमा से बहुत आगे बढ़ा हो। (इन्टेन्स) २. जिसका अंत या सीमा न हो। ३. अत्यधिक। बहुत अधिक। अव्य० बहुत अधिकता से।
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अत्यंत-भाव  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा अस्तित्व या भाव जो सदा बना रहे। कभी नष्ट न होने वाला अस्तित्व।
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अत्यंतग  : वि० [सं० अत्यंत√गम् (जाना) +ड] बहुत तेज चलनेवाला।
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अत्यंतगामी (मिन्)  : वि० [सं० अत्यंत गम्+णिनि] अंत या सीमा तक या उसके बाहर जानेवाला।
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अत्यंतता  : स्त्री० [सं० अत्यंत√तल् टाप्] १. अत्यंत होने की अवस्था या भाव। २. उग्रता। प्रचंडता।
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अत्यंतातिशयोक्ति  : स्त्री०[सं० अत्यंत-अतिशयोक्ति, कर्म० स०] साहित्य में अतिशयोक्तिलंकार का एक भेद, जिसमें कारण के आरंभ होने से पूर्व ही कार्य हो जाने का उल्लेख होता है। जैसे—अभी शिव का तीसरा नेत्र खुलने भी न पाया था कि उधर कामदेव जलकर भस्म हो गया।
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अत्यंताभाव  : पुं० [सं० अत्यंत-अभाव, कर्म० स०] १. (किसी बात या वस्तु में होनेवाला) ऐसा अभाव जो नित्य या स्थायी हो। जैसे—वायु या आकाश में रूप का अत्यंतभाव है। (तर्कशास्त्र में यह ५ प्रकार के अभावों में से एक है) २. ऐसी बात जो कभी संभव न हो। जैसे—आकाश-कुसुम, वन्ध्यापुत्र। ३. बहुत अधिक कमी। जैसे—आज कल अन्न का अत्यंतभाव है।
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अत्यंतिक  : वि० [सं० अत्यंत√ठन्-इक] १. निकट का। समीपी। २. बहुत अधिक चलने या घूमनेवाला।
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