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कर्म-योग  : [√सं० क (हिंसा)+ मनिन्—कर्म, कर्म-युग, मध्य० स०] कलियुग।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
कर्म-योग  : पुं० [सं० त०] दार्शनिक क्षेत्र में, वह मत या सिद्धांत जिसके अनुसार मनुष्य सब प्रकार के शास्त्र-विहित तथा शुभ कर्मों का आचरण बिलकुल निर्लिप्त होकर करता है; और इस बात का विचार नहीं करता कि या काम पूरा उतरेगा या नहीं अथवा इसका शुभ फल मुझे मिलेगा या नहीं। फलाफल का विचार किये बिना अपने कर्त्तव्य के पालन में बराबर लगे रहने का नियम या व्रत। (श्रीमदभगवद् गीता में इस मत का विशेष रूप से प्रतिरपादन हुआ है।)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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