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संभोग से समाधि की ओर

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संभोग से समाधि की ओर...


लेकिन आज सब बच्चे जानते हैं कि मां-बाप बेईमान और धोखेबाज हैं। यह बच्चे और मां-बाप के बीच एक कलह का एक कारण बनता है। सेक्स का दमन पति और पत्नी को तोड़ दिया है। मां-बाप और बच्चों को तोड दिया है।
नहीं सेक्स का विरोध नहीं निदा नहीं, बल्कि सेक्स की शिक्षा दो जानी चाहिए।
जैसे ही बच्चे पूछने को तैयार हो जाएं जो भी जरूरी मालूम पड़े, जो उनकी समझ के योग्य मालूम पड़े वह सब उन्हें बता दिया जाना चाहिए ताकि वे सेक्स के संबंध में अति उत्सुक न हों। ताकि उनका आकर्षण न पैदा हो, ताकि वे दीवाने होकर गलत रास्तों से जानकारी पाने की कोशिश न करें।
आज बच्चे सब जानकारी पा लेते हैं यहा-वहां से। गलत मार्गों से, गलत लोगों से उन्हें जानकारी मिलती है, जो जीवन भर उन्हें पीड़ा देती है। और मां-बाप और उनके बीच एक मौन की दीवार होती है-जैसे मां-बाप को कुछ भी पता नहीं और बच्चों को भी पता नहीं है! उन्हें सेक्स की सम्यक शिक्षा मिलनी चाहिए-राइट एजुकेशन।
और दूसरी बात, उन्हें ध्यान की दीक्षा मिलनी चाहिए। कैसे मौन हों, कैसे शांत हों, कैसे निर्विचार हों। और बच्चे तका निर्विचार हो सकते हैं मौन हो सकते हैं शांत हो सकते हैं-चौबीस घंटे में एक घंटा अगर बच्चों को घर में मौन में ले जाने की व्यवस्था हो। निश्चित ही, वे मौन में तभी जा सकेंगे, जब आप भी उनके साथ मौन बैठ सकें। हर घर में एके घंटा मौन का अनिवार्य होना चाहिए। एक दिन खाना न मिले घर में तो चल सकता है लेकिन एक घंटा मौन के बिना घर नहीं चल सकता है।

वह घर झूठा है। उस घर को परिवार कहना गलत है, जिस परिवार में एक घंटे के मौन की दीक्षा नहीं है। वह एक घंटे का मौन चौदह वर्षों में उस दरवाजे को तोड़ देगा। रोज धक्के मारेगा। उस दरवाजे को तोड़ देगा, जिसका नाम ध्यान है। जिस ध्यान से मनुष्य को समयहीन टाइमलेसनेस इगोलेसनेस, अहंकार-शून्य अनुभव होता है, जहां से आत्मा की झलक मिलती है। वह झलक सेक्स के अनुभव के पहले मिल जानी जरूरी है। अगर वह झलक मिल जाए तो सेक्स के प्रति अतिशय दौड़ समाप्त हो जाएगी। ऊर्जा इस नए मार्ग से बहने लगेगी।
यह मैं पहला चरण कहता हूं।
ब्रह्मचर्य की साधना में, सेक्स के ऊपर उठने की साधना मे, सेक्स की ऊर्जा के ट्रासफामेंशन के लिए पहला चरण है ध्यान और दूसरा चरण है प्रेम। बच्चे को बचपन से ही प्रेम की दीक्षा दी जानी चाहिए।
हम अब तक यही सोचते रहे हैं कि प्रेम की शिक्षा मनुष्य को सेक्स में ले जाएगी। यह बात अत्यंत प्रांत है। सेक्स की शिक्षा तो मनुष्य को प्रेम में ले जा सकती है, लेकिन प्रेम की शिक्षा कभी किसी मनुष्य को सेक्स में नहीं ले जाती।
बल्कि सच्चाई उल्टी है।
जितना प्रेम विकसित होता है, उतनी ही सेक्स की ऊर्जा प्रेम में रूपांतरित होकर बंटनी शुरू हो जाती है।
जो लोग जितने कम प्रेम से भरे होते हैं उतने ही ज्यादा कामुक होंगे, उतने ही सेक्सुअल होंगे।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही ज्यादा घृणा होगी।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतना ही विद्वेष होगा।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही ईर्ष्या होगी।
जिनके जीवन में जितना ही कम प्रेम है, उतनी ही उनके जीवन में प्रतिस्पर्धा होगी।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही चिंता और दुःख होगा।
दुःख चिता ईर्ष्या, घृणा, द्वेष इन सबसे आदमी जितना ज्यादा घिरा है, उसकी शक्तियां सारी-की-सारी भीतर इकट्ठी हो जाती हैं। उनके निकास का कोई मार्ग नहीं रह जाता है। उनके निकास का एक ही मार्ग रह जाता है-वह सेक्स है।
प्रेम शक्तियों का निकास बनता है। प्रेम बहाव है। क्रिएशन-सृजनात्मक है प्रेम। इसलिए वह बहता है और एक तृप्ति लाता है। वह तृप्ति सेक्स की तृप्ति से बहुत ज्यादा कीमती और गहरी है। जिसे वह तृप्ति मिल गई। वह फिर कंकड़-पत्थर नहीं बीनता, जिसे हीरे-जवाहरात मिलने शुरू हो जाते हैं।
लेकिन घृणा से भरे आदमी को वह तृप्ति कभी नहीं मिलती। घृणा में वह तोड़ देता है चीजों को। लेकिन तोड़ने से कभी किसी आदमी को कोई तृप्ति नहीं मिलती। तृप्ति मिलती है निर्माण करने से।
द्वेष से भरा आदमी संघर्ष करता है। लेकिन संघर्ष से कोई तृप्ति नहीं मिलती। तृप्ति मिलती है दान से देने से। छीन लेने से नहीं। संघर्ष करने वाला छीन लेता है। छीनने से वह तृप्ति कभी नहीं मिलती, जो किसी को दे देने से और दान से उपलब्ध होती है।
महत्वाकांक्षी आदमी एक पद से दूसरे पद की यात्रा करता रहता है। लेकिन कभी भी शांत नहीं हो पाता। शांत वे होते है जो पदों की यात्रा नहीं बल्कि प्रेम की यात्रा करते हैं। जो प्रेमके एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ की यात्रा करते हैं।
जितना आदमी प्रेमपूर्ण होता है उतनी तृप्ति एक केटेंटमेंट, एक गहरा संतोष, एक आनंद का भाव, एक उपलब्धि का भाव, उसके प्राणों के रग-रग में बहने लगता है। उसके सारे शरीर से एक रस झलकने लगता है, जो तृप्ति का रस है, जो आनंद का रस है। वैसा तृप्त आदमी सेक्स की दिशाओं में नहीं जाता। जाने के लिए रोकने के लिए चेष्टा नहीं करनी पड़ती। वह जाता ही नहीं, क्योंकि वही तृप्ति जो क्षण भर को सेक्स से मिलती थी, प्रेमसे यह तृप्ति चौबीस घंटे को मिल जाती है।
तो दूसरी दिशा है,कि व्यक्तित्व का अधिकतम विकास प्रेम के मार्गों पर होना चाहिए। हम प्रेम करें, हम प्रेम दें, हम प्रेम में जिएं।
और जरूरी नहीं है कि हम प्रेम मनुष्य को ही देंगे, तभी प्रेम की दीक्षा होगी। प्रेम की दीक्षा तो पूरे व्यक्तित्व के प्रेमपूर्ण होने की दीक्षा है, वह तो 'टू बी लविंग' होने की दीक्षा है।

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