चन्द्रकान्ता सन्तति - 6
A PHP Error was encounteredSeverity: Notice Message: Undefined index: author_hindi Filename: views/read_books.php Line Number: 21 |
निःशुल्क ई-पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 6 |
चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...
चौथा बयान
यह बात तो तै पा चुकी थी कि सब कामों के पहिले कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की शादी हो जानी चाहिए। अस्तु, इसी खयाल से जीतसिंह शादी के इन्तजाम में जी-जान से कोशिश कर रहे हैं और इस बात की खबर पाकर सभी प्रसन्न हो रहे हैं कि आज दोनों कुमार यहाँ आ जायेंगे और शीघ्र ही उनकी शादी भी हो जायेगी।
महाराज की आज्ञानुसार जीतसिंह मुलाकात करने के लिए रणधीरसिंह के पास गये और हर तरह की जरूरी बातचीत करने के बाद, इस बात का फैसला भी कर आये कि किशोरी के साथ ही-साथ कामिनी का भी कन्यादान रणधीरसिंह ही करेंगे। साथ ही इसके रणधीरसिंह कि यह बात भी जीतसिंह ने मंजूर कर ली कि इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के आने के पहिले किशोरी और कामिनी उनके (रणधीरसिंह के) खेमे में पहुँचा दी जायँगी। आखिर ऐसा ही हुआ, अर्थात किशोरी और कामिनी बड़ी हिफाजत के साथ रणधीरसिंह के खेमे में पहुँचा दी गयीं और बहुत-से फौजी-सिपाहियों के साथ पन्नालाल, रामनारायण, चुन्नीलाल और पण्डित बद्रीनाथ ऐयार खास उनकी हिफाजत के लिए छोड़ दिये गये।
आज कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के आने की उम्मीद में लोग खुशी-खुशी तरह-तरह के चर्चे कर रहे हैं। आज ही के दिन आने के लिए दोनों कुमारों ने चीठी लिखी थी, इसलिए ,आज उनके दादा-दादी, बाप-माँ दोस्तों और मुहब्बतियों को उम्मीद हो रही है कि उनकी तरसती हुई आँखें ठण्डी होंगी और जुदाई के सदमों से मुरझाया हुआ दिल हरा होगा। अहलकार और खैरखाह लोग जरूरी कामों को भी छोड़कर तिलिस्मी इमारत में इकट्ठे हो रहे हैं। इसी तरह हर एक अदना और आला दोनों कुमारों के आने की उम्मीद में खुश हो रहा है। गरीबों और मोहताजों की खुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं, उन्हें इस बात का पूरा विश्वास हो रहा है कि अब उनका दारिद्र्य दूर हो जायगा!
दो पहर दिन ढलने के बाद दोनों नकाबपोश भी आकर हाजिर हो गये हैं, केवल वे ही नहीं, बल्कि उनके साथ और भी कई नकाबपोश हैं, जिनके बारे में लोग तरह-तरह के चर्चे कर रहे हैं और साथ ही यह भी कह रहे हैं कि ‘जिस समय ये नकाबपोश लोग अपने चेहरों से नकाबें हटावेंग, उस समय जरूर कोई-न-कोई अनूठी घटना देखने-सुनने में आवेगी’।
नकाबपोशों की जुबानी यह तो मालूम हो ही चुका था कि दोनों कुमार उसी पत्थरवाले तिलिस्मी चबूतरे के अन्दर से प्रकट होंगे, जिस पर पत्थर का आदमी सोया हुआ है, इसलिए उस समय महाराज, राजा साहब और सलाहकार लोग उसी दालान में इकट्ठे हो रहे हैं और वह दालान भी सजसजाकर लोगों के बैठने लायक बना दिया गया है।
तीन पहर दिन बीत जाने पर तिलिस्मी चबूतरे के अन्दर से कुछ विचित्र ही ढंग के बाजे की आवाज आने लगी, जो कि भारी, मगर सुरीली थी और जिसके सबब से लोगों का ध्यान उसी तरफ खिंचा। महाराज सुरेन्द्रसिंह, बीरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, तेजसिंह, गोपालसिंह तथा दोनों नकाबपोश उठकर उस चबूतरे के पास गये। ये लोग बड़े गौर से उस चबूतरे की अवस्था पर ध्यान दिये रहे, क्योंकि इस बात का पूरा गुमान था कि पहिले कि तरह आज भी उस चबूतरे का अगला हिस्सा किवाड़ के पल्ले की तरह खुलकर जमीन के साथ लग जायगा। आखिर ऐसा ही हुआ अर्थात जिस तरह बलभद्रसिंह के आने और जाने के वक्त उस चबूतरे का अगला हिस्सा खुल गया था, उसी तरह इस समय भी वह किवाड़ के पल्ले की तरह धीरे-धीरे खुलकर जमीन के साथ लग गया और उसके अन्दर से कुँअर इन्द्रजीतसिंह तथा आनन्दसिंह बाहर निकलकर महाराज सुरेन्द्रसिंह के पैरों पर गिर पड़े। उन्होंने बड़े प्रेम से उठाकर छाती से लगालिया। इसके बाद दोनों कुमारों ने अपने पिता का चरण छुआ फिर जीतसिंह और तेजसिंह को प्रणाम करने के बाद राजा गोपालसिंह से मिले। इसके बाद बारी-बारी नकाबपोशों, ऐयारों, दोस्तों से भी मुलाकात की।
बन्दोबस्त पहिले से हो चुका था और इशारा भी बँधा हुआ था, अतएव जिस समय कुमार महाराज के चरणों पर गिरे हैं, उसी समय फाटक पर से बाजे की आवाज आने लगी, जिससे बाहरवालों को भी मालूम हो गया कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह आ गये।
इस समय खुशी का हाल लिखना हमारी ताकत से बाहर है, हाँ, इसका अन्दाज पाठकगण स्वयं कर सकते हैं कि जब दोनों कुमार मिलने के लिये महल के अन्दर गये तो औरतों में खुशी का दरिया कितने जोश के साथ उमड़ा होगा। महल के अन्दर दोनों कुमारों का इन्तजार बनिस्बत बाहर से ज्यादा होगा, यह सोचकर महाराज ने दोनों कुमारों को ज्यादे देर तक बाहर रोकना मुनासिब न समझकर शीघ्र ही महल में जाने की आज्ञा दी और दोनों कुमार भी खुशी-खुशी महल के अन्दर जा कर सभों से मिले। उनकी माँ और दादी की बढ़ती हुई खुशी का तो आज अन्दाज करना बहुत ही कठिन है, जिन्होंने लड़कों की जुदाई तथा रंज और नाउम्मीदी के साथ-ही-साथ तरह-तरह की खबरों से पहुँची हुई चोटों को अपने नाजुक कलेजों पर सम्हालकर और देवताओं की मिनन्तें मान-मानकर आज का दिन देखने के लिए अपनी नन्हीं-सी जान को बचा रक्खा था। अगर उन्हें समय और नीति पर विशेष ध्यान न रहता तो आज घण्टों तक अपने बच्चों को कलेजे से अलग करके बातचीत करने और महल के बाहर जाने का मौका न देतीं!
दोनों कुमार खुशी-खुशी सभों से मिले। एक-एक करके सभों से कुशल-मंगल पूछा, कमलिनी और लाडिली से भी आँखें चार हुईं, मगर किशोरी और कामिनी की सूरत दिखाई न पड़ी, जिनके बारे में सुन चुके थे कि महल के अन्दर पहुँच चुकी हैं। इस सबब से उनके दिल को जोकुछ तकलीफ थी, उसका अन्दाजा औरों को तो नहीं, मगर कुछ-कुछ कमलिनी और लाडिली को मिल गया और उन्होंने बात-ही-बात में इस भेद को खुलवाकर कुमारों की तसल्ली करवा दी।
थोड़ी देर तक दोनों भाई महल के अन्दर रहे और इस बीच में बाहर से कई दफे तलबी का सन्देशा पहुँचा। अस्तु, पुनः मिलने का वादा करके वहाँ से उठकर वे बाहर की तरफ रवाना हुए और उस आलीशान कमरे में पहुँचे, जिसमें कई खास-खास आदमियों और आपुसवालों के साथ महाराज सुरेन्द्रसिंह और बीरेन्द्रसिंह, उनका इन्तजार कर रहे थे। इस समय इस कमरे में यद्यपि राजा गोपालसिंह, नकाबपोश लोग, जीतसिंह, तेजसिंह, भूतनाथ और ऐयार लोग भी मौजूद थे, मगर कोई आदमी ऐसा न था, जिसके सामने भेद की बातें करने में किसी तरह का संकोच हो। दोनों कुमार इशारा पाकर अपने दादा साहब के बगल में बैठ गये और धीरे-धीरे बातचीत होने लगी।
सुरेन्द्र : (दोनों कुमारों की तरफ देखके) भैरोसिंह और तारासिंह तुम्हारे पास गये हुए थे, उन दोनों को कहाँ छोड़ा?
इन्द्रजीत : (मुस्कुराते हुए) जी, वे दोनों तो हम लोगों के आने के पहिले ही से हुजूर में हाजिर हैं!
सुरेन्द्र : (ताज्जुब से चारों तरफ देखके) कहाँ?
महाराज के साथ-ही-साथ और लोगों ने भी ताज्जुब के साथ एक-दूसरे पर निगाह डाली।
इन्द्रजीत : (दोनों सरदार नकाबपोशों की तरफ बताकर, जिनके साथ और भी कई नकाबपोश थे) रामसिंह और लक्ष्मणसिंह का काम आज वे ही दोनों पूरा कर रहे हैं।
इतना सुनते ही दोनों नकाबपोशों ने अपने-अपने चेहरे पर से नकाब हटा दी और उनके बदले में भैरोसिंह तथा तारासिंह दिखायी देने लगे। इस जादू के-से मामले को देखकर सभी की विचित्र अवस्था हो गयी और सब ताज्जुब में आकर एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। भूतनाथ और देवीसिंह की तो और ही अवस्था हो रही थी। बड़े जोरों के साथ उनका कलेजा उछलने लगा और वे कुछ बातें उन्हें याद आ गयीं, जो नकाबपोशों के मकान में जाकर देखी–सुनी थीं और वे दोनों ही ताज्जुब के साथ गौर करने लगे।
सुरेन्द्र : (दोनों कुमारों से) जब भैरो और तारासिंह तुम्हारे पास नहीं गये और यहाँ मौजूद थे, तब भी तो रामसिंह और लक्ष्मणसिंह कई दफे आये थे, उस समय इस विचित्र पर्दे (नकाब) के अन्दर कौन छिपा हुआ था?
इन्द्रजीत : (और सब नकाबपोशों की तरफ बताकर) कई दफे इन लोगों में से बारी-बारी से समयानुसार और कई दफे स्वयं हम दोनों भाई, इसी पोशाक और नकाब को पहिरकर हाजिर हुए थे।
कुँअर इन्द्रजीतसिंह की इस बात ने इन लोगों को और भी ताज्जुब में डाल दिया और सब कोई हैरानी के साथ उनकी तरफ देखने लगे। भूतनाथ और देवीसिंह की तो बात ही निराली थी, इनको तो विश्वास हो गया कि नकाबपोशों की टोह में जिस मकान के अन्दर हम लोग गये थे, उसके मालिक ये ही दोनों हैं, इन्हीं दोनों की मर्जी से हम लोग गिरफ्तार हुए थे, और इन्हीं दोनों के सामने पेश किये गये थे। देवीसिंह यद्यपि अपने दिल को बार-बार समझा-बुझाकर सम्हालते थे, मगर इस बात का खयाल हो ही जाता था कि अपने ही लोगों ने मेरी बेइज्जती की और मेरे ही लड़के ने इस काम में शरीक होकर मेरे साथ दगा की। मगर देखना चाहिए इस सब बातों का भेद, सबब और नतीजा क्या खुलता है।
भूतनाथ इस सोच में घड़ी-घड़ी सर झुका लेता था कि मेरे पुराने ऐब, जिन्हें मैं बड़ी कोशिश से छिपा रहा था अब छिपे न रहे, क्योंकि इन नकाबपोशों को मेरा रत्ती-रत्ती हाल मालूम है और दोनों कुमार इन सभों के मालिक और मुखिया हैं। अस्तु, इनसे कोई बात छिपी न रह गयी होगी। इसके अतिरिक्त मैं अपनी आँखों से देख चुका हूँ कि मुझसे बदला लेने की नीयत रखनेवाला मेरा दुश्मन उस विचित्र तस्वीर को लिये हुए इनके सामने हाजिर हुआ था और मेरा लड़का हरनामसिंह भी वहाँ मौजूद था। यद्यपि अब इस बात की आशा नहीं हो सकती कि यह दोनों कुमार मुझे जलील और बेआबरू करेंगे, मगर फिर भी शर्मिन्दगी मेरा पल्ला नहीं छोड़ती। इत्तिफाक की बात है कि जिस तरह मेरी स्त्री और लड़के ने इस मामले में शरीक होकर मुझे छकाया है, उसी तरह देवीसिंह की स्त्री, लड़के ने उनके दिल में भी चुटकी ली है।
देवीसिंह और भूतनाथ की तरह हमारे और ऐयारों के दिल में भी करीब-करीब इसी ढंग की बातें पैदा हो रही थीं और इन सब भेदों को जानने के लिए वे बनिस्बत पहिले के और ज्यादे बेचैन हो रहे थे, तथा यही हाल हमारे महाराज और गोपालसिंह वगैरह का भी था।
कुछ देर तक ताज्जुब के साथ सन्नाटा रहा और इसके बाद पुनः महाराज ने दोनों कुमारों की तरफ देखकर कहा–
सुरेन्द्र : ताज्जुब की बात है कि तुम दोनों भाई यहाँ आकर भी अपने को छिपाये रहे!!
इन्द्रजीत : (हाथ जोड़कर) मैं यहाँ हाजिर होकर पहिले ही अर्ज कर चुका था कि ‘हम लोगों का भेद जानने के लिए उद्योग न किया जाय, हम लोग मौका पाकर स्वयं अपने को प्रकट कर देंगे’। इसके अतिरिक्त तिलिस्मी नियमों के अनुसार, तब तक हम दोनों भाई प्रकट नहीं हो सकते थे, जब तक कि अपना काम पूरा करके इसी तिलिस्मी चबूतरे की राह से तिलिस्म के बाहर नहीं निकल आते। साथ ही इसके हम लोगों की यह भी इच्छा थी कि जब तक निश्चिन्त होकर खुले तौर पर यहाँ न आ जाँय, तब तक कैदियों के मुकदमे का फौसला न होने पावे, क्योंकि इस तिलिस्म के अन्दर जाने के बाद हम लोगों को बहुत से नये-नये भेद मालूम हुए हैं, जो (नकाबपोशों की तरफ इशारा करके) इन लोगों से सम्बन्ध रखते हैं और जिनका आपसे अर्ज करना बहुत जरूरी था।
सुरेन्द्र : (मुस्कुराते हुए और नकाबपोशों की तरफ देखके) अब तो इन लोगों को भी अपने चेहरे पर से नकाब उतार देना चाहिए, हम समझते हैं, इस समय इन लोगों का चेहरा साफ होगा।
कुँअर इन्द्रजीतसिंह का इशारा पाकर उन नकाबपोशों ने भी अपने-अपने चेहरे पर से नकाब हटा दी और खड़े होकर अदब के साथ महाराज को सलाम किया। ये नकाबपोश गिनती में पाँच थे और इन्हीं पाँचों में इस समय वे दोनों सूरतें भी दिखायी पड़ीं, जो यहाँ दरबार में पहिले दिखायी पड़ चुकी थीं या जिन्हें देखकर दारोगा और बेगम के छक्के छूट गये थे।
अब सभों का ध्यान उन पाँचों नकाबपोशों की तरफ खिंच गया, जिनका असल हाल जानने के लिए लोग पहिले ही से बेचैन हो रहे थे, क्योंकि इन्होंने कैदियों के मामले में कुछ विचित्र ढंग की कैफियत और उलझन पैदा कर दी थी। यद्यपि यह कह सकते हैं कि यहाँ इन पाँचों को पहिचानने वाला कोई न था, मगर भूतनाथ और राजा गोपालसिंह बड़े गौर से उनकी तरफ देखकर अपने हाफजे (स्मरण शक्ति) पर जोर दे रहे थे कि इन्हें हम पहिचान लेंगे।
सुरेन्द्र : (गोपालसिंह की तरफ देखके) केवल हमीं लोग नहीं, बल्कि हजारों आदमी इनका हाल जानने के लिए बेताब हो रहे हैं, अस्तु, ऐसा करना चाहिए कि एक साथ ही इनका हाल मालूम हो जाय।
गोपाल : मेरी भी यही राय है।
एक नकाबपोश : कैदियों के सामने ही हम लोगों का किस्सा सुना जाय तो ठीक है, क्योंकि ऐसा होने ही से महाराज का विचार पूरा होगा। इसके अतिरिक्त हम लोगों के किस्से में वही कैदी हामी भरेंगे और कई अधूरी बातों को पूरा करके महाराज का शक दूर करेंगे, जिन्हें हम लोग नहीं जानते और जिनके लिए महाराज उत्सुक होंगे।
इन्द्रजीत : (सुरेन्द्रसिंह से) बेशक, ऐसा ही है। यद्यपि हम दोनों भाई इन लोगों का किस्सा सुन चुके हैं, मगर कई भेदों का पता नहीं लगा, जिनके जाने बिना जी बेचैन हो रहा है और उनका मालूम होना कैदियों की इच्छा पर निर्भर है।
सुरेन्द्र : (कुछ सोचकर) खैर, ऐसा ही किया जायगा।
इसके बाद उन लोगों में दूसरे तरह की बातचीत होने लगी, जिसके लिखने की कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ती। इसके घण्टे-भर बाद दरबार बरखास्त हुआ और सब कोई अपने स्थान पर चले गये।
कुँअर इन्द्रजीतसिंह का दिल किशोरी को देखने के लिए बेताब हो रहा था। उन्हें विश्वास था कि यहाँ पहुँचकर उससे अच्छी तरह मुलाकात होगी और बहुत दिनों का अरमान-भरा दिल उसकी सोहबत से तस्कीन पाकर पुनः उनके कब्जे में आ जायगा, मगर ऐसा नहीं हुआ, अर्थात् कुमार के आने के पहिले ही वह अपने नाना के डेरे पर भेज दी गयी और उनका अरमान-भरा दिल उसी तरह तड़पता रह गया। यद्यपि उन्हें इस बात का भी विश्वास था कि अब उनकी शादी किशोरी के साथ बहुत जल्द होनेवाली है, मगर फिर भी उनका मनचला दिल जिसे उनके कब्जे के बाहर भये मुद्दत हो चुकी थी, इन चापलूसियों को कब मानता था! इसी तरह कमलिनी से भी मीठी-मीठी बातें करने के लिए वे कम बेताब न थे, मगर बड़ों का लेहाज उन्हें इस बात की इजाजत नहीं देता था कि उससे एकान्त में मुलाकात करें, यद्यपि ऐसा करते तो कोई हर्ज की बात न थी, मगर इसलिए कि उसके साथ भी शादी होने की उम्मीद थी, शर्म और लेहाज के फेर में पड़े हुए थे। परन्तु कमलिनी को इस बात का सोच-विचार कुछ भी न था। हम इसका सबब भी बयान नहीं कर सकते, हाँ, इतना कहेंगे कि जिस कमरे में कुँअर इन्द्रजीतसिंह का डेरा था, उसी के पीछे वाले कमरे में कमलिनी का डेरा था और उस कमरे से कुँअर इन्द्रजीतसिंह के कमरे में आने-जाने के लिए एक छोटा-सा दरवाजा भी था, जो इस समय भीतर की तरफ से अर्थात् कमलिनी की तरफ से बन्द था और कुमार को इस बात की कुछ भी खबर न थी।
रात पहर-भर से ज्यादे जा चुकी थी। कुँअर इन्द्रजीतसिंह अपने पलँग पर लेटे हुए किशोरी और कमलिनी के विषय में तरह-तरह की बातें सोच रहे थे। उनके पास कोई दूसरा आदमी न था और एक तरह पर सन्नाटा छाया हुआ था, एकाएक पीछेवाले कमरे का (जिसमें कमलिनी का डेरा था) दरवाजा खुला और अन्दर से एक लौंडी आती हुई दिखायी पड़ी।
कुमार ने चौंककर उसकी तरफ देखा और उसने हाथ जोड़कर अर्ज किया, ‘‘कमलिनीजी आपसे मिला चाहती हैं, आज्ञा हो तो स्वयं यहाँ आवें या आप ही वहाँ तक चलें।’’
कुमार : वे कहाँ हैं?
लौंडी : (पिछले कमरे की तरफ बताकर) इसी कमरे में तो उनका डेरा है।
कुमार : (ताज्जुब से) इसी कमरे में! मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी। अच्छा मैं स्वयं चलता हूँ, तू इस कमरे का दरवाजा बन्द कर दे।
आज्ञा पाते ही लौंडी ने कुमार के कमरे का दरवाजा बन्द कर दिया, जिसमें बाहर से कोई यकायक आ न जाय। इसके बाद इशारा पाकर लौंडी कमलिनी की तरफ रवाना हुई और कुमार उसके पीछे-पीछे चले। चौखट के अन्दर पैर रखते ही कुमार की निगाह कमलिनी पर पड़ी और वे भौंचक्के से होकर उसकी सूरत देखने लगे।
इस समय कमलिनी की सुन्दरता बनिस्बत पहिले के बहुत ही बढ़ी -चढ़ी देखने में आयी। पहिले, जिन दिनों कुमार ने कमलिनी की सूरत देखी थी, उन दिनो वह बिल्कुल उदासीन और मामूली ढंग पर रहा करती थी। मायारानी के झगड़े की बदौलत उसकी जान जोखिम में पड़ी हुई थी और इस कारण से उसके दिमाग को एक पल के लिए भी छुट्टी नहीं मिलती थी। इन्हीं सब कारणों से उसके शरीर और चेहरे की रौनक में भी बहुत बड़ा फर्क पड़ गया था, तिस पर भी वह कुमार की सच्ची निगाह में एक ही दिखायी देती थी। फिर आज उसकी खुशी और खूबसूरती का क्या कहना है, जबकि ईश्वर की कृपा से वह अपने तमाम दुश्मनों पर फतह पा चुकी है, तरद्दुदों के बोझ से हलकी हो चुकी है और मनमानी उम्मीदों के साथ अपने को बनाने-सँवारने का भी मुनासिब मौका मिल गया है! यही सबब है कि इस समय वह रानियों की-सी पोशाक और सजावट में दिखायी दे रही है।
कमलिनी की इस समय की खूबसूरती ने कुमार पर बहुत बड़ा असर किया और बनिस्बत पहिले के इस समय बहुत ज्यादे कुमार के दिल पर अपना अधिकार जमा लिया। कुमार को देखते ही कमलिनी ने हाथ-जोड़कर प्रणाम किया और कुमार के आगे बढ़कर बड़े प्रेम से उसका हाथ पकड़कर पूछा, ‘‘कहो अच्छी तो हो?’’
‘‘अब भी अच्छी न होऊँगी!’’ कहकर मुस्कुराती हुई कमलिनी ने कुमार को ले जाकर, एक ऊँची गद्दी पर बैठाया और आप भी उसके पास बैठकर यों बातचीत करने लगी।
कमलिनी : कहिए तिलिस्म के अन्दर आपको किसी तरह की तकलीफ तो नहीं हुई!
इन्द्रजीत : ईश्वर की कृपा से हम लोग कुशलपूर्वक यहाँ तक चले आये और अब तुम्हें धन्यवाद देते हैं, क्योंकि यह सब बातें तुम्हारी ही बदौलत नसीब हुई हैं । अगर तुम मदद न करती तो न मालूम हम लोगों की क्या दशा हुई होती! हमारे साथ तुमने जो कुछ उपकार किया है, उसका बदला चुकाना मेरी सामर्थ्य के बाहर है, सिवाय इसके मैं क्या कह सकता हूँ कि (अपनी छाती पर हाथ रखके) यह जान और शरीर तुम्हारा है।
कमलिनी : (मुस्कुराकर) अब कृपा कर इन सब बातों को तो रहने दीजिए, क्योंकि इस समय मैंने इसलिए आपको तकलीफ नहीं दी है कि अपनी बड़ाई सुनूँ या आप पर अपना अधिकार जमाऊँ।
इन्द्रजीत : अधिकार तो तुमने उसी दिन मुझ पर जमा लिया, जिस दिन ऐयार के हाथ से मेरी जान बचायी और मुझसे तलवार की लड़ाई लड़कर यह दिखा दिया कि मैं तुमसे ताकत में कम नहीं हूँ।
कमलिनी : (हँसकर) क्या खूब! मैं और आपका मुकाबला करूँ!! आपने मुझे भी क्या कोई पहलवान समझ लिया है?
इन्द्रजीत : आखिर बात क्या थी, जो उस दिन मैं तुमसे हार गया था।
कमलिनी : आपको उस बेहोशी की दवा ने कमजोर और खराब कर दिया था, जो एक अनाड़ी ऐयार की बनायी हुई थी। उस समय केवल आपको चैतन्य करने के लिए के लिए मैं लड़ पड़ी थी, नहीं तो कहाँ मैं और कहाँ आप!!
इन्द्रजीत : खैर, ऐसा ही होगा, मगर इसमें तो कोई शक नहीं कि तुमने मेरी जान बचायी, केवल उसी दफे नहीं, बल्कि उसके बाद भी कई दफे।
कमलिनी : भया भया, अब इन सब बातों को जाने दीजिए, मैं ऐसी बातें नहीं सुना चाहती। हाँ, यह बतलाइए कि तिलिस्म के अन्दर आपने क्या-क्या देखा और क्या-क्या किया?
इन्द्रजीत : मैं सब हाल तुमसे कहूँगा, बल्कि उन नकाबपोशों की कैफियत भी तुमसे बयान करूँगा, जो मुझे तिलिस्म के अन्दर मिले हैं और जिनका हाल अभी तक मैंने किसी से बयान नहीं किया, मगर तुम यह सब हाल अपनी जुबान से किसी से न कहना।
कमलिनी : बहुत खूब।
इसके बाद कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने अपना कुल हाल कमलिनी से बयान किया और कमलिनी ने भी अपना पिछला किस्सा और उसी के साथ भूतनाथ, नानक तथा तारा वगैरह का हाल बयान किया, जो कुमार को मालूम न था, इसके बाद पुनः उन दोनों में यों बातचीत होने लगी–
इन्द्रजीत : आज तुम्हारी जुबानी बहुत-सी ऐसी बातें मालूम हुई हैं, जिनके विषय में मैं कुछ भी नहीं जानता था।
कमलिनी : इसी तरह आपकी जुबानी उन नकाबपोशों का हाल सुनकर मेरी अजीब हालत हो रही है, क्या करूँ आपने मना कर दिया है कि किसी से इस बात का जिक्र न करना नहीं तो अपने सुयोग्य पति से उनके विषय में…
इन्द्रजीत : (चौंककर) हैं! क्या तुम्हारी शादी हो गयी?
कमलिनी : (कुमार के चेहरे का रंग उड़ा हुआ देख, मुस्कुराकर) मैं अपने उस तालाबवाले मकान में अर्ज कर चुकी थी कि मेरी शादी बहुत जल्द होने वाली है।
इन्द्रजीत : (लम्बी साँस लेकर) हाँ, मुझे याद है, मगर यह उम्मीद न थी कि वह इतनी जल्दी हो जायगी।
कमलिनी : तो क्या आप मुझे हमेशा कुँआरी ही देखना पसन्द करते थे?
इन्द्रजीत : नहीं, ऐसा तो नहीं है, मगर...
कमलिनी : मगर क्या? कहिए कहिए, रुके क्यों?
इन्द्रजीत : यही कि मुझसे पूछ तो लिया होता।
कमलिनी : क्या खूब! आपने क्या मुझसे पूछकर इन्द्रानी के साथ शादी की थी, जो मैं आपसे पूछ लेती!
इतना कहकर कमलिनी हँस पड़ी और कुमार ने शर्माकर सिर झुका लिया, मगर इस समय कुमार के चेहरे से मालूम होता था कि उन्हें हद दर्जे का रंज है और कलेजे में बेहिसाब तकलीफ हो रही है।
कुमार : (कमलिनी के पास से कुछ खिसककर) मुझे विश्वास था कि जन्म-भर तुमसे हँसने-बोलने का मौका मिलेगा।
कमलिनी : मेरे दिल में भी यही बात बैठी हुई थी और यही तै कर मैंने शादी की है कि आपसे कभी अलग होने की नौबत न आवे। मगर आप हट क्यों गये? आइए आइए, जिस जगह बैठे थे, बैठिए।
कुमार : नहीं नहीं, पराई स्त्री के साथ एकान्त में बैठना ही धर्म के विरुद्ध है न कि साथ सटकर, मगर आश्चर्य है कि तुम्हें इस बात का कुछ भी खयाल नहीं है! मुझे विश्वास था कि तुमसे कभी कोई काम धर्म के विरुद्ध न हो सकेगा।
कमलिनी : मुझमें आपने कौनसी बात धर्म-विरुद्ध पायी?
कुमार : यही कि तुम इस तरह एकान्त में बैठकर मुझसे बातें कर रही हो, इससे भी बढ़कर वह बात जो अभी तुमने अपनी जुबान से कबूल की है कि ‘तुमसे कभी अलग न होऊँगी’। क्या यह धर्म के विरुद्ध नहीं है? क्या तुम्हारा पति इस बात को जानकर भी तुम्हें पतिव्रता कहेगा?
कमलिनी : कहेगा और जरूर कहेगा, अगर न कहे तो इसमें उसकी भूल है। उसे निश्चय है और आप सच समझिए कि कमलिनी प्राण दे देना स्वीकार करेगी परन्तु धर्म-विरुद्ध पथ पर चलना कदापि नहीं, आपको मेरी नीयत पर ध्यान देना चाहिए, दिल्लगी के कामों पर नहीं, क्योंकि मैं ऐयारा भी हूँ। यदि मेरा पति इस समय यहाँ आ जाय तो आपको मालूम हो जाय कि मुझ पर वह जरा भी शक नहीं करता और मेरा इस तरह बैठना उसे कुछ भी नहीं गढ़ाता।
कुमार : (कुछ सोचकर) ताज्जुब है!!
कमलिनी : अभी क्या, आगे आपको और भी ताज्जुब होगा।
इतना कहकर कमलिनी ने कुमार की कलाई पकड़ ली और अपनी तरफ खींचकर कहा, ‘‘पहिले आप अपनी जगह पर आकर बैठ जाइए तो मुझसे बात कीजिए।’’
कुमार : नहीं नहीं, कमलिनी, तुम्हें ऐसा उचित नहीं है। दुनिया में धर्म से बढ़कर और कोई वस्तु नहीं है, अतएव तुम्हें भी धर्म पर ध्यान रखना चाहिए, अब तुम स्वतंत्र नहीं हो, पराये की स्त्री हो।
कमलिनी : यह सच है, परन्तु मैं आपसे पूछती हूँ कि यदि मेरी शादी आपके साथ होती तो क्या मैं आनन्दसिंह से हँसने-बोलने या दिल्लगी करने के लायक न रहती?
कुमार : बेशक, उस हालत में तुम आनन्द से हँस-बोल और दिल्लगी भी कर सकती थीं, क्योंकि यह बात हम लोगों में लौकिक व्यवहार के ढंग से प्रचलित है।
कमलिनी : बस तो मैं आपसे उसी तरह हँस-बोल सकती हूँ और ऐसा करने के लिए मेरे पति ने मुझे भी आज्ञा दे दी है, मैं उनका पत्र आपको दिखा सकती हूँ, इसलिए कि मेरा आपका नाता ही ऐसा है, एक नहीं बल्कि तीन-तीन नाते हैं।
इन्द्रजीत : सो कैसे?
कमलिनी : सुनिए, मैं कहती हूँ। एक तो मैं किशोरी को अपनी बहिन समझती हूँ अतएव आप मेरे बहनोई हुए, कहिए-हाँ।
कुमार : यह कोई बात नहीं है, क्योंकि अभी किशोरी की शादी मेरे साथ नहीं हुई है।
कमलिनी : खैर, जाने दीजिए, मैं दूसरा और तीसरा नाता बताती हूँ। जिनके साथ मेरी शादी हुई है, वे राजा गोपालसिंह के भाई हैं, इसके अतिरिक्त लक्ष्मीदेवी की मैं छोटी बहिन हूँ, अतएव आपकी साली भी हुई।
कुमार : (कुछ सोचकर) हाँ, इस बात से तो मैं कायल हुआ, मगर तुम्हारी नीयत में किसी तरह का फर्क न आना चाहिए।
कमलिनी : इससे आप बेफिक्र रहिए, मैं अपना धर्म किसी तरह नहीं बिगाड़ सकती और न दुनिया में कोई ऐसा पैदा हुआ है, जो मेरी नीयत बिगाड़ सके। आइए, अब अपने ठिकाने पर बैठ जाइए।
लाचार कुँअर इन्द्रजीतसिंह अपने ठिकाने पर जा बैठे और पुनः बात-चीत करने लगे, मगर उदास बहुत थे और वह बात उनके चेहरे से जाहिर होती थी।
यकायक कमलिनी ने मखरेपन के साथ हँस दिया, जिससे कुमार को खयाल हो गया कि इसने जोकुछ कहा सब झूठ और केवल दिल्लगी के लिए था, मगर साथ ही इसके उनके दिल का खुटका साफ नहीं हुआ।
कमलिनी : अच्छा आप यह बताइए कि तिलिस्म की कैफियत देखने के लिए राजा साहब तिलिस्म के अन्दर जायेंगे या नहीं?
कुमार : जरूर जायेंगे।
कमलिनी : कब?
कुमार : सो मैं ठीक नहीं कह सकता शायद कल या परसों ही जाँय, कहते थे कि ‘तिलिस्म के अन्दर चलकर देखने का इरादा है’। इसके जवाब में भाई गोपालसिंह ने कहा कि ‘जरूर और जल्द चलकर देखना चाहिए’।
कमलिनी : तो क्या हम लोगों को साथ ले जायेंगे?
कुमार : सो मैं कैसे कहूँ? तुम गोपाल भाई से कहो, वह इसका बन्दोबस्त जरूर कर देंगे, मुझे तो कुछ कहते शर्म मालूम होगी।
कमलिनी : सो तो ठीक है, अच्छा मैं कल उनसे कहूँगी।
कुमार : मगर तुम लोगों के साथ किशोरी भी अगर तिलिस्म के अन्दर जाकर वहाँ की कैफियत न देखेगी, तो मुझे इस बात का रंज जरूर होगा।
कमलिनी : बात तो वाजिब है, मगर वह इस मकान में तभी आवेंगी, जब उनकी शादी आपके साथ हो जायगी और इसलिए वह अपने नाना के डेरे में भेज दी गयी हैं। खैर, तो आप इस मामले को तब तक के लिए टाल दीजिए, जब तक कि आपकी शादी न हो जाय।
कुमार : मैं भी यही उचित समझता हूँ, अगर महाराज मान जायँ तो।
कमलिनी : या आप हम लोगों को फिर दूसरी दफे ले जाइयेगा।
कुमार : हाँ, यह भी हो सकता है। अबकी दफे का वहाँ जाना महाराज की इच्छा पर ही छोड़ देना चाहिए, वे जिसे चाहें ले जायँ।
कमलिनी : बेशक, ऐसा ही ठीक होगा। अब तिलिस्म के अन्दर जाने में आपत्ति काहे की है, जब और जै दफे आप चाहेंगे, हम लोगों को ले जायेंगे।
कुमार : नहीं, सो बात ठीक नहीं, बहुत सी जगहें ऐसी हैं, जहाँ सैकड़ों दफे जाने में भी कोई हर्ज नहीं है, मगर बहुतसी जगहें तिलिस्म टूट जाने पर भी नाजुक हालत में बनी हुई हैं और जहाँ बार-बार जाना कठिन है, तथापि मैं तुम लोगों को वहाँ की सैर जरूर कराऊँगा।
कमलिनी : मैं समझती हूँ कि मेरे उस तालाबवाले तिलिस्मी मकान के नीचे भी कोई तिलिस्म जरूर है। उस खून से लिखी हुई तिलिस्मी किताब का मजमून पूरी तरह से मेरी समझ में नहीं आता था, तथापि इस ढंग की बातों पर कुछ शक जरूर होता था।
कुमार : तुम्हारा ख्याल बहुत ठीक है, हम दोनों भाइयों को खून से लिखी उस तिलिस्मी किताब के पढ़ने से बहुत ज्यादे हाल मालूम हुआ है, इसके अतिरिक्त मुझे तुम्हारा वह स्थान पसन्द ज्यादे है और पहिले भी मैं (जब तुम्हारे पास वहाँ था) यह विचार कर चुका था कि ‘सब कामों से निश्चिन्त होकर कुछ दिनों के लिए जरूर यहाँ डेरा जमाऊँगा’ परन्तु अब मेरा वह विचार कुछ काम नहीं दे सकता।
कमलिनी : सो क्यों?
कुमार : इसलिए कि अगर तुम्हारी बातें ठीक हैं तो अब वह स्थान तुम्हारे पति के अधिकार में होगा।
कमलिनी : (मुस्कुराकर) तो क्या हर्ज है, मैं उनसे कहकर आपको दिला दूँगी।
कुमार : मैं किसी से भीख माँगना पसन्द नहीं करता और न उनसे लड़कर वह स्थान छीन लेना ही मुझे मंजूर होगा। कमलिनी, सच तो यों है कि तुमने मुझे धोखा दिया और बहुत बड़ा धोखा दिया! मुझे तुमसे यह उम्मीद न थी। (कुछ सोचकर) एक दफे तुम मुझसे फिर कह दो कि सचमुच तुम्हारी शादी हो गयी।
इसके जवाब में कमलिनी खिलखिलाकर हँस पड़ी और बोली, ‘‘हाँ, हो गयी।’’
कुमार : मेरे सिर पर हाथ रखकर कसम खाओ।
कमलिनी : (कुमार के पैरों पर हाथ रखके) आपसे मैं कसम खाकर कहती हूँ कि मेरी शादी हो गयी।
हम लिख नहीं सकते कि इस समय कुमार के दिल की कैसी बुरी हालत थी, रंज और अफसोस से उनका दिल बैठा जाता था और कमलिनी हँस-हँसकर चुटकियाँ लेती थी। बड़ी मुश्किल से कुमार थोड़ी देर तक और उसके पास बैठे रहे और फिर उठकर लम्बी साँसें लेते हुए अपने कमरे में चले गये। रात-भर उन्हें नींद न आयी।
To give your reviews on this book, Please Login