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शब्द का अर्थ

सख  : पुं० [सं० सखि] १. सखा। मित्र। साथी। २. एक प्रकार का वृक्ष।
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सखत  : वि०=सख्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सखती  : स्त्री०=सख्ती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सखत्व  : पुं० [सं० सख+त्व] सखा होने की अवस्था, धर्म या भाव। सखापन। मत्रता। दोस्ती।
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सखयाऊ  : पुं० [हिं० सखा] एक प्रकार का फाग जो बुन्देलखंड में गाया जाता है।
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सखर  : पुं० [सं० अव्य० स०] एक राक्षस का नाम। वि० [सं० सखर] १. तेज धार वाला। चोखा। पैना। २. प्रखर। ३. प्रबल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सखरच, सखरज  : वि० [फा० शाह-खर्च] खुलकर अमीरों की तरह खर्च करने वाला। शाहखर्च। उदा०—बनिय का सरखच, ठकुरक हीन। वैदक पूत, व्याधि नहिं चीन्ह।—घाघ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सखरण  : पुं०=शिखरन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सखरस  : पुं०[सख?+हिं०रस] मक्खन। नैन।
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सखरा  : वि० [हिं० निखरा का अनु] (भोजन) जिसकी गिनती कच्ची रसोई में होती हो। निखरा का विपर्याय। पुं० दे० ‘सखरी’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सखरी  : स्त्री० [हिं० निखरी (अनु।)] हिंदुओं में दाल, भात, रोटी आदि, खाद्य पदार्थ जो घी में नहीं में तले या पकाए जाते और इसी लिए जो चौके के बाहर या किसी अन्य जाति के आदमी के हाथ के बनाए हुए खाने में छूत और दोष मानते हैं। ‘निखरी’ का विपर्याय। स्त्री० [सं० शिखर] छोटा पहाड़। पहाड़ी। (ङिं०)
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सखस  : पुं०=सख्स। (व्यक्ति)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सखसावन  : पुं० [?] १. पालकी। २. आराम कुर्सी। पलंग।
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सखा (खिन्)  : पुं० [सं०] [स्त्री० सखी] १. ऐसा व्यक्ती जो सदा साथ-साथ रहता हो। साथी। संगी। २. दोस्त। मित्र। ३. सहित्य में वह व्यक्तिजो नायक का सहचर हो और जो सुख दुख में बराबर उसका साथ देता हो। ये चार प्रकार के होते हैं। पीठमर्द, विट, चेट और विदूषक।
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सखावत  : स्त्री० [अ०] १. सखी या दाता होने की अवस्था, गुण या भाव। दानशीलता। २. आर्थिक उदारता।
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सखिता  : स्त्री० [सं० सखी+तत्व-टाप्] १. सखी होने की अवस्था, गुण या भाव। २ बंधुता। मित्रता।
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सखित्व  : पुं० [सं० सखी+त्व]=सखिता।
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सखिनी  : स्त्री०=सखी (सखा का स्त्री०)।
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सखी  : स्त्री० [सं०] १. सहेली। सहचरी। संगिनी। २. सहित्य में नायिका के साथ रहने वाली वह स्थिति जो उसकी अंतरंग संगिनी होती, सब बातों में उसकी सहायक रहती और नायक से उसे मिलाने का प्रयत्न करती है। श्रंगार रस में इसकी गणना उद्दीपन विभावों में होती है। इसके कार्य मंडन, शिक्षा, उपालंभ और परिहास कहे गये हैं। ३. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १ ४ मात्राएं और अंत में १ भगण या १ यगण होता है। इसकी रचना में आदि से अंत तक दो-दो कलें होती हैं।—२+२+२+२+२+२ और कभी-कभी २+३+३+२+२+२ भी होती हैं। और विराम ८ तता ६ पर होता है। वि० [अ० सखी] दाता। दानी। दानशील। जैसे—सखी से सूम भला जो तपरत दे जवाब। (कहावत)
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सखी संप्रदाय  : पुं० [सं०] निम्बार्क मत की एक शाखा जिसकी स्थापना स्वामी हरिदास (जन्म सम० १४ ४१ वि०) ने की थी। इसमें भक्त अपने आपको श्रीकृष्ण की सखी मान कर उसकी उपासना तथा सेवा करते और प्रयः स्त्रियो के भेष में रहकर उन्ही के आचारों, व्यवहारों आदि का पालन करते हैं।
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सखीभाव  : पुं० [सं० ष० त० मध्यम० स० वा] वैष्णव संप्रदाय में, भक्ती का एक प्रकार जिसमें भक्त अपने आप के ईष्टदेवता की पत्नी या सखी मानकर उसकी उपासना करते हैं। विशेष—दे० ‘सखी संप्रदाय’।
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सखुआ  : पुं० [सं० शाकः]=साखू (शाल वृक्ष)।
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सखुन  : पुं० [फा० सखुन] १. बात-चीत। वार्तालाप। २. उक्ति कथन। मुहा०—सखुन डालना=किसी से (क) कुछ कहना या माँगना। (ख) प्रश्न करना। पूछना। ३.कविता। काव्य। ४.किसी को दिया दाने वाल वचन। वादा। क्रि० प्र०—देना।—मिलना।
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सखुन-परवर  : पुं० [फा०] [भाव० सखुनपरवी] १. वह जो अपनी कही हुई बात का सदा पालन करता हो। जवान या बात का धनी। २. वह जो अपनी बात पर अड़ा रहता हो। हठी।
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सखुन-शनास  : पुं० [फा०] [भाव० शखुनशनासी] १. वह जो सखुन या काव्य भली-भाँति समझता हो। काव्य का मर्मज्ञ। २. वह जो बात चीत का अर्त ठीक तरह से समझता हो।
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सखुन-संज  : पं० [फा०] १. वह जो बात-चीत अच्छी तरह समझता हो। २. काव्य का मर्मज्ञ।
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सखुन-साज  : पुं० [फा०] [भाव० सखुन-साजी] १. वह जो सखुन कहता हो। काव्य रचना करने वाला। कवि। शायर। २. वह जो प्रायः झूठी नमगढ़ंत हातें कहा करता हो।
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सखुनचीन  : वि० [फा०] [भाव० सखुनचीनी] इधर की बात उधर लगाने वाला। चुगलखोर।
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सखुनतकिया  : पुं० [फा० शकुन-तकियः] वह शब्द जो वाक्यांश कुछ लोगो की जवान पर ऐसा चढ़ जाता है कि बात-चीत करने में प्रायः मुँह से निकला करता है। तकिया कलाम। जैसे—क्या नाम, जो है सो, राम आसरे आदि।
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सखुनदाँ  : [फा०] १. वह जो सखुन अर्थात काव्य अच्छी तरह समझता हो। काव्य रसिक। २. वह जो बात चीत का आशय अच्छी तरह समझता हो।
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सखुनदानी  : स्त्री० [फा०] सखुनदाँ होने की अवस्था, गुण या भाव।
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सख्त  : वि० [फा० सख्त] [भाव० सख्ती] १. कठोर कड़ा। जैसे—पत्थर की तरह सख्त। २. दृढ। पक्का। ३. मुश्किल। जैसे—सख्त सवाल। ४. तीक्ष्ण। प्रखर। तेज। जैसै०—सख्त गरमी। ५. दया, ममता आदि से रहित या हीन। जैसे—सख्त दिल, सख्त बरताव। ६. बहुत अधिक। औरों से बह्तु बढ़ा हुआ। (केवल दुर्गुणों और दुर्गुणियों के संबंध मे) जैसै०—सख्त नालायकी, सख्त बेवकूफी।
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सख्ती  : स्त्री० [फा०] १. सख्त या कड़े होने की अवस्था या भाव। कड़ापन। २. व्यवहार आदि का उग्रता या कठोरता। जैसे—बिना सख्ती किये काम न चलेगा। ३. कष्ट। विपत्ति। संकट। उदा०—सख्तियाँ तो दी ही सही थीं, मैनें सारी उम्र में। एक तेरे आने से पहले एक तेरे जाने के बाद।—कोई शायर।
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सख्य  : पुं० [सं०] १. सखा होने की अवस्था या भाव। २. मित्रता। दोस्ती। ३. बराबरी। समानता। ४. वैष्णव धर्म में भक्ती का वह प्रकार या रूप जिसमें भक्त अपने ईष्टदेव को अपना सखा मानकर उसकी आराधना या उपासना करता है। (नौ प्रकार की भक्तियों में से एक)
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सख्यता  : स्त्री० [सख्य+तल्—टाप]=सख्य।
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