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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

आठवाँ बयान


कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह तिलिस्म तोड़ने की धुन में लगे हुए थे। मगर उनके दिल से किशोरी और कमलिनी तथा कामिनी और लाडिली की मुहब्बत एक सायत के लिए भी बाहर नहीं होती थी। जब दोनों कुमारों ने बाग के उत्तर तरफ वाले मकान की खिड़की (छोटे दरवाजे) में से झाकते हुए राजा गोपालसिंह की जुबानी किशोरी, कमलिनी, कामिनी और लाडिली का सब हाल सुना और यह भी सुना कि अब वे सब बहुत जल्दी जमानिया में लायी जायेंगी, तब बहुत खुश हुए और उन लोगों से जल्द मिलने के लिए तिलिस्म तोड़ने की फिक्र उन्हें बहुत ज्यादा हो गयी। तब गोपालसिंह इन्दिरा और इन्द्रदेव बातचीत करके चले गये, तब बड़े कुमार ने सर्यू से कहा, "सर्यू, हम लोग अब बहुत जल्द तुम्हें अपने साथ लिये हुए इस तिलिस्म के बाहर होंगे। हम लोगों को तिलिस्म तोड़ने और दौलत पाने का उतना खयाल नहीं है, जितना तिलिस्म से बाहर निकलने का ध्यान है। इस तिलिस्म से हम लोगों को एक किताब मिलनेवाली है, जिसके लिए हम लोग जरुर उद्योग करेंगे, क्योंकि उस किताब की बदौलत हम लोग चुनारगढ़ का वह भारी तिलिस्म तोड़ सकेंगे, जिस हमारे पिता ने हमारे लिए छोड़ रक्खा है, और जिसका तोड़ना, हम दोनों भाइयों को आवश्यक कहा जाता है।"

सर्यू : मेरे दिल ने उम्मीदों से भरकर उसी समय विश्वास दिया कि अब तेरा दुर्देव सदैव के लिए तेरा पीछा छोड़ देगा, जब आप दोनों भाइयों के दर्शन हुए तथा आप लोगों का परिचय मिला। अब मैं अपना दुःख भूलकर बिल्कुल बेफिक्र हो रही हूँ और सिवाय आपकी आज्ञा मानने के कोई दूसरा खयाल मेरे दिल में नहीं है।

इन्द्रजीत : अच्छा तो अब तुम हम लोगों के लिए फल तोड़ो और तब तक हम लोग इस बाग में घूमकर कोई दरवाजा ढूँढ़ते हैं। ताज्जुब नहीं कि हम लोगों को इस बाग में कई दिन रहना पड़े।

सर्यू : जो आज्ञा।

इतना कहकर सर्यू फल तोड़ने और नहर के किनारे छाया देखकर कुछ जमीन साफ करने के खयाल में पड़ी और दोनों कुमार बाग में इधर-उधर घूम दरवाजा खोलने का उद्योग करने लगे।

पहर भर में ज्यादे देर तक घूमने और पता लगाने के बाद जब कुमार उत्तर तरफवाली दीवार के नीचे पहुँचे, जिधर मकान था, तब उन्हें पूरब तरफ के कोने की तरफ हटकर जमीन में एक हौज का निशान मालूम हुआ। उसी के पास दीवार में एक से दरवाजे का चिह्न भी दिखा, जिससे निश्चय हो गया कि उन लोगों का काम इन्ही दोनों निशानों से चलेगा। इतना वे सोचकर दोनों भाई वहाँ से चले आये, जहाँ सर्यू फल तोड़ और जमीन साफ करके बैठी हुई दोनों भाइयों के आने का इन्तजार कर रही थी। सर्यू अच्छे-अच्छे और पके हुए फल दोनों भाइयों के लिए तोड़े और जल से धोकर साफ पत्थर की चट्टान पर रखे थे। दोनों भाइयों ने उसे खाकर नहर का जल पिया और इसके बाद सर्यू को भी खाने के लिए कहके उसी ठिकाने चले गये, जहाँ हौज और दरवाजे का निशान पाया था। हौज में मिट्टी भरी हुई थी, जिसे दोनों भाइयोंने खंजर से खोद-खोदके निकालना शुरू किया और थोड़ी देर मे सर्यू भी उनके पास पहुँचकर, मिट्टी फेने में मदद करने लगी। सन्ध्या हो जाने पर इन सभों ने उस काम से हाथ खीचा और नहर के किनारे जाकर आराम किया। उस हौज की सफाई में इन लोगों को चार दिन लग गये, पाँचवें दिन दोपहर होते-होते वह हौज साफ हुआ और मालूम होने लगा कि यह वास्तव में एक फौवारा है। वह हौज संगमरमर का बना हुआ था और फौवारा सोने का। अब दोनों कुमारों ने खंजर के सहारे उस हौज की जमीन का पत्थर उखाड़ना शुरू किया और जब दो तीन दिन में सब पत्थर उखड़ गये, तब वह फौवारा भी सहज ही में निकल गया, और उसके नीचे एक दरवाजा का निशान दिखायी दिया। दरवाजे में पल्ला हटाने के लिए कड़ी लगी हुई थी और जिस जगह ताला लगा हुआ था, उसके मुँह पर लोहे की एक पतली चादर रक्खी हुई थी, जिसे कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने हटा दिया और उसी तिलिस्मी ताली से ताला खोला, जो पुतली के हाथ में से उन्हें मिली थी।

दरवाजा हटाने पर नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ दिखायी पड़ी। आनन्दसिंह तिलिस्मी खंजर हाथ में लेकर रोशनी करते हुए नीचे उतरे और उनके पीछे-पीछे इन्द्रजीतसिंह और सर्यू भी गये। नीचे पहुँचकर उन्होंने अपने को छोटी सी कोठरी में पाया, जिसके बीचो बीच में हौज बना हुआ था। उस हौज के चारो तरफवाली दीवार कई तरह की धातुओं से बनी हुई थी और हौज के बीच में किसी तरह सेकिसी तरह की राख भरी हुई थी। कोठरी की चारों तरफ की दीवारें में से ताँबे की बहुत-सी तारें आयी थीं। और वे सब एक साथ होकर हौज के बीच में चली गयी थीं। इन्द्रजीतसिंह ने सर्यू से कहा, "जय ये सब तारें काट दी जायेंगी, तब बाग के चारों तरफ की दीवार करामात से खाली हो जायगी, अर्थात् उसमें यह गुण न रहेगा कि उसके छूने से किसी को किसी तरह हम लोग उस दीवार वाले दरवाजे को साफ करके रास्ता निकालेंगे, और इस बाग से निकलकर किसी दूसरी जगह जायेंगे। अस्तु, तुम यहाँ से निकलकर ऊपर चली जाओ, तब हम लोग तार काटने में हाथ लगावें।"

इन्द्रजीतसिंह की आज्ञानुसार सर्यू कोठरी से बाहर निकल गयी और दोनों कुमारों ने तिलिस्मी खंजर से शीघ्र ही उन तारों को काट डाला और बाहर निकल आये। दरवाजा पहिले की तरह बन्द करदिया और ऊपर से मिट्टी डाल दी, फिर नहर के किनारे आकर तीनों आदमी बैठ गये और बातचीत करने लगे।

सर्यू : अब दीवार छूने में किसी तरह की तकलीफ नहीं हो सकती?

इन्द्रजीत : अभी नहीं, धीरे-धीरे दो पहर में उसका गुण जायगा और तब तक हम लोगों को व्यर्थ बैठे रहना पड़ेगा।

आनन्द : तब तक (सर्यू की तरफ बताकर) इनका बचा हुआ किस्सा सुन लिया जाता तो अच्छा होता।

इन्द्रजीत : नही, अब इतना किस्सा पिता जी के सामने सुनेंगे।

सर्यू : अब तो मैं आपके साथ ही रहूँगी, इसलिए तिलिस्म तोड़ते समय जो कुछ कार्रवाई आप करेंगे या जो तमाशा दिखायी देगा, देखूँगी, मगर यदि आज के पहिले का हाल जबसे आप इस तिलिस्म में आये हैं, सुना देते तो बड़ी कृपा होती। मैं समझती कि आपकी बदौलत इस तिलिस्म का पूरा-पूरा तमाशा देख लिया।

इन्द्रजीत : अच्छी बात है, (आनन्दसिंह से) तुम इस तिलिस्म का हाल इन्हें सुना दो।

थोड़ी देर आराम करने तथा जरूरी कामों से छुट्टी पाने के बाद भाई की आज्ञानुसार आनन्दसिंह ने अपना और तिलिस्म का हाल तथा जिस ढंग से इन्दिरा की मुलाकात हुई थी, वह सब सर्यू को कह सुनाया, इसके साथ-ही-साथ तिलिस्म के बाहर आजकल का जैसा जमाना हो रहा था, वह सब भी बयान किया। बह सब हाल कहते सुनते रात आधी से कुछ ज्यादा चली गयी, और उस समय इन लोगों ने एक विचित्र तमाशा देखा।

इस बाग के उत्तर तरफ जो सटा हुआ मकान था और जिसमें से राजा गोपालसिंह और कुमार में बातचीत हुई थी, हम पहिले लिख आये हैं कि उसमें आगे की तरफ सात खिड़कियाँ थीं। इस समय यकायक एक आवाज आने से दोनों राजकुमारों और सर्यू की निगाह उस तरफ चली गयी। देखा कि बीच वाली खिड़की (दरवाजा) खुली है, और उसके अन्दर रोशनी मालूम होती है। इन लोगों को ताज्जुब हुआ और इन्होंने सोचा कि शायद राजा गोपाससिंह आये हैं, और हम लोगों से बात चीत करने का इरादा है, मगर ऐसा न था, थोड़ी ही देरबाद उसके अन्दर-दो तीन नकाबपोश चलते-फिरते दिखायी दिये और इसके बाद एक नकाबपोश खिड़की में कमन्द अड़ाकर नीचे उतरने लगा। पहिले तो दोनों कुमारों और सुर्य को गुमान हुआ कि खिड़की में राजा गोपालसिंह या इन्द्रदेव दिखायी देंगे या होंगे, मगर जब एक नकाबपोश कमन्द के सहारे नीचे उतरने लगा, तब उनका खयाल बदल गया और वे सोचने लगे कि यह काम इन्द्रदेव या गोपालसिंह का नहीं है बल्कि ऐसे आदमी का है, जो इस तिलिस्मी का हाल नहीं जानता, क्योंकि गोपालसिंह और इन्द्रदेव तथा इन्दिरा को भी मालूम हुई है कि इस बाग की दीवार छूने या बदन के साथ लगाने लायक नहीं है, तभी तो इन्दिर अपनी माँ के पास नहीं पहुँच सकी थी, और सर्यू ने यह बात इन्दिरा से कही होगी।

इन्द्रजीतसिंह ने इस समय सर्यू से पूछा कि इस बाग की दीवार का हाल इन्दिरा को मालूम है? इसके जवाब में सर्यू ने कहा, "जरूर मालूम है, मैंने खुद इन्दिरा से कहा था और इसी सबब से तो वह मेरे पास आज तक न आ सकी, निःसन्देह यह बात इन्दिरा राजा ने गोपालसिंह से कही होगी बल्कि वह खुद जानते होंगे इसी से मैं सोचती हूँ कि ये लोग कोई दूसरे ही हैं, जो इस भेद को नहीं जानते, मगर अब तो इस दीवार का गुण जाता ही रहा।"

तीनों को ताज्जुब हुआ और तीनों आदमी टकटकी लगाकर उस तरफ देखने लगे। जब वह नकाबपोश कमन्द के सहारे नीचे उतर आया, तब दूसरे नकाबपोश ने वह कमन्द ऊपर खैंच ली और उसी कमन्द में एक गठरी बाँधकर नीचे लटकायी। दोनों कुमारों और सर्यू को विश्वास हो गया कि इस गठरी में जरूरी कोई आदमी है।

जो नकाबपोश नीचे आ चुका था, उसने गठरी थाम ली और खोलकर कमन्द खाली कर दी, मगर जिस कम्बल में वह गठरी बँठी हुई थी उसे इसी के साथ बाँध दिया और ऊपर वाले नकाबपोश ने खैंच लिया। थोड़ी देर बाद दूसरी गठरी लटकायी गयी और नीचे वाले नकाबपोश ने पहिले की तरह उसे भी थाम लिया और खोलकर फिर कम्बल कमन्द के साथ बाँध दिया।

इसी तरह बारी-बारी से साथ गठरियाँ नीचे उतारी गयीं, इसके बाद वह नकाबपोश जो सबके पहिले नीचे उतरा था, उसी कमन्द के सहारे ऊपर चढ़ गया और खिड़की बन्द हो गयी।

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