चन्द्रकान्ता सन्तति - 6
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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...
सातवाँ बयान
इन्द्रदेव का यह स्थान बहुत बड़ा था। इस समय यहाँ जितने आदमी आये हुए हैं, उनमें से किसी को किसी तरह की भी तकलीफ नहीं हो सकती थी और इसके लिए प्रबन्ध भी बहुत अच्छा कर रक्खा गया था। औरतों के लिए एक खास कमरा मुकर्रर किया गया था, मगर रामदेई (नानक की माँ) की निगरानी की जाती थी और इस बात का भी बन्दोबस्त कर रक्खा गया था कि कोई किसी के साथ दुश्मनी का बर्ताव न कर सके। महाराज सुरेन्द्रसिंह, बीरेन्द्रसिंह और दोनों कुमारों के कमरे के आगे पहरे का पूरा-पूरा इन्तजाम था और हमारे ऐयार लोग भी बराबर चौकन्ने रहा करते थे।
यद्यपि भूतनाथ एकान्त में बैठा हुआ अपनी स्त्री से बातें कर रहा था, मगर यह सब बात इन्द्रदेव और देवीसिंह से छिपी हुई न थी, जो इस समय बगीचे में टहलते हुए बातें कर रहे थे। इन दोनों के देखते-ही-देखते नानक भूतनाथ की तरफ गया और लौट आया, इसके बाद भूतनाथ की स्त्री अपने डेरे पर चली गयी और फिर रामदेई अर्थात नानक की माँ भूतनाथ की तरफ जाती हुई दिखायी पड़ी। उस समय इन्द्रदेव ने देवीसिंह से कहा, ‘‘ देवीसिंहजी देखिए भूतनाथ अपनी पहिली स्त्री से बातचीत कर चुका है, अब उसने नानक की माँ को अपने पास बुलाया है। शान्ता की जुबानी उसकी खुटाई की हाल तो उसे जरूर मालूम हो ही गया होगा, इसलिए ताज्जुब नहीं कि वह गुस्से में आकर रामदेई के हाथ-पैर तोड़ डाले?’’
देवी : ऐसा हो तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है, मगर उस औरत ने भी तो सजा पाने के ही लायक काम किया है।
इन्द्रदेव : ठीक है, मगर इस समय उसे बचाना चाहिए।
देवी : तो जाइए वहाँ छिपकर तमाशा देखिए और मौका पड़ने पर उसकी सहायता कीजिए। (मुस्कुराकर) आप ही आग लगाते हैं और आप ही बुझाने दौड़ते हैं।
इन्द्रदेव : (हँसकर) आप तो दिल्लगी करते हैं।
देवी : दिल्लगी काहे की। क्या आपने उसे गिरफ्तार नहीं कराया है और अगर गिरफ्तार कराया है, तो क्या इनाम देने के लिए?
इन्द्रदेव : (मुस्कुराते हुए) तो आपकी राय है कि इसी समय उसकी मरम्मत की जाय!!
देवी : चाहिए तो ऐसा ही! जी में आवे तो तमाशा देखने चलिए। कहिए तो आपके साथ चलूँ।
इन्द्रदेव : नहीं नहीं, ऐसा न होना चाहिए। भूतनाथ आपका दोस्त है और अब तो नातेदार भी। आप ऐसे मौके पर उसके सामने जा सकते हैं। जाइए और उसे बचाइए, मेरा जाना मुनासिब न होगा।
देवी : (हँसकर) तो आप चाहते हैं कि मैं भी भूतनाथ के हाथ से दो एक घूँसे खा लूँ? अच्छा साहब जाता हूँ, आपका हुक्म कैसे टालूँ, आज आपने बड़ी-बड़ी बातें मुझे सुनायी हैं, इसलिए आपका अहसान भी तो मानना होगा।
इतना कहते हुए देवीसिंह पेड़ों की आड़ देते हुए भूतनाथ की तरफ रवाना हुए और जब ऐसी जगह पहुँचे जहाँ से उन दोनों की बातें बखूबी सुन सकते थे, तब एक चट्टान पर बैठ गये और सुनने लगे कि वे दोनों क्या बातें करते हैं!
भूतनाथ : खैर, अच्छा ही हुआ जो तुम यहाँ तक आ गयीं, मुझसे मुलाकात भी हो गयी और मैं ‘लामाघाटी’ तक जाने से बच गया। मगर यह तो बताओ कि अपनी सहेली ‘नन्हों’ को यहाँ तक क्यों न लेती आयी, मैं भी जरा उससे मिल के अपना कलेजा ठण्डा कर लेता?
रामदेई : नन्हों बेचारी पर क्यों आक्षेप करते हो, उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? और वह यहाँ आती ही काहे को? क्या तुम्हारी लौंडी थी! व्यर्थ ही एक आदमी को बदनाम और दिक करने के लिए लोग टूटे पड़ते हैं!
भूतनाथ : (उभड़ते हुए गुस्से को दबाकर) छी छी, वह बेचारी हमारी लौंडी क्यों होने लगी, लौंडी तो तुम उसकी थीं जो झख मारने के लिए उसके घर गयी थीं।
रामदेई : (आँचल से आँसू पोंछती हुई) अगर मैं उसके यहाँ गयी तो क्या पाप किया। मैं पहिले ही नानक से कहती थी कि जाकर पूँछ आओ तब मैं नन्हों के यहाँ जाऊँ नहीं तो कहीं व्यर्थ ही बात का बतंगड़ न बन जाय, मगर लड़के ने न माना और आखिर वही नतीजा निकला। बदमाशों ने वहाँ पहुँचकर उसे भी बेइज्जत किया और मुझे भी बेइज्जत कर गये यहाँ तक घसीट लाये। उसके सिर झूठे ही कलंक थोप दिया कि वह बेगम की सहेली है।
इतना कहकर रामदेई नखरे के साथ रोने लगी।
भूतनाथ : तुमने पहिले भी कभी उसका जिक्र मुझसे किया था कि वह तुम्हारी नातेदार है या मुझसे पूँछकर कभी उसके यहाँ गयी थीं।
रामदेई : एक दफे गयी सो तो यह गति हुई और जाती तो न मालूम क्या होता!
भूतनाथ : जो लोग तुम्हें यहाँ ले आये हैं, वे बदमाश थे?
रामदेई : बदमाश तो कहे ही जायेंगे! जो व्यर्थ दूसरों को दुःख दें, वे ही बदमाश होते हैं और क्या बदमाशों के सिर पर सींग होती है! तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़ गया है कि जो लोग तुम्हारी बेइज्जती किये ही जाते हैं, उन्हीं के लिए तुम जान दे रहे हो। न मालूम तुम्हें ऐसी क्या गरज पड़ी हुई है।
भूतनाथ : ठीक है, यही राय लेने के लिए तो मैंने तुम्हें यहाँ एकान्त में बुलाया है। अगर तुम्हारी राय होगी तो मैं देखते-देखते इन लोगों से बदला ले लूँगा, क्या मैं कमजोर या दब्बू हूँ!
रामदेई : जरूर बदला लेना चाहिए, अगर तुम ऐसा नहीं करोगे तो मैं समझूँगी कि तुमसे बढ़कर कमीना कोई नहीं है।
इतना सुनकर भूतनाथ को बेहिसाब गुस्सा चढ़ आया, मगर फिर भी उसने अपने क्रोध को दबाया और कहा–
‘‘अच्छा तो अब मैं ऐसा ही करूँगा, मगर यह तो बताओ कि शेर की लड़की ‘गौहर’ से तुमसे क्या नाता है?
रामदेई : उस मुसलमानिन से मुझसे क्या नाता होगा! मैंने तो उसकी सूरत भी नहीं देखी।
भूतनाथ : लोग तो कहते हैं कि तुम उसके यहाँ भी आती-जाती हो और मेरे बहुत से भेद तुमने उसे बता दिये हैं।
रामदेई : सब झूठ है। ये लोग बात लगानेवाले जैसे ही धूर्त और पाजी हैं, वैसे ही तुम सीधे और बेवकूफ हो।
अब भूतनाथ अपने गुस्से को बर्दास्त न कर सका और उसने एक चपत रामदेई के गाल पर ऐसी जमायी कि वह तिलमिलाकर जमीन पर लेट गयी, मगर उसे चिल्लाने का साहस न हुआ। कुछ देर बाद वह उठ बैठी और भूतनाथ का मुँह देखने लगी।
भूतनाथ : कमीनी, हरामजादी! जिनके लिए मैं जान तक देने के लिए तैयार हूँ, उन्हीं लोगों की शान में तैं ऐसी बातें कर रही है, जो एक पराये को भी कहना उचित नहीं है और जिसे मैं एक सायत के लिए भी बर्दास्त नहीं कर सकता! ले समझ ले और कान खोलकर सुन ले कि तेरे हाथ की लिखी वह चीठी मुझे मिल गयी है, जो तूने चाँदवाले दिन गौहर के यहाँ मिलने के लिए नन्हों के पास भेजी थी और जिसमें तूने अपना परिचय ‘करौंदा की छैयें छैयें’ दिया था। बस इसी से समझ ले कि अब तेरी सब कलई खुल गयी और तेरी बेईमानी लोगों को मालूम हो गयी। अब तेरा नखरे के साथ रोना और बातें बनाकर अपने को बेकसूर साबित करना व्यर्थ है। अब तेरी मुहब्बत एक रत्ती बराबर मेरे दिल में नहीं रह गयी और तुझे उस जहरीली नागिन से भी हजार दर्जे बढ़के समझने लग गया, जिसे खूबसूरत होने पर भी कोई हाथ से छूने तक का साहस नहीं कर सकता। मुझे आज इस बात का सख्त रंज है कि मैंने तुझे इतने दिन तक प्यार किया और इस बात की तरफ कुछ भी ध्यान न दिया कि उस मुहब्बत, ऐयाशी और शौक का नतीजा एक-न-एक दिन जरूर भयानक होता है, जिसे छिपाने की जरूरत समझी जाती है और जिसका जाहिर होना शर्मिन्दगी और बेहयाई का सबब समझा जाता है। मुझे इस बात का अफसोस है कि तुझसे अनुचित सम्बन्ध रखकर मैंने उस उचित सम्बन्धवाली का साथ छोड़ दिया, जिसकी जूतियों की बराबरी भी तू नहीं कर सकती या यों कहना चाहिए कि तेरे शरीर का चमड़ा, जिसकी जूतियों को भी देखना पसन्द नहीं कर सकता। मुझे इस बात का दुःख है कि नागर या मायारानी के कब्जे से तुझे छुड़ाने के लिए मैंने तरह-तरह के ढोंग रचे और इसका दम-भर के लिए भी विचार न किया कि मैं उस क्षय रोग को अपनी छाती से लगाने का प्रबन्ध कर रहा हूँ, जिसे पहिली ही अवस्था में ईश्वर की कृपा ने मुझसे अलग कर दिया था। ये बातें तू अपने ही लिए न समझ, बल्कि अपने जाये नानक के लिए भी समझकर मेरे सामने से उठ जा और उससे भी कह दे कि आज से मेरे सामने आकर मेरी जूतियों का शिकार न बने। यदि मेरे पुराने विचार न बदल गये होते और उन दिनों की तरह आज भी मैं पाप को पाप न समझता होता तो आज तेरी खाल खिंचवाकर नमक और मिर्च का उबटन लगवा देता, मगर खैर, अब इतना ही कहता हूँ कि मेरे सामने से उठ जा और फिर कभी अपना काला मुँह मुझे मत दिखाइयो। जिस कुल को तू पहिले ही कलंक लगा चुकी है, अब भी उसी कुल की बदनामी का सबब बनकर दुनिया की हवा खा।
रामदेई के पास भूतनाथ की बातों का जवाब न था। वह अपनी पुरानी चीठी का सच्चा परिचय सुनकर बदहवास हो गयी और समझ गयी कि उसके अच्छे नसीब के पहिए की धुरी टूट गयी, जिसे वह किसी तरह भी बना नहीं सकती। वह अपने धड़कते हुए कलेजे और काँपते हुए बदन के साथ भूतनाथ की बातें सुनती रही और अन्त में उठने का साहस करने पर भी अपनी जगह से न हिल सकी, मगर भूतनाथ वहाँ से उठ खड़ा हुआ और बँगले की तरफ चल पड़ा। थोड़ी ही दूर गया होगा कि देवीसिंह से मुलाकात हुई, जिसने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘‘भूतनाथ, शाबाश! शाबाश!! जो कुछ नेक और बहादुर आदमियों को करना चाहिए, इस समय तुमने वही किया। मैं छिपकर तुम्हारी सब बातें सुन रहा था। अगर तुम कोई बेजा काम करना चाहते तो मैं तुम्हें जरूर रोकता, मगर ऐसा करने का मौका न हुआ, जिससे मैं बहुत ही खुश हूँ। अच्छा जाओ अपने कमरे में आराम करो, मैं इन्द्रदेव के पास जाता हूँ।’’
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