चन्द्रकान्ता सन्तति - 6
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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...
बारहवाँ बयान
इतना किस्सा कहकर दलीपशाह ने कुछ दम लिया और फिर इस तरह कहना शुरू किया–
गिरिजाकुमार ने अपना काम करके दारोगा का पीछा छोड़ नहीं दिया, बल्कि उसे यह जानने का शौक पैदा हुआ कि देखें अब दारोगा साहब क्या करते हैं, जमानिया की तरफ बिदा होते हैं या पुनः मनोरमा के घर जाते हैं, या अगर मनोरमा के घर जाते हैं तो देखना चाहिए कि किस ढंग की बातें होती हैं और कैसी रंगत निकलती है।
यद्यपि दारोगा का चित्त द्विविधा में पड़ा हुआ था, परन्तु उसे इस बात का कुछ-कुछ विश्वास जरूर हो गया था कि मेरे साथ ऐसा खोटा बर्ताव मनोरमा ही ने किया है, दूसरे किसी को क्या मालूम कि मुझसे उससे किस समय, क्या बातें हुईं। मगर साथ ही इसके वह इस बात को भी जरूर सोचता था कि मनोरमा ने ऐसा क्यों किया? मैं तो कभी उसकी बात से किसी तरह इनकार नहीं करता था। जोकुछ उसने कहा उस बात की इजाजत तुरन्त दे दी, अगर वह चीठी लिख देने के लिए कहती तो चीठी भी लिख देता, फिर उसने ऐसा क्यों किया?...इत्यादि।
खैर, जोकुछ हो दारोगा साहब अपने हाथ से रथ जोतकर सवार हुए और मनोरमा के पास न जाकर सीधे जमानिया की तरफ रवाना हो गये। यह देखकर गिरिजाकुमार ने उस समय उनका पीछा छोड़ दिया और मेरे पास चला आया। जोकुछ मामला हुआ था, खुलासा बयान करने के बाद दारोगा साहब की लिखी हुई चीठी दी और फिर मुझसे बिदा होकर जमानिया की तरफ चला गया।
मुझे यह जानकर एक हौल-सा पैदा हो गया कि बेचारे गोपालसिंह की जान मुफ्त में जाया चाहती है। मैं सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए, जिसमें गोपालसिंह की जान बचे। एक दिन और रात तो इसी सोच में पड़ा रह गया और अन्त में यह निश्चय किया कि इन्द्रदेव से मिलकर यह सब हाल कहना चाहिए। दूसरा दिन मुझे घर का इन्तजाम करने में लग गया, क्योंकि दारोगा की दुश्मनी के खयाल से मुझे घर की हिफाजत का पूरा-पूरा इन्तजाम करके ही तब बाहर जाना जरूरी था। अस्तु, मैंने अपनी स्त्री और बच्चे को गुप्त रीति से अपने ससुराल अर्थात् स्त्री के माँ-बाप के घर पहुँचा दिया और उन लोगों को जोकुछ समझाना था, सो भी समझा दिया, इसके बाद घर का इन्तजाम करके इन्द्रदेव की तरफ रवाना हुआ।
जब इन्द्रदेव के मकान पर पहुँचा तो देखा कि वे सफर की तैयारी कर रहे हैं, पूछने पर जवाब मिला कि गोपालसिंह बीमार हो गये हैं, उन्हें देखने के लिए जाते हैं। सुनने के साथ ही मेरा दिल धड़क उठा और मेरे मुँह से ये शब्द निकल पड़े–‘‘हाय अफसोस! कमबख्त दुश्मन लोग अपना काम कर गये!!’’
मेरी बात सुनकर इन्द्रदेव चौंक पड़े और उन्होंने पूछा, ‘‘आपने यह क्या कहा?’’ दो-चार खिदमतगार वहाँ मौजूद थे, उन्हें बिदा करके मैंने गिरिजाकुमार का सब हाल इन्द्रदेव से बयान किया और दारोगा साहब की लिखी हुई वह चीठी उनके हाथ पर रख दी। उसे देखकर और सब हाल सुनकर इन्द्रदेव बेचैन हो गये आधे घण्टे तक तो ऐसा मालूम होता था कि उन्हें तनोबदन की सुध नहीं है, इसके बाद उन्होंने अपने को सम्हाला और मुझसे कहा–‘‘बेशक दुश्मन लोग अपना काम कर गये, मगर तुमने भी बहुत बड़ी भूल की कि दो दिन की देर कर दी और आज मेरे पास खबर करने के लिए आये! अभी दो ही घड़ी बीती है कि मुझे उनके बीमार होने की खबर मिली है, ईश्वर ही कुशल करें!’’
इसके जवाब में चुप रह जाने के सिवाय मैं कुछ भी न बोल सका और अपनी भूल स्वीकार कर ली। कुछ और बातचीत होने के बाद इन्द्रदेव ने मुझसे कहा, ‘‘खैर, जोकुछ होना था, सो हो गया, अब तुम भी मेरे साथ जमानिया चलो, वहाँ पहुँचने तक ईश्वर ने कुशल रक्खी तो जिस तरह बन पड़ेगा उनकी जान बचावेंगे!!’’
अस्तु, हम दोनों आदमी तेज घोड़ों पर सवार होकर जमानिया की तरफ रवाना हो गये और साथियों को पीछे से आने की ताकीद कर गये।
जब हम लोग जमानिया के करीब पहुँचे और जमानिया सिर्फ दो कोस की दूरी पर रह गया तो सामने से कई देहाती आदमी रोते और चिल्लाते हुए आते दिखायी पड़े। हम लोगों ने बड़ाकर रोने का सबब पूछा तो उन्होंने हिचकियाँ लेकर कहा कि हमारे राजा गोपालसिंह हम लोगों को छोड़कर बैकुण्ठ चले गये।
सुनने के साथ हम लोगों का कलेजा धक हो गया। आगे बढ़ने की हिम्मत न पड़ी और सड़क के किनारे एक घने पेड़ के नीचे जाकर घोड़ों पर से उतर पड़े। दोनों घोड़ों को पेड़ के साथ बाँध दिया और जीनपोश बिछाकर बैठ गये, आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। घण्टे-भर तक हम दोनों में किसी तरह की बातचीत न हुई, क्योंकि चित्त बड़ा ही दुःखी हो गया था। उस समय दिन अनुमान तीन घण्टे के बाकी था, हम दोनों आदमी पेड़ के नीचे बैठे आँसू बहा रहे थे कि यकायक जमानिया से लौटता हुआ गिरिजाकुमार भी उसी जगह आ पहुँचा। उस समय उसकी सूरत बदली हुई थी, इसलिए हम लोगों ने तो नहीं पहिचाना, परन्तु वह हम लोगों को देखकर स्वयं पास चला आया और अपना गुप्त परिचय देकर बोला, ‘‘मैं गिरिजाकुमार हूँ।’’
इन्द्रदेव : (आँसू पोंछकर) अच्छे मौके पर तुम आ पहुँचे? यह बताओ कि क्या वास्तव में राजा गोपालसिंह मर गये?
गिरिजाकुमार : जी हाँ, उनकी चिता मेरे सामने लगायी गयी और देखते-ही-देखते उनकी लाश पंचतत्व में मिल गयी, परन्तु अभी तक मेरे दिल को विश्वास नहीं होता कि राजा साहब मर गये।
इन्द्रदेव : (चौंककर) सो क्या? यह कैसी बात है?
गिरिजाकुमार : जी हाँ, हर तरह का रंग-ढंग देखकर मेरा दिल कबूल नहीं करता कि वे मर गये।
मैं : क्या तुम्हारी तरह वहाँ और भी किसी को इस बात का शक है?
गिरिजाकुमार : नहीं, ऐसा तो नहीं मालूम होता, बल्कि मैं तो समझता हूँ कि खास दारोगा साहब को भी उनके मरने का विश्वास है, मगर क्या किया जाय मुझे विश्वास नहीं होता और दिल बार-बार यही कहता है कि राजा साहब मरे नहीं।
इन्द्रदेव : आखिर तुम क्या सोचते हो और इस बात का तुम्हारे पास क्या सबूत है? तुमने कौन-सी ऐसी बात देखी, जिससे तुम्हारे दिल को अभी तक उनके मरने का विश्वास नहीं होता?
गिरिजाकुमार : और बातों के अतिरिक्त दो बातें तो बहुत ही ज्यादे शक पैदा करती हैं। एक तो यह है कि कल दो घण्टे रात रहते मैंने हरनामसिंह और बिहारीसिंह को एक कंगले की लाश उठाये हुए चोर दरवाजे की राह से महल के अन्दर जाते हुए देखा, फिर बहुत टोह लेने पर भी उस लाश का कुछ पता न लगा और न वह लाश लौटाकर महल के बाहर ही निकाली गयी, तो क्या वह महल ही में हजम हो गयी? उसके बाद केवल राजा साहब की लाश बाहर निकाली।
इन्द्रदेव : जरूर यह शक करने की जगह है।
गिरिजाकुमार : इसके अतिरिक्त राजा गोपालसिंह की लाश को बाहर निकालने और जलाने में हद दर्जे की फुर्ती और जल्दबाजी की गयी, यहाँ तक कि रियासत के उमरा लोगों के इकट्ठा होने का इन्तजार नहीं किया गया। एक साधारण आदमी के लिए भी इतनी जल्दी नहीं की जाती, वे तो राजा ही ठहरे! हाँ, एक बात और भी सोचने लायक है चिता पर क्रिया, नियम के विरुद्ध लाश का मुँह खोले बिना ही कर दी गयी और इस बारे में बिहारीसिंह और हरनामसिंह तथा लौंडियों ने यह बहाना किया कि ‘राजा साहब की सूरत देख मायारानी बहुत बेहाल हो जायँगी, इसलिए मुर्दे का मुँह खोलने की कोई जरूरत नहीं! और लोगों ने इन बातों पर खयाल किया हो चाहे न किया हो, मगर मेरे दिल पर तो इन बातों ने बहुत बड़ा असर किया है और यही सबब है कि मुझे राजा साहब के मरने का विश्वास नहीं होता।
इन्द्रदेव : (कुछ सोचकर) शक तो तुम्हारा बहुत ठीक है, अच्छा यह बताओ कि तुम इस समय कहाँ जा रहे थे?
गिरिजाकुमार : (मेरी तरफ इशारा करके) गुरुजी के पास यही सब हाल कहने के लिए जा रहा था।
मैं : इस समय मनोरमा कहाँ है, सो बताओ?
गिरिजाकुमार : जमानिया में मायारानी के पास है।
मैं : तुम्हारे हाथ से छूटने के बाद दारोगा और मनोरमा में कैसी निपटी इसका कुछ हाल मालूम हुआ?
गिरिजाकुमार : जी हाँ, मालूम हुआ, उस बारे में बहुत बड़ी दिल्लगी हुई, जो मैं निश्चिन्ती के साथ बयान करूँगा।
इन्द्रदेव : अच्छा यह तो बताओ कि गोपालसिंह के बारे में तुम्हारी क्या राय है और अब हम लोगों को क्या करना चाहिए?
गिरिजाकुमार : इस बारे में मैं अदना और नादान आदमी आपको क्या राय दे सकता हूँ! हाँ, मुझे जोकुछ आज्ञा हो सो करने के लिए जरूर तैयार हूँ।
इतनी बातें हो ही रही थीं कि सामने जमानिया की तरफ से दारोगा और जैपाल घोड़ों पर सवार आते हुए दिखायी पड़े, जिन्हें देखते ही गिरिजाकुमार ने कहा, ‘‘देखिए ये शैतान कहीं जा रहे हैं, इसमें भी कोई भेद जरूर है, यदि आज्ञा हो तो मैं इनके पीछे जाऊँ।’’
दारोगा और जैपाल को देखकर हम दोनों पेड़ की तरफ घूम गये, जिसमें वे पहिचान न सकें। जब वे आगे निकल गये तब मैंने अपना घोड़ा गिरिजाकुमार को देकर कहा, ‘‘तुम जल्द सवार होके इन दोनों का पीछा करो।’’ और गिरिजाकुमार ने ऐसा ही किया।
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