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स्मृति  : स्त्री० [सं०] [वि० स्मृत, स्मृति] १. स्मरण-शक्ति जिससे बीती हुई बातें मन में किसी रूप में बनी रहती है। (मेमरी) २. बीती हुई बातों का वह ज्ञान जो स्मरण शक्ति के द्वारा फिर से एकत्र या प्राप्त होता हो। याद। अनुस्मरण। (रिफ्लेक्शन) ३. साहित्य में (क) किसी पुरानी या भूली हुई बात का फिर से याद आना, जो एक संचारी भाव माना गया है। (ख) प्रिय के संबंध की देखी या सुनी हुई बातें रह-रहकर याद आना, जो पूर्व राग की दस दशाओं में से एक है। सिर झुकाकर नीचे देखना, भौंहे चढ़ना आदि इसके अनुभाव कहे गये हैं। ४. धर्म दर्शन, आचार, व्यवहार आदि से संबंध रखनेवाले हिन्दू धर्म-शास्त्र जिनकी रचना ऋषि-मुनियों ने वेदों का स्मरण या चिंतन करके की थी। ५. उक्त प्रकार के अठारह मुख्य ग्रन्थों के आधार पर १८ की संख्या का सूचक शब्द। ६. एक प्रकार का छंद। ७. स्मरण नामक अलंकार या दूसरा नाम।
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स्मृति-उपायन  : पुं०=स्मारिका (पदार्थ या पुस्तिका)।
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स्मृति-चित्र  : पुं० [सं०] वह चित्र जो किसी व्यक्ति या घटना आदि की सामान्य स्मृति के आधार पर बनाया जाय और जिसमें भाव की अपेक्षा रूप या दृश्य आदि की ही प्रधानता हो।
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स्मृति-चिह्न  : पुं० [सं०] कोई ऐसा तत्त्व या पदार्थ जो किसी वस्तु या व्यक्ति की स्मृति बनाये रखने के लिए बचा हो अथवा दिया या लिया गया हो। निशानी।
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स्मृति-पत्र  : पुं० [सं०] १. वह पत्र पुस्तिका आदि जिसमें किसी विषय की कुछ मुख्य-मुख्य बातें स्मरण रखने या कराने के विचार से एकत्र की गई हों। २. दे० ‘ज्ञापन-पत्र’।
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स्मृति-शास्त्र  : पुं० [सं०] स्मृति नाम का धर्मशास्त्र।
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स्मृति-शेष  : वि० [सं०] जिसकी केवल स्मृति रह गई हो,अस्तित्व न रह गया हो। पुं० किसी बहुत पुरानी चीज का वह थोड़ा सा टूटा-फूटा और बचा हुआ अंश,जो उस चीज का स्मरण कराता हो (रेलिक)।
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स्मृति–कारक  : पुं० [सं०] ऐसा औषध जिसके सेवन से स्मरण-शक्ति तीव्र होती हो (वैद्यक)।
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स्मृतिकार  : पुं० [सं०] स्मृति या धर्मशास्त्र बनानेवाला आचार्य।
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