शब्द का अर्थ
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नाड़ी :
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स्त्री० [सं० नाड़ि+ङीष्] १. नली। २. शरीर के अंदर मास और तंतुओं से मिलकर भी हुई बहुत-सी नालियों में से कोई या हर एक जो हृदय से शुद्ध रक्त लेकर सब अंगों में पहुँचाती है। धमनी। ३. कलाई पर की वह नाड़ी, जिसकी गति आदि देखकर रोगी की शारीरिक अवस्था विशेषतः ज्वर आदि का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। (वैद्य) मुहा०–नाड़ी चलना=कलाई की नाड़ी में स्पंदन या गति होना, जो जीवित रहने का लक्षण है। नाड़ी छूटना=उक्त नाड़ी का स्पंदन बंद हो जाना जो मृत्यु हो जाने का सूचक होता है। नाड़ी देखने=कलाई की नाड़ी पर उंगलियाँ रखकर उनकी गति देखना और उसके आधार पर रोग का निदान करना। (वैद्यों की परिभाषा) नाड़ी धरना या पकड़ना=नाड़ी देखना। नाड़ी बोलना=नाड़ी में गति या स्पंदन होता रहना। जैसे–अभी नाड़ी बोल रही है, अर्थात् अभी शरीर में प्राण हैं। ४. बंदूक की नली। ५. काल का एक मान जो 6 क्षणों का होता है। ६. गाँडर दूब। ७. वंशपत्री। ८. कपट। छल। ९. फोड़े आदि का मुँह। १॰. फलित ज्योतिष में, वैवाहिक गणना में काम आनेवाले चक्रों में बैठाये हुए नक्षत्रों का समूह। ११. तृण या वनस्पति का पोला डंठल। |
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नाड़ी मंडल :
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पुं० [सं०] विषुवत् रेखा। (दे०) |
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नाड़ी-कलापक :
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पुं० [सं० ब० स०, कप्] सर्पाक्षी का भिड़नी नाम की घास। |
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नाड़ी-कूट :
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पुं० [सं० ब० स०] नाड़ी-नक्षत्र। |
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नाड़ी-केल :
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पुं० [सं०=नारिकेल, पृषो० सिद्धि] नारियल। |
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नाड़ी-चक्र :
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पुं० [सं०] १. हठयोग के अनुसार नाभिदेश में कल्पित एक अंडाकार गाँठ, जिससे निकलकर सब नाड़ियाँ फैली हुई मानी गई हैं। २. फलित ज्योतिष में वह चक्र जो वैवाहिक गणना के लिए बनाया जाता है और जिसके भिन्न-भिन्न कोष्ठों में भिन्न-भिन्न नक्षत्रों के नाम लिखे होते हैं। |
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नाड़ी-चरण :
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पुं० [सं० ब० स०] पक्षी। |
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नाड़ी-जंघ :
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पुं० [सं० ब० स०] १. महाभारत के अनुसार एक बगला जो कश्यप का पुत्र, ब्रह्मा का अत्यंत प्रिय-पात्र और दीर्घ-जीवी था। २. एक प्राचीन ऋषि। ३. कौआ। |
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नाड़ी-तरंग :
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पुं० [सं० ब० स०] १. काकोल। २. हिंडक। |
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नाड़ी-तिक्त :
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पुं० [तृ० त०] नेपाली नीम। नेपाल निंब। |
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नाड़ी-देह :
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वि० [ब० स०] अत्यंत दुबला-पतला। पुं० शिव का एक द्वारपाल। |
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नाड़ी-नक्षत्र :
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पुं० [मध्य० स०] फलित ज्योतिष में, वैवाहिक गणना के काम के लिए बनाए हुए कल्पित चक्रों में स्थित नक्षत्र। |
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नाड़ी-यंत्र :
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पुं० [उपमि० स०] एक प्रकार का प्राचीन उपकरण, जिससे नाड़ियों की चीर-फाड़ की जाती थी और उनमें घुसी हुई चीजें निकाली जाती थीं। (सुश्रुत) |
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नाड़ी-वलय :
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पुं० [ष० त०] समय का ज्ञान करानेवाली एक प्रकार का प्राचीन उपकरण। |
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नाड़ी-व्रण :
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पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का घाव जो नली के छेद के समान होता है तथा जिसमें से मवाद निकलता रहता है। नासूर। (साइनस) |
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नाड़ी-शाक :
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पुं० [मध्य० स०] पटुआ (साग)। |
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नाड़ी-हिंगु :
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पुं० [मध्य० स०] १. एक तरह का वृक्ष जिसके गोद में हींग की सी गंध होती है। २. उक्त वृक्ष का गोंद जो ओषधि के काम आता है। |
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नाड़ीक :
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पुं० [सं० नाड़ी√कै (मालूम पड़ना)+क] एक प्रकार का साग। पटुआ साग। |
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नाड़ीका :
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स्त्री० [सं० नाड़ी+कन्–टाप्] श्वास-नलिका। |
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नाड़ीच :
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पुं० [सं० नाड़ी√चि (चयन)+ड] पटुआ (साग)। |
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