संभोग से समाधि की ओर
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संभोग से समाधि की ओर...
लेकिन अब तक का रुख उल्टा रहा है। वह रुख कहता है, जीवन को छोड़ो। वह रुख कहता
हैँ, जीवन को त्यागो। वह यह नही कहता है कि जीवन मे खोजो। वह यह नहीं कहता है
कि जीवन को जीने की कला सीखो। वह यह भी नहीं कहता कि जीवन को जीने के ढंग पर
निर्भर करता है कि जीवन कैसा मालूम पड़ेगा। अगर जीवन अंधकारपूर्ण मालूम पड़ता
है, तो वह जीने का गलत ढंग है। यही
जीवन आनंद की वर्षा भी बन सकता है, अगर जीने का सही ढंग उपलब्ध हो जाए।
धर्म को मैं जीने की कला कहता हूं। वह 'आर्ट ऑफ लिविंग' है। धर्म जीवन का
त्याग नहीं है, जीवन की गहराइयों में उतरने की सीढ़ियां हैं।
धर्म जीवन की तरफ पीठकर लेना नहीं जीवन की तरफ पूरी तरह आंख खोलना है।
धर्म जीवन से भागना नहीं है, जीवन को पूरा आलिंगन मे लेने का नाम है।
धर्म है जीवन का पूरा साक्षात्कार।
यही शायद कारण है कि आजतक के धर्म में सिर्फ बूढ़े लोग ही उत्सुक रहे हैं।
मंदिरों में जाएं, चर्चों में, गिरजाघरों में, गुरुद्वारों में-और वहां वृद्ध
लोग दिखाई पड़ेंगे। वहां युवा दिखाई नहीं पड़ते, वहां छोटे बच्चे दिखाई नही
पड़ते। क्या कारण है?
एक ही कारण है। अब तक का हमारा धर्म सिक बूढ़े का धर्म है। उन लोगों का धर्म
है, जिनकी मौत करीब आ गई है, और अब जो मौत से भयभीत हो गए हैं, और मौत के बाद
चिंतन के संबंध मे आतुर हैं और जानना चाहते हैं कि मौत के बाद क्या है।
जो धर्म मौत पर आधारित है, वह धर्म पूरे जीवन को कैसे प्रभावित कर सकेगा? जो
धर्म मौत का चिंतन करता है, वह पृथ्वी को धार्मिक कैसे बना सकेगा?
वह नहीं बना सका। पाच हजार वर्षों की धार्मिक शिक्षा के बाद भी पृथ्वी रोज
अधार्मिक से अधार्मिक होती चली गई है। मंदिर हैं मस्जिदें हैं चर्च है पुजारी
हैं पुरोहित हैं संन्यासी हैं लेकिन पृथ्वी धार्मिक नहीं हो सकी है! और नहीं
हो सकेगी, क्योंकि धर्म का आधार ही गलत है। धर्म का आधार जीवन नही है, धर्म
का आधार मृत्यु है। धर्म का आधार खिलते हुए फूल नहीं हैं कब्रें हैं। जिस
धर्म का आधार मृत्यु है, वह धर्म अगर जीवन के प्राणों को स्पंदित न कर पाता
हो, तो आश्चर्य क्या है? जिम्मेदारी किसकी है?
मैं इन तीन दिनों मे जीवन के धर्म के संबंध में बात करना चाहता हूं और इसीलिए
पहला सूत्र समझ लेना जरूरी है। और इस सूत्र के संबंध में आज तक छिपाने की,
दबाने की, भूल जाने की सारी चेष्टा की गई है; लेकिन जानने और खोजने की नहीं!
और उस भूलने और विस्मृत कर देने की चेष्टा के दुष्परिणाम सारे जगत में
व्याप्त हो गए हैं।
मनुष्य के सामान्य जीवन में केंद्रीय तत्व क्या है-परमात्मा? आत्मा? सत्य?
नहीं। मनुष्य के प्राणों में, सामान्य मनुष्य के प्राणों में, जिसने कोई खोज
नहीं की, जिसने कोई यात्रा नहीं की, जिसने कोई साधना नहीं की, उसके प्राणों
की गहराई में क्या है-प्रार्थना? पूजा? नही, बिल्कुल नहीं।
अगर हम सामान्य मनुष्य के जीवन-ऊर्जा में खोज करें, उसकी जीवन शक्ति को हम
खोजने जाएं, तो न तो वहां परमात्मा दिखाई पड़ेगा, न पूजा न प्रार्थना, न
ध्यान। वहां और ही दिखाई पड़ेगा। और जो दिखाई पड़ेगा, उसे भुलाने की चेष्टा की
गई, उसे जानने और समझने की नहीं!
वहां क्या दिखाई पड़ेगा अगर हम आदमी के प्राणों को चीरे और फाड़े और वहां
खोजें? आदमी को छोड दे. अगर आदमी से इतर जगत की भी हम खोज-बीन करें, तो वहां
प्राणों की गहराइयों में क्या मिलेगा? अगर हम एक पौधे की जांच-बीन करे, तो
क्या मिलेगा? एक पौधा क्या कर रहा है।
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