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संभोग से समाधि की ओर

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संभोग से समाधि की ओर...


लेकिन घर जूता छोड़ आने से जूते से मुक्ति नहीं होती। जूता उसका पीछा करने लगा। वह कागज पर कुछ भी बनाता है तो जूता बन जाता है। वह रजिस्टर पर कुछ ऐसे ही लिख रहा है कि पाता है जूते ने आकार ले लेना शुरू कर दिया। उसके प्राणों में जूता घिरने लगा। वह बहुत घबरा गया है और उसे ऐसा डर लगने लगा है कि धीरे-धीरे कि मैं किसी भी दिन हमला कर सकता हूं। तो उसने अपने घर आकर कहा कि अब मुझे नौकरी पर जाना ठीक नहीं, मैं छुट्टी लेना चाहता हूं, क्योंकि अब हालत भी ऐसी हो गई कि मैं दूसरे का जूता निकालकर भी मार सकता हूं और अपने जूते की जरूरत नहीं रह गई। मेरे हाथ दूसरे लोगों के पैरों की तरफ भी बढ़ने की कोशिश करते हैं।

तो घर के लोगों ने समझा कि वह पागल हो गया है, उसे एक मनोवैज्ञानिक के पास ले गए। उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, इसकी बीमारी बड़ी नहीं, छोटी-सी हैं। इसके मालिक की एक तस्वीर घर में लगा लो और उससे कहो, रोज सुबह पाँच जूता धार्मिक भाव से मारा करे। पांच जूता मारे तब दफ्तर जाए-बिल्कुल रिलीजसली। ऐसा नहीं कि किसी दिन चूक जाए। जैसे लोग ध्यान, जप करते है-बिल्कुल वक्त पर पांच जूता मारे। दफ्तर से लौटकर पांच जूता मारे। वह आदमी पहले तो बोला, यह क्या पागलपन की बात है? लेकिन भीतर उसे खुशी मालूम हुई। वह हैरान हुआ, उसने कहा, लेकिन मुझे भीतर खुशी मालूम हो रही है।

तस्वीर टांग ली गई और वह रोज पांच जूते मारकर दफ्तर गया। पहले दिन हो जब वह पांच जूते मारकर दफ्तर गया तो उसे एक बड़ा अनुभव हुआ। मालिक के प्रति उसने दफ्तर में उतना क्रोध अनुभव नहीं किया और 15 दिन के भीतर तो वह मालिक के प्रति अत्यंत विनयशील हो गया। मालिक को भी हैरानी हुई उसे तो कुछ पता नहीं कि भीतर क्या चल रहा है। उसने उसको पूछा कि तुम आजकल बहुत आज्ञाकारी, बहुत विनम्र, बहुत शांत दिल हो गए हो। बात क्या है? उसने कहा कि वह मत पूछिए नहीं तो सब गड़बड़ हो जाएगा।
क्या हुआ-तस्वीर को जूते मारने से कुछ हो सकता है? लेकिन तस्वीर को जूते मारने से वह जो जूते मारने का भाव है, वह तिरोहित हुआ, वह इवोपरेट हुआ, वह वाष्पीभूत हुआ।

खजुराहो के मंदिर या कोणार्क और पुरी के मंदिर जैसे मंदिर सारे देश के गाव-गांव में होने चाहिए।
बाकी मंदिरों की कोई जरूरत नहीं है, वे बेवकूफी के सबूत है, उनमें कुछ नहीं है। उनमे न कोई वैज्ञानिकता है, न कोई अर्थ, न कोई प्रयोजन है। वे निपट गंवारा के सबूत हैं। लेकिन खजुराहो के मंदिर जरूर अर्थपूर्ण हैं।

जिस आदमी का भी मन सेक्स से बहुत भरा हो, वह जाकर इन पर ध्यान करे और वह हल्का लौटेगा शांत लोटेगा। तंत्रों ने जरूर सेक्स को आध्यात्मिक बनाने की कोशिश की थी, लेकिन इस मुल्क के नीतिशास्त्री और जो मॉरल प्रीचर्स हैं, उन दुष्टों ने उनकी बात को समाज तक नहीं पहुंचने दिया। वह मेरी बात भी नहीं पहुंचने देना चाहते।

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