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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

पाँचवाँ बयान


दूसरे दिन तेजसिंह को उसी तिलिस्मी इमारत में छोड़कर और जीतसिंह को साथ लेकर राजा बीरेन्द्रसिंह अपने पिता से मिलने के लिए चुनार गये। मुलाकात होने पर बीरेन्द्रसिंह ने पिता के पैरों पर सर रक्खा और उन्होंने आशीर्वाद देने के बाद बड़े प्यार से उठाकर छाती से लगाया और सफर का हाल-चाल पूछने लगे।

राजा साहब की इच्छानुसार एकान्त हो जाने पर बीरेन्द्रसिंह ने सब हाल अपने पिता जी को बयान किया, जिसे वे बड़ी दिलचस्पी के साथ सुनते रहे इसके बाद पिता के साथ-साथ महल में जाकर अपनी माता से मिले और संक्षेप में सब हाल कहकर बिदा हुए, तब चन्द्रकान्ता के पास गये और उसी जगह चपला तथा चम्पा से मिलकर देर तक अपने सफर का दिलचस्प हाल कहते रहे।

दूसरे दिन राजा बीरेन्द्रसिंह अपने पिता के पास एकान्त में बैठे हुए बातों में राय ले रहे थे, जब जमानिया से आये हुए एक सवार की इत्तिला मिली, जो राजा गोपालसिंह की चीठी लाया था। आज्ञानुसार वह हाजिर किया गया, सलाम करके उसने राजा गोपालसिंह की चीठी दी और तब बिदा लेकर बाहर चला गया।

यह चीठी जो राजा गोपालसिंह ने भेजी थी नाम ही को चीठी थी, असल में यह एक ग्रन्थ ही मालूम होता था, जिसमें राजा गोपालसिंह ने दोनों कुमार, किशोरी, कामिनी, सर्यू, तारा, मायारानी और माधवी इत्यादि का खुलासा किस्सा जो कि हम ऊपर के बयानों में लिख आये हैं और जो राजा बीरेन्द्रसिंह को अभी मालूम नहीं हुआ था, तथा अपने यहाँ का भी कुछ हाल लिख भेजा था और साथ ही यह भी लिखा कि आप लोग उसी खँडहर वाली नयी इमारत में रहकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के मिलने का इन्तजार करें' इत्यादि।

राजा  सुरेन्द्रसिंह को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि हम और राजा गोपालसिंह असल में एक ही खानदान की यादगार हैं और इन्द्रजीतसिंह तथा आनन्दसिंह से भी अब बहुत जल्द मुलाकात हुआ चाहती है, अस्तु, यह बात तय पायी कि सब कोई उसी तिलिस्मी खँडहरवाली नयी इमारत में चलकर रहें और उसी जगह भूतनाथ का हाल-चाल मालूम करें। आखिर ऐसा ही हुआ अर्थात् राजा सुरेन्द्रसिंह, बीरेन्द्रसिंह, महारानी चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा वगैरह सभों की सवारी यहाँ आ पहुँची, और मायारानी दारोगा तथा कैदियों को भी उसी जगह लाकर रखने का इन्तजाम किया गया।

हम बयान कर चुके है कि इस तिलिस्मी खँडहर के चारों तरफ अब बहुत बड़ी इमारत बनकर तैयार हो गयी है, जिसके बनवाने में जीतसिंह ने अपनी बुद्धिमानी का नमूना बड़ी खूबी के साथ दिखाया है—इत्यादि। अस्तु, इस समय इन लोगों को यहाँ ठहरने में तकलीफ किसी तरह की नहीं हो सकती थी, बल्कि हर तरह का आराम था।

पश्चिम तरफवाली इमारत के ऊपरवाले खण्डों में कोठरियाँ और बालाखानों के अतिरिक्त बड़े-बड़े कमरे थे, जिनमें से चार कमरे इस समय बहुत अच्छी तरह सजाये गये थे और उनमें महाराज सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह का डेरा था। यहाँ भूतनाथ के डेरेवाला बारह नम्बर का कमरा ठीक सामने पड़ता था और वह तिलिस्मी चबूतरा भी यहाँ से उतना ही साफ दिखायी देता था जितना भूतनाथ के डेरे से।

इन कमरों के पिछले हिस्से में बाकी लोगों का डेरा था और बचे हुए ऐयारों को इमारत के बाहरी हिस्से में स्थान मिला था और उस तरफ थोड़े से फौजी सिपाहियों और शागिर्द पेशेवालों को भी जगह दी गयी थी।

इस जगह राजा साहब और जीतसिंह तथा तेजसिंह के भी आ जाने से भूतनाथ तदद्दुद में पड़ गया और सोचने लगा कि उस तिलिस्मी चबूतरे के अन्दर निकलकर मुझसे मुलाकात करनेवाले या बलभद्रसिंह को ले जानेवाले आदमियों का हाल कहीं राजा साहब या उनके ऐयारों को मालूम न हो जाय और मैं एक नयी आफत में न फँस जाऊँ, क्योंकि उसका पुनः उस चबूतरे के नीचे निकलकर मुझसे मिलने आना कोई आश्चर्य की बात नहीं है'।

रात आधी से कुछ ज्यादे जा चुकी है। राजा बीरेन्द्रसिंह अपने कमरे के बाहर बारामदे मे फर्श पर बैठ अपने मित्र तेजसिंह से धीरे-धीरे कुछ बातें कर रहे हैं। कमरे के अन्दर इस समय एक हलकी रोशनी हो रही है सही, मगर कमरे का दरवाजा घूमा रहने के सबब यह रोशनी बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह तक नहीं पहुँच रही थी, जिसमें ये दोनों एक प्रकार से अन्धकार में बैठे हुए थे और दूर से इन दोनों को कोई नहीं देख सकता था। नीचे बाग में लोहे के बड़े-बड़े खम्भों पर लालटेनें जल रही थीं सब्जी के बड़े-बड़े खम्भों पर लालटेनें जल रही थीं, फिर भी बाग की घनी सब्जी और लताओं का सहारा, उसमें छिपकर घूमनेवालों के लिये कम न था। उस दालान में भी कन्दील जल रही थी, जिसमें तिलिस्मी चबूतरा था और इस समय राजा बीरेन्द्रसिंह की निगाह भी जो तेजसिंह से बात कर रहे थे, उसी तिलिस्मी चबूतरे की तरफ ही थी।

यकायक चबूतरे के निचले हिस्से में रोशनी देखकर राजा बीरेन्द्रसिंह को ताज्जुब हुआ और उन्होंने तेजसिंह का ध्यान भी उस तरफ दिलाया। उस रोशनी के सबब से साफ मालूम होता था कि चबूतरे का अलग हिस्सा (जो बीरेन्द्रसिंह की तरफ पड़ता था) किवाड़ के पल्ले की तरह खुलकर जमीन के साथ लग गया है और दो आदमी एक गठरी लटकाये हुए चबूतरे के से बाहर की तरफ ला रहे हैं। उन दोनों के बाहर आने के साथ ही अन्दरवाली रोशनी बन्द हो गयी और उन दोनों में से एक ने दूसरे के कन्धे पर चढ़कर वह कन्दील भी बुझा दी जो उस दालान में जल रही थी।

कन्दील बुझ जाने से वहाँ अन्धकार हो गया और इसके बाद मालूम न हुआ कि वहाँ क्या हुआ या क्यों हो रहा है। तेजसिंह और बीरेन्द्रसिंह उसी समय उठ खड़े हुए और हाथ में नंगी तलवार लिये तथा एक आदमी को लालटेन लेकर वहाँ जाने की आज्ञा देकर, उस दालान की तरफ रवाना हुए जिसमें तिलिस्मी चबूतरा था, मगर वहाँ जाकर सिवाय एक गठरी के जो उसी चबूतरे के पास पड़ी हुई थी और कुछ नजर न आया। जब आदमी लालटेन लेकर पहुँचा तो तेजसिंह ने अच्छी तरह घूमकर जाँच की मगर नतीजा कुछ भी न निकला, न तो यहाँ कोई आदमी दिखायी दिया और न उस चबूतरे ही में किसी तरह के निशान या दरवाजे का पता लगा।

तेजसिंह ने जब वह गठरी खोली तो एक आदमी पर निगाह पड़ी। लालटेन की रोशनी में बड़े गौर से देखने पर भी तेजसिंह या बीरेन्द्रसिंह उसे पहिचान न सके। अस्तु, तेजसिंह ने उसी समय जफील बजायी, जिसे सुनते ही कई सिपाही और खिदमतगार वहाँ इकट्ठे हो गये। इसके बाद बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह उस आदमी को उठवाकर राजा सुरेन्द्रसिंह के पास ले आये, जो इस समय का शोरगुल सुनकर जाग चुके थे और तेजसिंह को अपने पास बुलवाकर कुछ बातें कर रहे थे।

उस बेहोश आदमी पर निगाह पड़े ही जीतसिंह पहिचान गये और बोल उठे—"यह तो बलभद्रसिंह है!"

बीरेन्द्र : (ताज्जुब से) है, यही बलभद्रसिंह हैं, जो यहाँ से गायब हो गये थे!!

जीतसिंह : हाँ यही हैं, ताज्जुब नहीं कि जिस अनूठे ढंग से ये यहाँ पहुँचाये गये हैं, उसी ढंग से गायब भी हुए हों।

सुरेन्द्रसिंह : जरूर ऐसा ही हुआ होगा, भूतनाथ पर व्यर्थ का शक किया जाता था। अच्छा अब इन्हें होश में लाने की फिक्र करो और भूतनाथ को बुलाओ।

तेजसिंह : जो आज्ञा।

सहज ही में बलभद्रसिंह चैतन्य हो गये और तब तक भूतनाथ भी वहाँ आ पहुँचा। राजा सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह और तेजसिंह को सलाम करने बाद भूतनाथ बैठ गया और बलभद्रसिंह से बोला—

भूतनाथ : कहिए कृपानिधान, आप कहाँ छिप गये थे और कैसे प्रकट हो गये? सभों को मुझ पर सन्देह हो रहा है।

पाठक, इसके जवाब में बलभद्रसिंह ने यह नहीं कहा कि ‘तुम्हीं ने तो मुझे बेहोश किया था' जिसके सुनने की शायद आप इस समय आशा करते होंगे, बल्कि बलभद्रसिंह ने यह जवाब दिया कि नहीं भूतनाथ तुम पर कोई क्यों शक करेगा? तुमने ही तो मेरी जान बचायी है और तुम्हीं मेरे साथ दुश्मनी करोगे ऐसा भला कौन कह सकता है?

बलभद्रसिंह : इसका पता मुझे भी अभी तक नहीं लगा कि वे कौन थे, जिनके पाले मैं पड़ गया था। हाँ जोकुछ मुझ पर बीती है, उसे अर्ज कर सकता हूँ, मगर इस समय नहीं, क्योंकि मेरी तबियत कुछ खराब हो रही है, आशा है कि अगर मैं दो-तीन घण्टे सो सकूँगा, तो सुबह तक ठीक हो जाऊँगा।

सुरेन्द्रसिंह : कोई चिन्ता नहीं, आप इस समय जाकर आराम कीजिए।

जीतसिंह : यदि इच्छा हो तो अपने उसी पुराने डेरे में भूतनाथ के पास रहिए, नहीं तो कहिए, आपके लिए दूसरे डेरे का इन्तजाम कर दिया जाय।

बलभद्र : जी नहीं, मैं अपने मित्र भूतनाथ के साथ ही रहना पसन्द करता हूँ।

बलभद्रसिंह को साथ लिये भूतनाथ अपने डेरे की तरफ रवाना हुआ, इधर राजा सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह उस तिलिस्मी चबूतरे तथा बलभद्रसिंह के बारे में बातचीत करने लगे तथा अन्त में यह निश्चय किया कि बलभद्रसिंह जोकुछ कहेंगे उस पर भरोसा न करके, अपनी तरफ से इस बात का पता लगाना चाहिए कि उस तिलिस्मी तबूतरे की राह से आने-जानेवाले कौन हैं, उस दालान में ऐयारों का गुप्त पहरा मुकर्रर करना चाहिए।

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