संभोग से समाधि की ओर
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संभोग से समाधि की ओर...
यौन : जीवन का ऊर्जा-आयाम
धर्म के दो रूप हैं। जैसे कि सभी चीजों के होते हैं। एक स्वस्थ और एक
अस्वस्थ।
स्वस्थ धर्म तो जीवन कौ स्वीकार करता है। अस्वस्थ धर्म जीवन को अस्वीकार करता
है।
जहां भी अस्वीकार है, वहां अस्वास्थ्य है। जितना गहरा अस्वीकार होगा, उतना ही
व्यक्ति आत्मघाता है। जितना गहरा स्वीकार होगा उतना ही व्यक्ति जीवनोन्मुक्त
होगा।
तो जिन धर्म-शास्त्रों में कहा गया है, स्त्री-पुरुष दूर रहैं, स्पर्श भी न
करें, मैं उन्हें रुग्ण मानता हूं, बीमार। स्वस्थ तो मैं उस बात को मानता
हूं, जो जीवन है, जीवन की जो सहजता है, जो जीवन का निसर्ग भाग है। उसका जहां
अंगीकार है।
ऐसे धर्म-शास्त्र भी है, जो स्त्री-पुरुष के बीच किसी तरह की कलह, द्वंद्व और
संघर्ष नही करते। उन्ही तरह के धर्म-शास्त्रों का नाम तंत्र है। और मेरी
मान्यता यह है कि जितनी गहरी पहुंच तंत्र की है जीवन के संबंध में, उतनी
क्षुद्र शास्त्रों की नहीं है, जहां निषेध किया गया है। मैं तो समर्थन में
नहीं हूं। क्योंकि मेरी मान्यता ऐसी है कि जैविक और परमात्मा दो नहीं हैं।
परमात्मा जगत की ही गहनतम उानुभूति है। और मोक्ष कोई संसार के विपरीत नहीं
है। बल्कि संसार के अनुभव में ही जाग जाने का नाम है।
मैं पूरे जीवन को स्वीकार करता हूं-उसके समस्त रूपों में।
स्त्री-पुरुष इस जीवन के दो अनिवार्य अंग हैं। और एक अर्थ में पुरुष भी अधूरा
है, और एक अर्थ में स्त्री भी अधूरी है। उनकी निकटता जितनी गहन हो सके, उतना
ही एक का अनुभव शुरू होता है। तो मेरी दृष्टि में स्त्री-पुरुष के प्रेम में
परमात्मा की पहली झलक उपलब्ध होती है। और जिस व्यक्ति को स्त्री-पुरुष के
प्रेम में परमात्मा की पहली झलक उपलब्ध नहीं होती, उसे कोई भी झलक उपलब्ध
होनी मुश्किल है।
स्त्री-पुरुष के बीच जो आकर्षण है, वह अगर हम ठीक से समझें तो जीवन का ही
आकर्षण है। और गहरे समझें तो स्त्री-पुरुष के बीच का जो आकर्षण है, वह
परमात्मा की ही लीला का हिस्सा है, उसका ही आकर्षण है। तो मेरी दृष्टि में
उनके बीच के आकर्षण में कोई भी पाप नहीं है।
लेकिन क्या कारण से, स्त्री-पुरुष को कुछ धर्मों ने, कुछ धर्म-शास्त्रों ने,
कुछ धर्म गुरुओं ने एक शत्रुता का भाव पैदा करने की कोशिश की। गहरे में एक ही
कारण है। मनुष्य के अहंकार पर सबसे बड़ी चोट प्रेम में पड़ती है। जब एक पुरुष
एक सी के प्रेम में पड़ जाता है, या एक स्त्री एक पुरुष के प्रेम में पड़ती है,
तो उन्हें अपना अहंकार तो छोड़ना ही पड़ता है। प्रेम की पहली चोट अहंकार पर
होती है। तो जो अति अहंकारी हैं वे प्रेम से बचेंगे। बहुत अहंकारी व्यक्ति
प्रेम नहीं कर सुकता, क्योंकि वह दांव पर लगाना पड़ेगा प्रेम।
प्रेम का मतलब ही यह है कि मैं अपने से ज्यादा मल्यवान किसी दूसरे को मान रहा
हूं। उसका मतलब ही यह है कि मेरा सुख गौण है, अब किसी दूसरे का सुख ज्यादा
महत्त्वपूर्ण है। और जरूरत पड़े तो मैं अपने को पूरा मिटाने को राजी हूं ताकि
दूसरा बच सके। और फिर प्रेम की जो प्रक्रिया है, उसका मतलब ही है कि एक-दूसरे
मेंत्तीन हो जाना।
शरीर के तल पर यौन भी इसी लीनता का उपाय है-शरीर के तल पर। प्रेम और गहरे तल
पर इसी लीनता का उपाय है। लेकिन दोनों लीनताएं है-एक-दूसरे में डूब जाना और
एक हो जाना; एक फ्यूजन, फासला मिट जाए और कहीं मेरा 'मैं' खो जाए, अस्तित्व
रह जाए, 'मैं' का कोई भाव न रहे।
तो प्रेम से सबसे ज्यादा पीड़ा उनको होती है, जिनको अहंकार की कठिनाई है। तो
अहंकारी व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता। अहंकारी व्यक्ति प्रेम के ही विरोध मे
हो जाएगा और अहंकारी व्यक्ति काम के भी विरोध मैं हो जाएगा। ऐसे अहंकारी
व्यक्ति अगर धार्मिक हो जाएं तो उनसे भी धर्म का जन्म होता है, वह रुग्ण धर्म
है। और ऐसे अहंकारी व्यक्ति अक्सर धार्मिक हो जाते हैं। क्योंकि उन्हें जीवन
में अब कहीं जाने का उपाय नहीं रह जाता।
जिसका प्रेम का द्वार बंद है, उसके जीवन का भी द्वार बंद हो गया। और जिसे
प्रेम का अनुभव नहीं हो रहा है, उसके जीवन में दुःख ही दुःख रह गया। अब इस
दुःख से ऊब रहे हैं। इसलिए उबरने का कोई रास्ता खोज रहे हैं। वह प्रेम में खो
नहीं सकता तो अब वह कहीं और खोने का रास्ता खोज रहा है।
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