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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

पाँचवाँ बयान


आधी रात का समय था, जब लीला और मायारानी उस जंगल में पहुँची, जिसमें माधवी और भीमसेन टिके हुए थे। जब ये दोनों उसके पास पहुँची और लीला को वहाँ टिके हुए बहुत से आदमियों की आहट मिली तो वह मायारानी को एक ठिकाने खड़ा करके पता लगाने के लिए उनकी तरफ गयी।

हम ऊपर बयान कर चुके हैं कि सेनापति कुबेरसिंह के साथ थोड़ी सी फौज भी थी—अस्तु, लीला को थोड़ी ही कोशिश से मालूम हो गया कि यहाँ सैकड़ों आदमियों का डेरा पड़ा हुआ है और वे लोग इस ढंग से घने जंगल में आड़ देख टिके हुए हैं, जैसे डाकुओं का गिरोह या छिपकर धावा मारनेवाले टिकते हैं, और हर वक्त होशियार रहते हैं। लीला खूब जानती थी कि राजा बीरेन्द्रसिंह और उनके साथी या सम्बन्धी अगर किसी काम के लिए कहीं जाते हैं या लड़ाई करते हैं तो छिपकर या आड़ पकड़कर डेरा नहीं डालते हैं। हाँ, अगर अकेले या ऐयार लोग हों तो शायद ऐसा करें, मगर जब उनके साथ सौ-पचास आदमी या कुछ फौज होगी, तब कदापि ऐसा न करेंगे, इसलिए उसे गुमान हुआ कि ये लोग जरुर कोई गैर हैं, बल्कि ताज्जुब नहीं कि हमारा साथ देनेवाले हों। अस्तु, बहुत सी बातों को सोच-विचार और अपनी ऐयारी पर भरोसा करके लीला, माधवी की फौज में घुस गयी और वहाँ बहुत से सिपाहियों को होशियार तथा पहरा देते हुए देखा।

पहिले लिखा जा चुका है कि लीला भेष बदले हुए थी और यह भी दर्शाया गया है कि माधवी और कुबेरसिंह अपनी असली सूरत में सफर करते थे।

लीला को कई सिपाहियों ने देखा और एक ने टोका कि कौन है?

लीला : एक मुसाफिर परदेशी औरत।

सिपाही : यहाँ क्यों चली आ रही है?

लीला : अपनी भलाई की आशा से।

सिपाही : क्या चाहती है?

लीला : आपके सरदार से मिलना।

सिपाही अपना परिचय दे तो सरदार के पास भेजवा दूँ।

लीला : परिचय देने में कोई हर्ज नहीं है, मगर डरती हूँ कि आप लोग भी कहीं उन्हीं में से न हों, जिन्होंने मुझे लूट लिया है, यद्यपि अब मैं बिल्कुल खाली हो रही हूँ, मगर...

इतने में और भी कई सिपाही वहाँ जुट आये और सभों ने लीला को घेरकर सवाल करना शुरु किया और लीला ने भी गौर करके जान लिया कि ये लोग राजा बीरेन्द्रसिंह के दलवाले नहीं है, क्योंकि उनके फौजी सिपाही अक्सर जर्द पोशाक काम में लाते हैं, इसी तरह से जमानियावाले भी नहीं मालूम हुए, क्योंकि उनकी बातचीत और चाल-ढाल को लीला खूब पहिचानती थी। अस्तु, कुछ और बातचीत होने पर लीला को विश्वास हो गया कि ये लोग उनमें से नहीं है जिनका मुझे डर है।

उन सिपाहियों को भी एक अकेली औरत से डरने की कोई जरुरत न थी, इसलिए उन्होंने अपने मालिक का नाम जाहिर कर दिया और लीला को लिये हुए उस जगह जा पहुँचे, जहाँ माधवी और भीमसेन का बिस्तर लगा हुआ था और ये दोनों इस समय भी बैठे बातचीत कर रहे थे। लालटेन जलाया गया और लीला की सूरत अच्छी तरह देखी गयी, लीला ने भी उसी रोशनी में माधवी को पहिचान लिया और खुश होकर बोली, "अहा आप तो गया की रानी माधवीदेवी है!!"

माधवी : अरे तू कौन है?

लीला : मैं प्रसिद्ध मायरानी की ऐयारा हूँ और उन्हीं के साथ यहाँ तक आयी भी हूँ। यह दुनिया का कायदा है कि एक से दूसरे को मदद पहुँचती है। अस्तु, जिस तरह आपको मायारानी से मदद पहुँच सकती है, उसी तरह आप मायारानी की भी मदद कर सकती हैं। वाह वाह, यह समागम तो बहुत ही अच्छा हुआ। अगर आजकल मायारनी मुसीबत के दिन काट रही हैं तो क्या हुआ, मगर फिर भी वह तिलिस्म की रानी रह चुकी हैं और जो कुछ वह कर सकती हैं, किसी दूसरे से नहीं हो सकता। आप लोगों का मिलकर एक हो जाना बहुत ही मुनासिब होगा, और तब आप लोग जो चाहेगीं कर सकेंगी।

माधवी : (खुश होकर) मायारानी कहाँ है? उन्हें तो राजा बीरेन्द्रसिंह कैद करके चुनार ले गये थे।

लीला : जी हाँ, मगर मैं अभी कह चुकी हूँ कि मायारानी आखिर तिलिस्म की रानी हैं, इसलिए जोकुछ वह कर सकती हैं, किसी दूसरे के किये नहीं हो सकता। राजा बीरेन्द्रसिंह ने उन्हें कैद किया तो क्या हुआ, उनका छूटना कोई मुश्किल न था!!

माधवी : बेशक बेशक, अच्छा बताओं वह कहाँ है?

लीला : यहाँ से थोड़ी दूर पर खड़ी हैं, किसी सरदार को भेजिए उनका इस्तकबाल करके यहाँ ले आवे, दो-तीन सौ कदम से ज्यादे न चलना पड़ेगा।

माधवी : मैं खुद उन्हें लेने के लिए चलूँगी।

लीला : इससे बढ़कर और क्या हो सकता है? अगर आप उनकी इज्जत करेंगी तो वह आपके लिए जान तक देना जरूरी समझेंगी।

लीना ने अपनी लम्बी-चौड़ी बातों में माधवी को खूब उलझाया, यहाँ तक कि माधवी अपने साथ भीमसेन और कुबेरसिंह तथा कई सिपाहियों को लेकर मायरानी के पास गयी और उसे बड़ी खातिर और इज्जत के साथ अपने डेरे पर ले गयी। जल मँगवाकर हाथ-मुँह धुलवाया और फिर बातचीत करने लगी।

माधवी : (मायारानी से) आपको बीरेन्दसिंह की कैद से छूट जाने पर, मैं मुबारकबाद देती हूँ, यद्यपि आपके लिए यह कोई बड़ी बात न थी।

माया : बेशक, यह कोई बड़ी बात न थी, इस काम को तो अकेली मेरी सखी या ऐयारा लीला ही ने कर दिखाया। इस समय आपसे मिलकर मैं बहुत खुश हुई और इसमें अब शक करने की कोई जगह न रही कि आप पुनः गया की रानी और मैं जमानिया की मालिक बन जाऊँगी। दुनिया में एक का काम दूसरे से हुआ ही करता है, और जब हम आप एक दिल हो जायेंगे तो वह कौन सा काम है, जिसे नहीं कर सकते! मुझे आपके कैद होने की भी खबर लगी थी और मुझे इस बात का बहुत रंज था कि आपको मेरी बहिन कामलिनी ने कैदखाने की सूरत दिखायी थी।

माधवी : इधर तो यह सुनने में आया है कि आपसे और कामलिनी से कोई नाता नहीं है और लक्ष्मीदेवी भी प्रकट हो गयी है, तथा उसे राजा बीरेन्द्रसिंह चुनार ले गये हैं।

माया : (मुस्कुराकर) बेशक ऐसा ही है, मगर जिस जमाने का मैं जिक्र कर रही हूँ, उस जमाने में वह मेरी ही बहिन कहलाती थी। और लक्ष्मीदेवी को राजा बीरेन्द्रसिंह चुनार नहीं ले गये हैं, वह तो किशोरी, कामिनी, कमलिनी, लाडिली और कमला के सहित किसी दूसरी ही जगह छिपायी गयी है, मगर इसमें भी कोई सन्देह नहीं है कि कल शाम को गोपालसिंह उन सभों को जमानिया की तरफ ले जायेगे और हम लोग उन्हें गोपालसिंह के सहित रास्ते ही में गिरफ्तार कर लेंगे।

माधवी : (ताज्जुब से) हाँ! क्या कल मैं दुष्टा किशोरी की नापाक सूरत देख सकूँगी! उस पर मुझे बड़ा ही रंज हैं, और कमलिनी ने तो मुझे कैद ही किया था।

माया : बेशक, कल किशोरी और कमलिनी इत्यादि तुम्हारे कब्जे में होंगी और गोपालसिंह भी तुम्हारे काबू में होगा, जो बीरेन्द्रसिंह और उनके लड़कों की बदौलत तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन हो रहा है?

माधवी : निःसन्देह वह मेरा और तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन है, तो क्या उसकी गिरफ्तारी का इन्तजाम हो चुका है?

माया : हाँ, चौदह आना इन्तजाम हो चुका है और जो दो आना बाकी है, सो वह भी हो जायगा।

माधवी : क्या बन्दोबस्त हुआ है और किस समय तथा किस तरह वे लोग गिरफ्तार किये जायेंगे?

माया : (इधर-उधर देखकर) बहुतसी बातें ऐसी हैं, जो मैं केवल तुम्हीं से कहूँगी, क्योंकि कोई दूसरा उसके सुनने का अधिकारी नहीं है।

माधवी : बहुत अच्छा यह कोई बड़ी बात नहीं है।

इतना कहकर माधवी ने भीमसेन और कुबेरसिंह की तरफ देखा, क्योंकि माधवी, मायारानी और लीला के सिवाय केवल ये ही दो आदमी वहाँ मौजूद थे। भीमसेन ने कहा, "हम दोनों यहाँ से हट जाते है, तुम लोग बेधड़क बातें करो मगर (मायारानी से) मेरे एक सवाल का जवाब पहिले मिलना चाहिए।"

माया : वह क्या?

भीमसेन : आप अभी कह चुकी हैं कि कल किशोरी, कामिनी और लक्ष्मीदेवी गिरफ्तार हो जायेंगे, मगर मैंने सुना था कि राजा बीरेन्द्रसिंह के लश्कर में पहुँचकर मनोरमा ने किशोरी, कामिनी और कमला को जान से मार डाला, अब इस समय कोई और ही बात सुनने में आ रही है।

माधवी : हाँ, यह सवाल मैं भी करनेवाली थी, लेकिन बातों का सिलसिला दूसरी तरफ चला गया और मैं पूछना भूल गयी।

माया : हाँ, यह बात अच्छी तरह सुनने में आयी थी और मुझे विश्वास भी हो गया था। कि वास्तव में ऐसा ही हुआ है, मगर आज यह बात खुद गोपालसिंह की लिखावट से खुल गयी कि वास्तव में वे तीनों मारी नहीं गयीं, परन्तु मुझे यह मालूम नहीं है कि इस बिषय में किस तरह की चालाकी खेली गयी या मनोरमा ने जिन्हें मारा, वह कौन थीं।

भीमसेन : तो निश्चय है कि वे तीनों मारी नहीं गयी?

माया : बेशक वे तीनों जीती हैं। (गोपालसिंह वाली चीठी दिखाकर) देखो एक ही सबूत में मैं तुम्हारी दिलजमई कर देती हूँ, इसे पढ़ो और माधवी रानी को सुनाओ। (माधवी से) देखो बहिन, तुम इस बात का खयाल न करना कि मैं तुम्हें आप कहकर सम्बोधन नहीं करती, मेरा तुम्हारा अब दोस्ती और मुहब्बत का नाता हो चुका, इसलिए अब इन बातों का खयाल नहीं हो सकता।

माधवी : मैं भी यही पसन्द करती हूँ और इस बारे में अपने लिये भी तुमसे पहिले ही माफी माँग लेती हूँ।

भीमसेन ने पत्र पढ़ा और माधवी को सुनाया।

भीमसेन : इस पत्र से तो बड़ा काम निकल सकता है! यह कब का लिखा है, और तुम्हारे हाथ क्योंकर लगा, तथा जिस अँगूठी का इसमें जिक्र किया गया है, वह कहाँ है?

माया : (अँगूठी दिखाकर) अँगूठी भी मुझे मिल गयी है और यह चीठी आज ही की लिखी और आज ही मेरे हाथ लगी है। अभी इसकी कार्रवाई बिल्कुल बाकी है।

भीमसेन : अफसोस इतना ही है कि मेरे ऐयारों में से कोई भी रामदीन को नहीं जानता...

माया : क्या हर्ज है, यह मेरी ऐयारा लीला बखूबी उसकी तरह बनकर काम निकाल सकती है, तुम्हारे ऐयार इसकी मदद पर मुस्तैद रह सकते हैं, और यह जब रामदीन की सूरत बनेगी तो इसे अच्छी तरह देख भी सकते हैं।

भीमसेन : (चीठी मायारानी के हाथ में देकर) अच्छा अब तुम दोनों को जो कुछ गुप्त बातें करनी हैं, कर लो, पीछे मैं इस बिषय में कुछ कहूँ, सुनूँगा।

इतना कहकर भीमसेन उठ खड़ा हुआ और कुबेरसिंह को साथ लिये हुए कुछ दूर चला गया और मौका समझकर लीला भी कुछ पीछे हट गयी।

माया : जो कुछ तुम पीछे कहो-सुनोगी, उसे मैं पहिले ही निपटा देना चाहती हूँ। सच पूछों तो मेरी और तुम्हारी अवस्था बराबर है, तुम भी विधवा हो और मैं भी विधवा हूँ क्योंकि मैं वास्तव में गोपालसिंह की स्त्री नहीं हूँ, और यह सब बातें सभी को मालूम हो गयी, बल्कि तुम भी सुन ही चुकी होगी।

माधवी : हाँ, मैं सुन चुकी हूँ और मैंने यह भी सुना था कि तुमने राजा गोपालसिंह को वर्षों तक कैद कर रक्खा था पर आखिर कमलिनी ने उन्हें छुड़ा दिया। तो तुमने ऐसा क्यों किया और उन्हें मार ही क्यों न डाला?

माया : यही मुझसे भूल हो गयी। तिलिस्म के दो-चार भेद जो मुझे मालूम न थे, जानने के लिए मैंने ऐसा किया था, मुझे उम्मीद थी कि वह कैद की तकलीफ उठाकर बता देगा। तब उसे मार डालती तो आज यह दिन देखना नसीब न होता, मैं तिलिस्म की बदौलत अकेली ही राजा बीरेन्द्रसिंह ऐसे दस को जहन्नुम में पहुँचा देने की ताकत रखती थी। अब भी अगर गोपालसिंह को मैं पक़ड़ पाऊँ और मार सकूँ तो पुनः तिलिस्म की रानी होने से मुझे कोई भी नहीं रोक सकता और तब मैं बात-की-बात में तुम्हें राजगृही और गया की रानी बना सकती हूँ, मगर उस बात का सिलसिला तो टूटा ही जाता है। तुम भी विधवा हो और मैं भी विधवा हूँ, तुम भी नौजावन हो और आशिक मिजाज हो तथा मैं भी नौजवान और आशिक मिजाज हूँ तुम भी इन्द्रजीतसिंह के फेर में पड़कर दुख भोग रही हो और मैं भी आनन्दसिंह की मुहब्बत में इस दशा तक आ पहुँची हूँ, अब भी मेरी और तुम्हारी किस्मतों का फैसला एक साथ और एक ही ठिकाने हो सकता है, क्योंकि इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह भी आज कल जमानिया ही में तिलिस्म तोड़ रहे हैं, आज अगर हम-तुम एक होकर काम करें तो बहुत जल्द दुश्मनों का नामोनिशान मिटाकर अपने प्यारों के साथ दुनिया का सुख भोग सकती हैं, मगर मुझे इस समय तुम्हारे दो कण्टक दिखायी देते हैं।

माधवी : हाँ, एक तो मेरा भाई भीमसेन, और दूसरा सेनापति कुबेरसिंह, मगर तुम इन दोनों का कुछ भी खयाल न करो, इस समय हमें इन दोनों को मिला-जुलाकर काम लेना चाहिए, फिर तुम जैसा कहोगी वैसा किया जायगा।

माया : शाबाश शाबाश! यही मालूम करने के लिए मैं तुमसे निराल में बातचीत किया चाहती थी, क्योंकि ये बातें ऐसी हैं कि सिवाय मेरे और तुम्हारे किसी तीसरे का न जानना ही अच्छा है।

माधवी : निःसन्देह ऐसा ही है, हम दोनों की दिल की बाते हवा को भी न मालूम होनी चाहिए। आज बड़ी खुशी का दिन है कि हम दोनों जो एक ही तरह का दिल रखती है, यहाँ पर आ मिली हैं, अब हम दोनों को हमेशे मेल-मिलाप रखने और समय पड़ने पर एक-दूसरे की मदद करने के लिए कसम खाकर मजबूत हो जाना चाहिए।

पाठक, मायारानी और माधवी दोनों ही अपना मतलब देख रही है।

दोनों ही धूर्त, दोनों ही खुदगरज, और दोनों ही विश्वासघातिनी हैं। इस समय कुछ देर तक दोनों में घुल-घुलकर बातें होती रहीं, वादें भी हुए और कसमें भी खायी गयीं। इसके बाद फिर भीमसेन और कुबेरसिंह बुलाये गये तथा लीला भी आ गयी और आपुस में बातें होने लगीं।

भीमसेन : अच्छा तो अब क्या निश्चय किया जाता है? राजा गोपाललिंह की चीठी लेकर जमनिया कौन जायगा और क्या होगा?

माया : पहिले तुम अपनी राय दो।

भीमसेन : मेरी राय तो यह है कि लीला, रामदीन की सूरत बन दीवान साहब के पास जाय और वहाँ से उनकी फरमाइश लेकर ‘पिपलिया घाटी' पहुँचे और हम लोग भी अपनी फौज लेकर वहीं मौजूद रहे। लीला को यह करना चाहिए कि उन दो-सौ सवारों को, जिन्हें जमानिया से अपने साथ लायेगी, किसी बहाने से पीछे ठिकवा दे, जिसमें गोपालसिंह के पहुँचते ही हम लोग बात-की-बात में उन सभों को गिरफ्तार कर लें या मार डालें।

माया : मगर यह बात मुझे नापसन्द है, क्योंकि एक तो उसके लिखे अनुसार फौज ‘पिपलिया घाटी' तक जरुर जायगी, अगर मान लिया जाय कि नकली रामदीन के हुक्म से फौज पीछे रह भी जाय और तुम लोग उन सभों को गिरफ्तार कर लो तो भी हमारा काम न निकल सकेगा, क्योंकि राजा गोपालसिंह के पकड़े या मारे जाने की खबर दीवान को तुरन्त लग जायगी, और वह अपनी फौज को दुरुस्त करके लड़ने को तैयार हो जायगा और हम लोगों को जमानिया के अन्दर कभी घुसने न देगा। कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह भी जमानिया ही में तिलिस्म के अन्दर हैं, वे दोनों भी लड़ने-भिड़ने के लिए तैयार हो जायेंगे और उस समय हम लोग फिर लण्डूरे ही रह जायेंगे, इतना बखेड़ा करने का कुछ फायदा न निकलेगा, न तो जमानिया की गद्दी मिलेगी और न गया का राज्य।

भीमसेन : तब आप ही कहिए कि क्या करना चाहिए।

माया:(कुबेर से) इस वक्त आपके पास कितनी फौज है?

कुबेर : पाँच सौ।

माया : (माधवी से) ऐसा करना चाहिए कि हम, तुम, भीमसेन और कुबेरसिंह चारों आदमी जमानियावाले तिलिस्मी बाग के अन्दर जा घुसें और इन पाँच सौ आदमियों को इस तरह तिलिस्मी बाग के अन्दर ले चलें और छिपा रक्खें कि किसी को कानोंकान खबर न हो, क्योंकि उस बाग में इतने आदमियों को छिपा रखने की जगह हैं और वह बाग भी इस लायक है कि अगर मैं उसके अन्दर मौजूद रहूँ तो चाहे कैसा ही जबर्दस्त दुश्मन हो और चाहे कितनी ही ज्यादे फौज लेकर क्यों न चढ़ आवे मगर बाग के अन्दर किसी की नजर तक पहुँचने न दूँ।

माधवी : बेशक वह बाग ऐसा ही सुनने में आया है तुम तो वहाँ की रानी ही ठहरी तथा तुम्हें वहाँ के सब भेद भी मालूम हैं, अच्छा तब?

माया : जब किशोरी और कमलिनी इत्यादि को लेकर गोपालसिंह जमानिया जायगा तो निःसन्देह सभों को लिये हुए उसी बाग में पहुँचेगा, बस उस समय जो हम लोग छिपे हुए रहेंगे, निकल आवेंगे और बात की बात सभों लोगों को मार लेंगे। ऐसा होने से जमानिया में दखल भी बना रहेगा और इन्द्रजीतसिंह तथा आनन्दसिंह भी कब्जे में आ जायेंगे।

माधवी : (खुश होकर) बात तो ठीक है, मगर हम लोग इतने आदमियों को लेकर चुपचाप उस बाग के अन्दर किस तरह पहुँच सकते हैं।

माया : इसका बन्दोबस्त इस तरह हो सकता है कि हम-तुम भीमसेन और कुबेरसिंह एक साथ ही भेष बदलकर लीला के साथ जमानिया जाँय और लीला दीवान साहब से कहे कि गोपालसिंह ने इन सभों अर्थात् हम लोगों को खास बाग के अन्दर पहुँचा देने का हुक्म दिया हैं। बस इतना कहकर हम लोगों को उस बाग के अन्दर पहुँचा दें, क्योंकि दीवान इस नकली रामदीन की बात अँगूठी की बरकत से टाल न सकेगा और रामदीन पहिले भी खास बाग के अन्दर आता-जाता था, यह बात दीवान जानता है। जब हम लोग उस बाग के अन्दर जा पहुँचेंगे तो एक गुप्त रास्ते से कुल फौज को बाग के अन्दर ले लेंगे। इन फौजी सिपाहियों को उस सुरंग के मुहाने का पता बता दिया जायगा, जिसकी राह से हम सभों को खास बाग के अन्दर पहुँचावेंगे।

माधवी : यह बात तो तुमने बहुत अच्छी सोची!

भीमसेन : इससे बढ़कर और कोई तरकीब फतह पाने के लिए हो ही नहीं सकती!

कुबेर : और ऐसा करने में कोई टण्टा भी नहीं है।

लीला : बस अब इसी राय को पक्की रखिए।

इसके बाद फिर सभों में बातचीत होती रही, यहाँ तक कि सवेरा हो गया। मायारानी, माधवी, भीमसेन और कुबेरसिंह ने सूरतें बदल ली और लीला भी रामदीन बन बैठी। भीमसेन के चारों ऐयारों को सुरंग का पता ठिकाना अच्छी तरह बता दिया गया और कह दिया गया कि उसी ठिकाने सुरंग के मुहाने पर फौजी सिपाहियों को लेकर इन्तजार करना, इसके बाद मायारानी, माधवी, भीमसेन, कुबेरसिंह और लीला ने घोड़ों पर सवार होकर जमानिया का रास्ता लिया।

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