चन्द्रकान्ता सन्तति - 6
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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...
सातवाँ बयान
किशोरी, कामिनी, कमलिनी और लाडिली ये चारों बड़ी मुहब्बत के साथ अपने दिन बिताने लगीं। इनकी मुहब्बत दिखौवा नहीं थी, बल्कि दिली सचाई के साथ थीं। चारों ही जमाने के ऊँच-नीच को अच्छी तरह समझ चुकी थीं और खूब जानती थीं कि दुनिया में हरएक के साथ दुःख और सुख का चर्खा लगा ही रहता है, खुशी तो मुश्किल से मिलती है, मगर रंज और दुःख के लिए किसी तरह का उद्योग नहीं करना पड़ता, यह आपसे-आप पहुँचता है और एक साथ दस को लपेट लेने पर भी जल्दी नहीं छोड़ता, इसलिए बुद्धिमान का काम यही है कि जहाँ तक हो सके खुशी का पल्ला न छोड़े और न कोई काम ऐसा करे जिसमें दिल को किसी तरह का रंज पहुँचे।
इन चारों औरतों का दिल उन नादान और कमिनी औरतों का-सा नहीं था, जो दूसरों को खुश देखते ही जल-भुनकर कोयला हो जाती हैं, और दिन-रात कुप्पे की तरह मुँह फुलाये आँखों से पाखण्ड का आँसू बहाया करती हैं, अथवा घर की औरतों के साथ मिल-जुलकर रहना अपनी बेइज्जती समझती हैं।
इन चारों का दिल आईने की तरह साफ था। नहीं नहीं, हम भूल गये, हमें दिल के साथ आईने की उपमा पसन्द नहीं। न मालूम लोगों ने इस उपमा को किसलिए पसन्द कर रक्खा है! उपमा में उसी वस्तु का व्यवहार करना चाहिए, जिसकी प्रकृति में उपमेय से किसी तरह का फर्क न पड़े, मगर आईने (शीशे) में यह बात पायी नहीं जाती, हरएक आईना बेऐब, साफ और बिना धब्बे के नहीं होता और वह हरएक की सूरत एक-सी भी नहीं दिखाता, बल्कि जिसकी जैसी सूरत होती है, उसके मुकाबिले में वैसा ही बन जाता है। इसलिए आईना उन लोगों के दिल को कहना उचित है, जो नीति कुशल हैं या जिन्होंने यह बात ठान ली है कि जो जैसा करे उसके साथ वैसा ही करना चाहिए, चाहे वह अपना हो या पराया, छोटा हो या बड़ा। मगर इन चारों में यह बात न थी, ये बड़ों की झिड़की को आशीर्वाद और छोटों की ऐठन को उनकी नादानी समझती थीं। जब कोई हमजोली या आपुसवाली क्रोध में भरी हुई अपना मुँह बिगाड़े इनके सामने आती तो यदि मौका होता तो ये हँसकर कह देतीं कि ‘वाह, ईश्वर ने अच्छी सूरत बनायी है’! या ‘बहिन, हमने तो तुम्हारा जोकुछ बिगाड़ा सो बिगाड़ा मगर तुम्हारी सूरत ने तुम्हारा क्या कसूर किया है, जो तुम उसे बिगाड़ रही हो’? बस इतने ही में उसका रंग बदल जाता। इन बातों को विचार कर हम इनके दिल का आईने के साथ मिलान करना पसन्द नहीं करते, बल्कि यह कहना मुनासिब समझते हैं कि ‘इनका दिल समुद्र की तरह गम्भीर था’।
इन चारों को इस बात का खयाल ही न था कि हम अमीर हैं, हाथ-पैर हिलाना या घर का कामकाज करना हमारे लिए पाप है। ये खुशी से घर का काम जो इनके लायक होता करतीं और खाने-पीने की चीजों पर विशेष ध्यान रखतीं। सबसे बड़ा खयाल इन्हें इस बात का रहता था कि इनके पति इनसे किसी तरह रंज न होने पावें और घर के किसी बड़े बुजुर्ग को इन्हें बेअदब कहने का मौका न मिले। महारानी चन्द्रकान्ता की तो बात ही दूसरी है, ये चपला और चम्पा को भी सास की तरह समझतीं और इज्जत करतीं थीं। घर की लौंडियाँ तक इनसे प्रसन्न रहतीं और जब किसी लौंडी से कोई कसूर हो जाता तो झिड़की और गालियों के बदले नसीहत के साथ समझाकर ये उसे कायल और शर्मिन्दा कर देतीं और उसके मुँह से कहला देतीं कि ‘बेशक मुझसे भूल हुई आइन्दे कभी ऐसा न होगा’! सबसे विचित्र बात तो यह थी कि इनके चेहरे पर रंज-क्रोध या उदासी कभी दिखायी देती ही न थी और जब कभी ऐसा होता तो किसी भारी घटना का अनुमान किया जाता था। हाँ, उस समय इनके दुःख और चिन्ता का कोई ठिकाना न रहता था, जब ये अपने पति को किसी कारण दुःखी देखतीं। ऐसी अवस्था में इनकी सच्ची भक्ति के कारण इनके पति को अपनी उदासी छिपानी पड़ती या इन्हें प्रसन्न करने और हँसाने के लिए और किसी तरह का उद्योग करना पड़ता। मतलब यह है कि इन्होंने घर-भर का दिल अपने हाथ में कर रक्खा था और ये घर की प्रसन्नता का कारण समझी जाती थीं।
भूतनाथ की स्त्री शान्ता का इन्हें बहुत बड़ा खयाल रहता और ये उसकी पिछली घटनाओं को याद करके उसकी पति-भक्ति की सराहना किया करतीं।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि इन्हें अपनी जिन्दगी में दुःखों के बड़े-बड़े समुद्र पार करने पड़े थे, परन्तु ईश्वर की कृपा से जब ये किनारे लगीं तब इन्हें कल्पवृक्ष की छाया मिली और किसी बात की परवाह न रही।
इस समय सन्ध्या होने में घण्टे-भर की देर है। सूर्य भगवान अस्ताचल की तरफ तेजी के साथ झुके चले जा रहे हैं, और उनकी लाल-लाल पिछली किरणों से बड़ी-बड़ी अटारियाँ तथा ऊँचे-ऊँचे वृक्षों के ऊपरी हिस्सों पर ठहरा हुआ सुनहरा रंग बहुत ही सोहावना मालूम पड़ता है। ऐसा जान पड़ता है, मानो प्रकृति ने प्रसन्न होकर अपना गौरव बढ़ाने के लिए अपनी सहचरियों और सहायकों को सुनहरा ताज पहिरा दिया है।
ऐसे समय में किशोरी, कामिनी, कमलिनी, लाडिली और कमला अटारी पर एक सजे हुए बँगले के अन्दर बैठी जालीदार खिड़कियों से उस जंगल की सोभा देख रही हैं, जो इस तिलिस्मी मकान से थोड़ी दूर पर हैं और साथ ही इसके मीठी बातों भी करती जाती हैं।
कमलिनी : (किशोरी से) बहिन, एक दिन वह था कि हमें अपनी इच्छा के विरुद्ध ऐसे, बल्कि इससे भी बढ़कर भयानक जंगलों में घूमना पड़ता था और उस समय यह सोचकर डर मालूम पड़ता था कि कोई शेर इधर-उधर से निकल कर हम पर हमला न करे, और एक आज का दिन है कि इस जंगल की सोभा भली मालूम पड़ती है, और इसमें घूमने को जी चाहता है।
किशोरी : ठीक है, जो काम लाचारी के साथ करना पड़ता है, वह चाहे अच्छा ही क्यों न हो, परन्तु चित्त को बुरा लगता है, फिर भयानक तथा कठिन कामों का तो कहना ही क्या! मुझे तो जंगल में शेर और भेड़ियों का इतना खयाल न होता था, जितना दुश्मनों का, मगर वह समय और ही था, जो ईश्वर न करे किसी दुश्मन को दिखे। उस समय हम लोगों की किश्मत बिगड़ी हुई थी और अपने साथी लोग भी दुश्मन बनकर सताने के लिए तैयार हो जाते थे। (कमला की तरफ देखकर) भला तुम्हीं बताओ कि उस चमेला छोकरी का मैंने क्या बिगाड़ा था, जिसने मुझे हर तरह से तबाह कर दिया? अगर वह मेरी मुहब्बत का हाल मेरे पिता से न कह देती तो मुझपर वैसी भयानक मुसीबत क्यों आ जाती?
कमला : बेशक ऐसा ही है, मगर उसने जैसी नमकहरामी की वैसी ही सजा पायी। मेरे हाथ के कोड़े १ वह जन्म-भर न भूलेगी! (१.देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति-1, पहिला भाग, ग्यारहवें बयान का अन्त।)
किशोरी : बेशक, वह बड़ी जिद्दी निकली, मगर तुमने भी यह बड़ी लायकी दिखायी कि अन्त में उसे छोड़ देने का हुक्म दे दिया। अब भी वह जहाँ जायगी, दुःख ही भोगेगी।
किशोरी : इसके अतिरिक्त उस जमाने में धनपति के भाई ने क्या मुझे कम तकलीफ दी थी, जब मैं नागर के यहाँ कैद थी। उस कमबख्त की तो सूरत देखने से मेरा खून खुश्क हो जाता था२। (२. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति-2, आठवाँ भाग, नौवाँ बयान।)
लाडिली : वही, जिसे भूतनाथ ने जहन्नुम में पहुँचा दिया! मगर नागर इस मामले को बिल्कुल ही छिपा गयी, मायारानी से उसने कुछ भी न कहा और इसी में उसका भला भी था।
किशोरी : (लाडिली से) बहिन तुम यों तो बड़ी नेक हो और तुम्हारा ध्यान भी धर्म-विषयक कामों में विशेष रहता है, मगर उन दिनों तुम्हें क्या हो गया था कि मायारानी के साथ बुरे कामों में अपना दिन बिताती थीं, और हम लोगों की जान लेने के लिए तैयार रहती थीं?
लाडिलीः (लज्जा और उदासी के साथ) फिर तुमने वही चर्चा छेड़ी! मैं कई दफे हाथ जोड़कर तुमसे कह चुकी हूँ कि उन बातों की याद दिलाकर मुझे शर्मिन्दा न करो, दुःख न दो, मेरे मुँह में बार-बार स्याही न लगाओ। उन दिनों मैं पराधीन थी, मेरा कोई सहायक नहीं था, मेरे लिए कोई और ठिकाना न था और उस दुष्टा का साथ छोड़कर मैं अपने को कहीं छिपा भी नहीं सकती थी और डरती थी कि वहाँ से निकल भागने पर कहीं मेरी इज्जत पर न आ बने! मगर बहिन, तुम जान-बूझकर उन बातों की याद दिला कर मुझे सताती हो, कहो बैठूँ या यहाँ से उठ जाऊँ?
किशोरी : अच्छा अच्छा जाने दो, माफ करो मुझसे भूल हो गयी, मगर मेरा मतलब वह न था, जो तुमने समझा है, मैं दो-चार बातें नानक के विषय में पूछा चाहती थी, जिनका पता अभी तक नहीं लगा और जो भेद की तरह हम लोगों...
लाडिली : (बात काटकर) वे बातें भी तो मेरे लिए वैसी ही दुःखदायी हैं।
किशोरी : नहीं नहीं, मैं यह न पूछूँगी कि तुमने नानक के साथ रामभोली बनकर क्या-क्या किया, बल्कि यह पूछूँगी कि उस टीन के डिब्बे में क्या था, जो नानक ने चुरा लाकर तुम्हें बजरे में दिया था? कूएँ में से हाथ कैसे निकाला था? नहर के किनारेवाले बँगले में पहुँचकर वह क्योंकर फँसा लिया गया? उस बँगले में वह तस्वीरें कैसी थीं? असली रामभोली कहाँ गयी और क्या हुई! रोहतासगढ़ तहखाने के अन्दर तुम्हारी तस्वीर किसने लटकायी और तुम्हें वहाँ का भेद कैसे मालूम हुआ था, इत्यादि बातें मैं कई दफे कई तरह से सुन चुकी हूँ, मगर उनका असल भेद अभी तक कुछ मालूम न हुआ १। (१. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति-1, चौथा भाग, नानक का बयान।)
लाडिली : हाँ, इन सब बातों का जवाब देने के लिए मैं तैयार हूँ। तुम जानती हो और अच्छी तरह सुन और समझ चुकी हो कि वह तिलिस्मी बाग तरह-तरह की अजायबातों से भरा हुआ है, विशेष नहीं तो भी वहाँ का बहुत कुछ हाल मायारानी और दारोगा को मालूम था। वहाँ अथवा उसकी सरहद में ले जाकर किसी को डराने-धमकाने या तकलीफ देने के लिए, कोई ताज्जुब का तमाशा दिखाना कौन बड़ी बात थी!
किशोरी : हाँ, सो तो ठीक ही है।
लाडिली : और फिर नानक जान-बूझकर काम निकालने के लिए ही तो गिरफ्तार किया गया था। इसके अतिरिक्त तुम यह भी सुन चुकी हो कि दारोगा के बँगले या अजायबघर से खास बाग तक नीचे-नीचे रास्ता बना हुआ है, ऐसी अवस्था में नानक के साथ वैसा बर्ताव करना कौन बड़ी बात ही थी!
किशोरी : बेशक, ऐसा ही है, अच्छा उस डिब्बे वगैरह का भेद तो बताओ?
लाडिली : उस गठरी में जो कलमदान था, वह तो हमारे विशेष काम का न था, मगर उस विशेष डिब्बे में वही इन्दिरावाला कलमदान था, जिसके लिए दारोगा साहब बेताब हो रहे थे और चाहते थे कि वह किसी तरह पुनः उनके कब्जे में आ जाय। असल में उसी कलमदान के लिए मुझे रामभोली बनना पड़ा था। दारोगा ने असली रामभोली को तो गिरफ्तार करवाके इस तरह मरवा डाला कि किसी को कानोंकान खबर भी न हुई, और मुझे रामभोली बनकर यह काम निकालने की आज्ञा दी। लाचार मैं रामभोली बनकर नानक से मिली और उसे अपने वश में करने के बाद इन्द्रदेवजी के मकान में से वह कलमदान तथा उसके साथ और कई तरह के कागज नानक की मार्फत चुरा मँगवाये। मुझे तो उस कलमदान की सूरत देखने से डर मालूम होता था, क्योंकि मैं जानती थी कि वह कलमदान हम लोगों के खून का प्यासा और दारोगा के बड़े-बड़े भेदों से भरा हुआ है। इसके अतिरिक्त उस पर इन्दिरा की बचपन की तस्वीर भी बनी हुई थी और सुन्दर अक्षरों में इन्दिरा का नाम लिखा हुआ था, जिसके विषय में मैं उन दिनों जानती थी कि वे माँ-बेटी बड़े बेदर्दी के साथ मारी गयीं। यही सब सबब था कि उस कलमदान की सूरत देखते ही मुझे तरह-तरह की बातें याद आ गयीं, मेरा कलेजा दहल गया और मैं डर के मारे काँपने लगी। खैर, जब मैं नानक को लिये हुए जमानिया की सरहद में पहुँची तो उसे धनपति के हवाले करके खास बाग में चली गयी, अपना दुपट्टा नहर में फेंकती गयी। दूसरी राह से उस तिलिस्मी कूएँ के नीचे पहुँचकर पानी का प्याला और बनावटी हाथ निकालने के बाद मायारानी से जा मिली और फिर बचा हुआ काम धनपति और दारोगा ने पूरा किया। दारोगावाले बँगले में जो तस्वीर रक्खी हुई थी, वह केवल नानक को धोखा देने के लिए थी, उसका और कोई मतलब न था और रोतासगढ़ के तहखाने में जो जो तस्वीर* आप लोगों ने देखी थी, वह वास्तव में दिग्विजयसिंह की बुआ ने मेरे सुबीते के लिए लटकायी थी और तहखाने की बहुत-सी बातें समझाकर बता दिया था कि ‘जहाँ तू अपनी तस्वीर देखियो, समझ लीजियो कि उसके फलानी तरफ, फलानी बात है’ इत्यादि। (* देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति-1, चौथा भाग, दसवाँ बयान।)
बस वह तस्वीर इतने ही काम के लिए लटकायी गयी थी। वह बुढ़िया बड़ी नेक थी और उस तहखाने का हाल बनिस्बत दिग्विजयसिंह के बहुत ज्यादे जानती थी, मैं पहिले भी महाराज के सामने बयान कर चुकी हूँ कि उसने मेरी मदद की थी। वह कई दफे मेरे डेरे पर आयी थी और तरह-तरह की बातें समझा गयी थी। मगर न तो दिग्विजयसिंह उसकी कदर करता था और न वही दिग्विजयसिंह को चाहती थी। इसके अतिरिक्त यह भी कह देना आवश्यक है कि मैं तो उस बुढ़िया की मदद से तहखाने के अन्दर चली गयी थी, मगर कुन्दन अर्थात् धनपति ने वहाँ जोकुछ किया वह मायारानी के दारोगा की बदौलत था। घर लौटने पर मुझे मालूम हुआ कि दारोगा वहाँ कई दफे छिपकर गया और कुन्दन से मिला था, मगर उसे मेरे बारे में कुछ खबर न थी, अगर खबर होती तो मेरे और कुन्दन में जुदाई न रहती। मगर मुझे इस बात का ताज्जुब जरूर है कि घर पहुँचने पर भी धनपति ने वहाँ की बहुत-सी बातें मुझसे छिपा रक्खीं।
किशोरी : अच्छा, यह तो बताओ कि रोहतासगढ़ में जो तस्वीर तुमने कुन्दन को दिखने के लिए मुझे दी थी, वह तुम्हें कहां से मिली थी और तुम्हें तथा कुंन्दन को उसका असली हाल क्योंकर मालूम हुआ था?
लाडिली : उन दिनों मैं यह जानने के लिए बेताब हो रही थी कि कुन्दन असल में कौन है। मुझे इस बात का भी शक हुआ था कि वह राजा साहब (बीरेन्द्रसिंह) की कोई ऐयारा होगी और यही शक मिटाने के लिए मैंने वह तस्वीर खुद बनाकर उसे दिखाने के लिए तुम्हें दी थी। असल में उस तस्वीर का भेद हम लोगों को मनोरमा की जुबानी मालूम हुआ था और मनोरमा ने इन्दिरा से उस समय सुना था, जब मनोरमा को माँ समझके वह उसके फेर में पड़ गयी थीं२.। (* देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति-1, तीसरा भाग, दसवाँ बयान और चन्द्रकान्ता सन्तति-5, उन्नीसवाँ भाग, छठवाँ बयान।)
किशोरी : ठीक है, मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि इन सब बखेड़ों की जड़ वही कमबख्त दारोगा है। यदि जमानिया के राज्य में दारोगा न होता तो इन सब बातों में से एक भी न सुनायी देती और न हम लोगों की दुःखमय कहानी का कोई अंश लोगों के कहने-सुनने के लिए पैदा होता। (कमलिनी) मगर बहिन, यह तो बताओ कि इस हरामी के पिल्ले (दारोगा) का कोई वारिस या रिश्तेदार भी दुनिया में है या नहीं?
कमलिनी : सिवाय एक के और कोई नहीं है! दुनिया का कायदा है कि जब आदमी भलाई या बुराई कुछ सीखता है तो पहिले अपने घर ही से आरम्भ करता है। माँ-बाप के अनुचित लाड़-प्यार और उनकी असावधानी से बुरी राह पर चलनेवाले घर ही में श्रीगणेश करते हैं और तब कुछ दिन के बाद दुनिया में मशहूर होने योग्य होते हैं। यही बात इस हरामखोर की भी थी, इसने पहिले अपने नाते रिश्तेदारों ही पर सफाई का हाथ फेरा और उन्हें जहन्नुम में मिलाकर समय के पहले घर का मालिक बन बैठा। साधु का भेष धरना इसने लड़कपन ही से सीखा है और विशेष करके इसके इसी भेष की बदौलत लोग धोखे में भी पड़े। हमारे राजा गोपालसिंह ने भी (मुस्कुराती हुई) इसे वसिष्ठ ऋषि ही समझकर अपने यहाँ रक्खा था। हाँ, इसका एक चचेरा भाई जरूर बच गया था, जो इसके हत्थे नहीं चढ़ा था, क्योंकि वह खुद भी परले सिरे का बदमाश था और इसकी करतूतों को खूब समझता था, जिससे लाचार होकर इसे उसकी खुशामद करनी ही पड़ी और उसे अपना साथी बनाना ही पड़ा।
किशोरी : क्या वह मर गया? उसका क्या नाम था?
कमलिनी : नहीं, वह मरा नहीं, मगर मरने के ही बराबर है, क्योंकि यह हमारे यहाँ कैद है। उसने अपना नाम शिखण्डी रख लिया था। तुम जानती ही हो कि जब मैं जमानिया के खास बाग के तहखाने और सुरंग की राह से दोनों कुमारों तथा बाकी कैदियों को लेकर बाहर निकल रही थी तो हाथी वाले दरवाजे पर उसने इनके (इन्द्रजीतसिंह के) ऊपर वार किया था१। (१. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति-2, आठवाँ भाग, दूसरा बयान।)
किसोरी : हाँ हाँ, तो क्या वह वही कमबख्त था?
कमलिनी : हाँ, वही था। उसे मैं अपना पक्षपाती समझती थी, मगर बेईमान ने मुझे धोखा दिया। ईश्वर की कृपा थी कि पहिले ही वार में वह उसी जगह गिरफ्तार हो गया नहीं तो शायद मुझे धोखे में पड़कर बहुत तकलीफ उठानी पड़ती और...
कमलिनी ने इतना कहा ही था कि उसका ध्यान सामने के जंगल की तरफ जा पड़ा। उसने देखा कि कुँअर आनन्दसिंह एक सब्ज घोड़े पर सवार सामने की तरफ से आ रहे हैं, साथ में केवल तारासिंह एक छोटे टट्टू पर सवार बातें करते आ रहे हैं और दूसरा कोई आदमी साथ नहीं है। साथ ही इसके कमलिनी को एक और अद्भुत दृश्य दिखायी दिया, जिससे वह यकायक चौंक पड़ी और इसलिए उसका तथा सभों का ध्यान भी उसी तरफ जा पड़ा।
उसने देखा कि आनन्दसिंह और तारासिंह जंगल में से निकलकर कुछ ही दूर मैदान में आये थे कि यकायक एक बार पुनः पीछे की तरफ घूमे और गौर के साथ कुछ देखने लगे। कुछ ही देर बाद और भी दस-बारह नकाबपोश आदमी हाथ में तीर कमान लिये दिखायी पड़े, जो जंगल से बाहर निकलते ही, इन दोनों पर फुर्ती के साथ तीर चलाने लगे। ये दोनों भी म्यान से तलवार निकालकर उन लोगों की तरफ झपटे और देखते-ही-देखते सब-के-सब लड़ते-भिड़ते पुनः जंगल में घुसकर देखनेवालों की नजरों से गायब हो गये। कमलिनी, किशोरी, और कामिनी वगैरह इस घटना को देखकर घबरा गयीं, सभों की इच्छानुसार कमला दौड़ी हुई गयी और एक लौंडी को इस मामले की खबर करने के लिए नीचे कुँअर इन्द्रजीतसिंह के पास भेजा।
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