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अमेरिकी यायावर

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उत्तर पूर्वी अमेरिका और कैनेडा की रोमांचक सड़क यात्रा की मनोहर कहानी


मार्ग में नाव एलिस द्वीप पर रुकी तो हम भी वहाँ उतर गये। 1880 के आस-पास से लेकर और बाद में 1900 और उसके बाद लगभग 50 वर्षों तक योरोप के देशों के लोग, महायुद्धों अथवा अन्य विपदाओं के बाद जब कहीं ठिकाना नहीं पाते थे तो अपने जीवन को सुधारने के लिए अमेरिका की ओर अपना भाग्य आजमाने चल पड़ते थे। ऐसे विस्थापित लोगों का स्वागत अमेरिका इसी एलिस आइलैंड पर करता था। यहीं उन्हें अपने नये जीवन के पहचान-पत्र और कुछ दिनों तक ठहरने और खाने आदि की व्यवस्था मिलती थी।
ऐसा संभवतः इसलिए भी होता होगा ताकि अमेरिका में आने जाने वाले लोगों पर निगरानी तो रहे ही रहे साथ ही उन्हें कुछ सहारा भी रहे जिससे वे अमेरिकी समाज पर बोझ एवं यहाँ पर पहले से रहने वाले लोगों के लिए समस्या न बनने पायें। एलिस आइलैण्ड पर कुछ समय गुजारने के बाद हम दोबारा फेरी की लाइन में लग गये। वहाँ भी एक फेरी आकर चले जाने के बाद, दूसरी फेरी में ही हम जा सके। जब तक हम लिबर्टी द्वीप पहुँचे, दिन का लगभग ढाई बज रहा था, अब तक हमारा सुबह का नाश्ता पूरी तरह पच चुका था और हमें तेज भूख लग रही थी। नाव से उतरते ही हमने खाने के स्टालों की ओर मुख किया। पेट भरने के लिए आलू की फ्राइस, पिज्जा का टुकड़ा और उसके साथ में कोक लिया। पेटपूजा के बाद हम लोग स्टेच्यू देखने के लिए निकले। सारी मूर्ति जो कि काँसे की बनी हुई थी अब हल्के हरे रंग में हो गई थी। पास से देखने पर ही मूर्ति की विशालता का अनुभव हुआ। मेरी एन ने गर्व से बताया कि अमेरिका को स्वतंत्रता के लिए उपहार स्वरूप यह मूर्ति फ्राँस ने 1789 में दी थी। मैं इस बात पर अचरज करने लगा कि उस समय कैसे इतनी विशाल मूर्ति फ्राँस से यहां तक लाई गई होगी और इसे यहाँ स्थापित किया गया होगा। ऐसी स्थितियों में ही हमें मानव जीवन की अद्भुत क्षमताओं और बौद्धिक योग्यता का पता चलता है। पेट में पहुँचा भोजन अब हमें शिथिल कर रहा था। इसलिए थोड़ी देर के लिए हम घास पर बैठ कर और वहीं से अटलांटिक में उठने वाली लहरें और आस-पास से निकलने वाली नावों और जहाजों को देखते रहे।  

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