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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

।। उन्नीसवाँ भाग ।।

 

पहिला बयान

अट्ठारहवें भाग के अन्त में हम इन्द्रानी और आनन्दी का मारा जाना लिख आये हैं और यह भी लिख चुके हैं कि कुमार के सवाल करने पर नानक ने अपना दोष स्वीकार किया और कहा—"इन दोनों को मैंने ही मारा और इनाम पाने का काम किया है, ये दोनों बड़ी ही शैतान थीं।"

एक तो इनके मारे जाने ही से कुमार बड़े दुःखी हो रहे थे, दूसरे नानक के इस उदण्डता के साथ जवाब देने ने उन्हें आपे से बाहर कर दिया। कुँअर आनन्दसिंह ने तलवार के कब्जे पर हाथ रखकर बड़े भाई की तरफ देखा, अर्थात् इशारे ही में पूछा कि यदि आज्ञा हो तो नानक को दो टुकड़े कर दिया जाये। कुँअर आनन्दसिंह के इस भाव को नानक भी समझ गया और हँसता हुआ बोला, "आश्चर्य है कि आपके दुश्मनों को भी मारकर मैं दोषी ठहराया जाता हूँ!

इन्द्रजीत : क्या ये हमारी दुश्मन थीं?

नानक : बेशक!

इन्द्रजीत : इसका सबूत क्या है?

नानक : केवल ये दोनों लाशें।

इन्द्रजीत : इसका क्या मतलब?

नानक : यही कि इन दोनों का चेहरा साफ करने पर आपको मालूम हो जाएगा कि ये दोनों वास्तव में मायारानी और माधवी थीं।

इन्द्रजीत : (चौंककर ताज्जुब से) हैं, मायारानी और माधवी!!

नानक : (बात पर जोर देकर) जी हाँ, मायारानी और माधवी!

इन्द्रजीत : (आश्चर्य और क्रोध से बूढ़े दारोगा की तरफ देखकर) आप सुनते हैं नानक क्या कह रहा है? 

दारोगा : नहीं, कदापि नहीं, नानक झूठा है।

नानक:(लापरवाही से) कोई हर्ज नहीं, यदि कुमार चाहेंगे तो बहुत जल्द मालूम हो जायेगा कि झूठा कौन है!

दारोगा : बेशक, मैं अभी बावली में से जल लाकर और इनका चेहरा धोकर अपने को सच्चा साबित करता हूँ।

इतना कहता हुआ दारोगा बावली की तरफ चला गया और फिर लौटकर न आया।

पाठक, आप समझ सकते हैं कि नानक की बातों ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के कोमल कलेजों के साथ कैसा बर्ताव किया होगा? आनन्दी और इन्द्रानी वास्तव में मायारानी और माधवी हैं, इस बात ने दोनों कुमारों को हद से ज्यादा बेचैन कर दिया और दोनों अपने किये पर पछताते हुए क्रोध और लज्जा-भरी निगाहों से एक दूसरे को देखते हुए मन में सोचने लगे कि ‘हाय, हम दोनों से कैसी भूल हो गई! यदि कहीं यह हाल कमलिनी और लाडिली तथा किशोरी और कामिनी को मालूम हो गया तो क्या वे सब मारे तानों के हम लोगों के कलेजों को चलनी न कर डालेंगी! अफसोस, उस बुड्ढे दारोगा ही ने नहीं, बल्कि हमारे सच्चे साथी भैरोसिंह ने भी हमारे साथ दगा की। उसने कहा था कि इन्द्रानी ने मेरी सहायता की थी इत्यादि, पर यह कदापि सम्भव नहीं कि मायारानी भैरोसिंह की सहायता करे। अफसोस, क्या अब यह जमाना आ गया कि सच्चे ऐयार भी अपने मालिको के साथ दगा करें। 

कुछ देर तक इसी तरह की बातें दोनों कुमार सोचते और दारोगा के आने का इन्तजार करते रहे। आखिर आनन्दसिंह ने अपने बड़े भाई से कहा, "मालूम होता है कि वह कमबख्त बुड्ढा दारोगा डर के मारे भाग गया, यदि आज्ञा हो तो मैं जाकर पानी लाने का उद्योग करूँ।" इसके जवाब में कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने पानी लाने का इशारा किया और आनन्दसिंह बावली की तरफ रवाना हुए।

थोड़ी ही देर में कुँअर आनन्दसिंह अपना पटूका पानी से तर कर ले आये और यह कहते हुए इन्द्रजीतसिंह के पास पहुँचे—"बेशक दारोगा भाग गया।"

उसी पटूके के जल से दोनों लाशों का चेहरा साफ किया गया और उसी समय मालूम हो गया कि नानक ने जो कुछ कहा सब सच है, अर्थात् वे दोनों लाशें वास्तव में मायारानी तथा माधवी की ही हैं।

अब दोनों भाइयों के रंज और गम का कोई हद न रहा। सकते की हालत में खड़े हुए पत्थर की तरह वे दोनों लाशों की तरफ देख रहे थे। कुछ देर बाद कुँअर आनन्दसिंह ने एक लम्बी साँस लेकर कहा, "वाह रे भैरोसिंह, जब तुम्हारा यह हाल है, तो फिर हम किस पर भरोसा कर सकते हैं!"

इसके जवाब में पीछे की तरफ से आवाज आयी, भैरोसिंह ने क्या कसूर किया है जो आप उस पर आवाज कस रहे हैं!"

दोनों कुमारों ने घूमकर देखा तो भैरोसिंह पर निगाह पड़ी। भैरोसिंह ने पुनः कहा, "जिस दिन आप इस बात को सिद्घ कर देंगे कि भैरोसिंह ने आप के साथ दगा की उस दिन जीतेजी भैरोसिंह को कोई नहीं देख सकेगा।"

इन्द्रजीत : आशा तो ऐसी ही थी, मगर आजकल तुम्हारे मिजाज में कुछ फर्क आ गया है।

भैरो : कदापि नहीं।

इन्द्रजीत : अगर ऐसा न होता तो तुम बहुत-सी बातें मुझसे छिपाकर मुझे आफत में न डालते।

भैरो : (कुमार के पास जाकर) मैंने कोई बात आप से नहीं छिपायी और जो कुछ आप समझे हुए हैं, वह आप का भ्रम है।

इन्द्रजीत : क्या तुमने नहीं कहा था कि इन्द्रानी तुम्हें इस तिलिस्म में मिली थी और उसने तुम्हारी सहायता की थी?

भैरो : कहा था और बेशक कहा था।     

इन्द्रजीत : (उन दोनों लाशों की तरफ इशारा करके) फिर यह क्या मामला है? क्या तुम देख रहे हो ये किसकी लाशें हैं?

भैरो : मैं जानता हूँ कि ये मायारानी की लाशें हैं, जो नानक के हाथ से मारी गयी हैं, मगर इससे मेरा कोई कसूर साबित नहीं होता और न मेरी बात ही झूठी होती है। सम्भव है कि इन दोनों ने जिस तरह आपको धोखा दिया, उसी तरह आपका मित्र और साथी समझकर मुझे भी धोखा दिया हो।

इन्द्रजीत : (कुछ सोचकर) खैर, एक नहीं, मैं और भी कई बातों में तुम्हें झूठा साबित करूँगा।

भैरो : दिल्लगी के शब्दों को छोड़कर आप मेरी एक बात भी झूठी साबित नहीं कर सकते।

इन्द्रजीत : सो सबकुछ नहीं; इन पेचीली बातों को छोड़कर, तुम्हें साफ-साफ मेरी बातों का जवाब देना होगा।

भैरो : मैं बहुत साफ-साफ आपकी बातों का जवाब दूँगा, आप जो कुछ पूछना हो, पूछें।

इन्द्रजीत : तुम हम लोगों से बिदा होकर कहाँ गये थे, अब कहाँ से आ रहे हो और इन लाशों की खबर तुम्हें कैसे मिली?

भैरो : आप तो एक साथ बहुत से सवाल कर गये, जिनका जवाब मुख्तसर में हो ही नहीं सकता। बेहतर होगा कि आप यहाँ से चलकर उस कमरे में या और किसी ठिकाने बैठें और जो कुछ मैं जवाब देता हूँ, उसे गौर से सुने। मुझे पूरा यकीन है कि निःसन्देह आप लोगों के दिल का खुटका निकल जाएगा और आप लोग मुझे बेकसूर समझेंगे, इतना ही नहीं मैं और भी कई बातें आपसे कहूँगा!

इन्द्रजीत : इन दोनों लाशों को और नानक को यों ही छोड़ दिया जाय?

भैरो : क्या हर्ज, है अगर यों ही छोड़ दिया जाय! 

नानक : जबकि मैंने आप लोगों के साथ किसी तरह की बुराई नहीं की है तो फिर मुझे इस बेबसी की हालत में क्यों छोड़ जाते हैं? यदि मुझे कुछ इनाम न मिले तो कम-से-कम कैद से तो छुट्टी मिल जाये!

इन्द्रजीत : ठीक है, मगर अभी हमें यह मालूम होना चाहिए कि तू इस तिलिस्म के अन्दर क्योंकर और किस नीयत से यहाँ आया था, क्योंकि अभी उसी बाग में तेरी बदनीयती का हाल मालूम हो चुका, जब दारोगा ने तुझे पकड़ा था।

नानक : मगर आपको दारोगा की बदनीयती का हाल भी तो मालूम हो चुका है।

भैरो : इस पचड़े से हमें कोई मतलब नहीं, अभी राजा गोपालसिंह का आदमी इसको लेने के लिए आता होगा, इसे उसके हवाले कर दीजियेगा।

इन्द्रजीत : अगर ऐसा हो तो बहुत अच्छी बात है, मगर क्या तुमको मालूम है कि राजा गोपालसिंह का आदमी आयेगा? क्या इस मामले की खबर उनको लग गयी है?

भैरो : जी हाँ।

इन्द्रजीत : क्योंकर?

भैरो : सो तो मैं नहीं जानता, मगर कमलिनी की जुबानी जो कुछ सुना है, वह कह सकता हूँ।

इन्द्रजीत : तो क्या तुमसे और कमलिनी से मुलाकात हुई थी? इस समय वे सब कहाँ हैं?

भैरो : जी हाँ, हुई थी और मैं आपकी मुलाकात उन लोगों से करा सकता हूँ। (हाथ का इशारा करके) वे सब उस तरफ वाले बाग में हैं, और इस समय मैं उन्हीं के साथ था (रुककर और सामने की तरफ देखकर) वह देखिए, राजा गोपालसिंह का आदमी आ पहुँचा।

दोनों भाइयों ने ताज्जुब के साथ उस तरफ देखा। वास्तव में एक आदमी आ रहा था, जिसने पास पहुँचकर एक चीठी इन्द्रजीतसिंह के हाथ में दी, और कहा, "मुझे राजा गोपालसिंह ने आपके पास भेजा है।"

इन्द्रजीतसिंह ने उस चीठी को बड़े गौर से देखा। राजा गोपालसिंह का हस्ताक्षर और खास निशान भी पाया।

जब निश्चय हो गया कि यह चीठी राजा गोपालसिंह ही की लिखी है, तब पढ़ के आनन्दसिंह को दे दिया। उस समय पत्र पर केवल इतना लिखा हुआ था—

"आप नानक तथा मायारानी और माधवी की लाश को इस आदमी के हवाले करके अलग हो जायँ और जहाँ तक जल्दी हो सके, तिलिस्म का काम पूरा करें।"

इन्द्रजीतसिंह ने उस आदमी से कहा, "नानक और ये दोनों लाशें तुम्हारे सुपुर्द हैं, तुम जो मुनासिब समझो, करो, मगर राजा गोपालसिंह को कह देना कि कल वह इस बाग में मुझसे जरूर मिल लें।" इसके जवाब में उस आदमी ने "बहुत अच्छा" कहा और दोनों कुमार तथा भैरोसिंह वहाँ से रवाना होकर बावली पर आये। तीनों ने उस बावली में स्नान करके अपने कपड़े सूखने के लिए पेड़ों पर फैला दिये और इसके बाद ऊपरवाले चबूतरे पर बैठकर बातचीत करने लगे।

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