चन्द्रकान्ता सन्तति - 5
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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...
तीसरा बयान
कैद से छुटकारा मिलने के बाद बीमारी के सबब से यद्यपि भीमसेन को घर जाना पड़ा और वहाँ उसकी बीमारी बहुत जल्द जाती रही, मगर घर में रहने का जो सुख उसको मिलना चाहिए, वह न मिला क्योंकि एक तो माँ के मरने का रंज और गम हद्द से ज्यादे था और अब वह घर काटने को दौड़ता था, दूसरे थोड़े ही दिन बाद बाप के मरने की खबर भी उसे पहुँची, जिससे वह बहुत ही उदास और बेचैन हो गया। इस समय उसके ऐयार लोग भी वहीं मौजूद थे, जो बाहर से दुखदायी खबर लेकर लौट आये थे। पहिले तो उसके ऐयारों ने बहुत समझाया और राजा बीरेन्द्रसिंह से सुलह कर लेने में बहुत सी भलाइयाँ दिखायीं, मगर उस नालायक के दिल में एक भी न बैठी और वह राजा बीरेन्द्रसिंह से बदला लेने तथा किशोरी को जान से मार डालने की कसम खाकर घर से बाहर निकल पड़ा। बाकरअली, खुदाबक्श, अजाबसिंह और यारअली इत्यादि उसके लालची ऐयारों ने भी लाचार होकर उसका साथ दिया।
उबकी दफे भीमसेन ने अपने ऐयारों के सिवाय और किसी को भी साथ न लिया, हाँ, रुपै, अशर्फी या जवाहिरात की किस्म में से जहाँ तक उससे बना, या जो कुछ उसके पास था, लेकर अपने ऐयारों को लालच-भरी उम्मीदों का सब्जबाग दिखाता रवाना हुआ और थोड़ी दूर जाने के बाद ऐयारों के साथ ही उसने अपनी भी सूरत बदल ली।
"राजा बीरेन्द्रसिंह को किस तरह नीचा दिखाना चाहिए और क्या करना चाहिए?" इस विषय पर तीन दिन तक उन लोगों में यह बहस होती रही और अन्त में यह निश्चय किया गया कि राजा बीरेन्द्रसिंह और उनके खानदान तथा आपुसवालों का मुकाबला करने के पहिले उनके दुश्मनों से दोस्ती बढ़ाकर अपना बल पुष्ट कर लेना चाहिए। इस इरादे पर वे लोग कायम भी रहे और माधवी, मायारानी तथा तिलिस्मी दारोगा बगैरह से मुलाकात करने की फिक्र करने लगे।
कई दिनों तक सफर करने और घूमने-फिरने के बाद एक दिन ये लोग दोपहर होते-होते एक घने जंगल में पहुँचे। चार-पाँच घण्टे आराम कर लेना इन लोगों को बहुत जरूरी मालूम हुआ क्योंकि गर्मी के चलाचली का जमाना था और धूप बहुत कड़ी और दुःखदायी थी। मुसाफिरों को तो जाने दीजिए, जंगली जानवरों और आकाश में उड़ने तथा बात-की-बात में दूर-दूर की खबर लानेवाली चिड़ियाओं को भी पत्तों की आड़ से निकलना बुरा मालूम होता था
इस जंगल में एक जगह पानी का झरना भी जारी था और उसके दोनों तरफ पेड़ों को घनाहट के सबब बनिस्बत और जगहों के ठण्ढक ज्यादे थी। ये पाँचों मुसाफिर भी झरने के किनारे पत्थर की साफ चट्टान देखकर बैठ गये और आपुस में इधर-उधर की बातें करने लगे। इसी समय बातचीत की आहट पाने और निगाह दौड़ाने पर इन लोगों की निगाह दस-बारह सिपाहियों पर पड़ी, जिन्हें देख भीमसेन चौंका और उनका पता लगाने के लिए अजायबसिंह से कहा, क्योंकि दोस्तों और दुश्मनों के खयाल से उसका जी एकदम के लिए भी ठिकाने नहीं रहता था और ‘पत्ता खड़का बन्दा भड़का' की कहावत का नमूना बन रहा था।
भीमसेन की आज्ञानुसार अजायबसिंह ने उन आदमियों का पीछा किया और दो घण्टे तक लौटकर न आया। तब दूसरे ऐयारों को भी चिन्ता हुई और वे अजायबसिंह की खोज में जाने के लिए तैयार हुए, मगर इसकी नौबत न पहुँची, क्योंकि उसी समय अजायबसिंह अपने साथ कई सिपाहियों को लिये भीमसेन की तरफ आता दिखायी दिया।
अजायबसिंह के इस तरह आने के पहिले तो सभों को खुटके में डाल दिया, मगर जब अजायबसिंह ने दूर ही से खुशी का इशारा किया, तब सभों का जी ठिकाने हुआ और उसके आने का इन्तजार करने लगे। पास आने पर अजायबसिंह ने भीमसेन से कहा, "इस जंगल में आकर टिक जाना हम लोगों के लिए बहुत अच्छा हुआ, क्योंकि रानी माधवी से मुलाकात हो गयी। आज ही उनका ढेरा भी इस जंगल में आया है। कुबेरसिंह सेनापति और चार-पाँच सौ सिपाही उनके साथ हैं। जिन लोगों का मैंने पीछा किया था, वे भी उन्हीं के सिपाहियों में से थे और ये भी उन्हीं के सिपाहीं हैं, जो मेरे साथ आपको बुलाने के लिए आये हैं।"
माधवी की खबर सुनकर भीमसेन उतना ही खुश हुआ, जितना अजायबसिंह की जुबानी भीमसेन के आने की खबर पाकर माधवी खुश हुई थी। अजायबसिंह की बात सुनते ही भीमसेन उठ खड़ा हुआ और अपने ऐयारों को साथ लिये हुए घड़ी-भर के अन्दर ही अपनी बेहया बहिन माधवी से जा मिला। ये दोनों एक दूसरे को देखकर बहुत खुश हुए, मगर उन दोनों की मुलाकात कुबेरसिंह को अच्छी न मालूम पड़ी, जिसका सबब क्या था सो हमारे पाठक लोग खुद ही समझ सकते हैं।
थोड़ी देर तक भी भीमसेन और माधवी ने कुशल-मंगल पूछने में बिताया। माधवी ने खाने-पीने की चीजें तैयार करने का हुक्म दिया, क्योंकि उसे अपने अनूठे भाई की खातिरदारी आज मंजूर थी और इसलिए बड़ी मुहब्बत के साथ देर तक बातें होती रहीं।
माधवी को इस जंगल में आये आज पाँच दिन हो चुके हैं। पाँचवे दिन दोपहर के समय भीमसेन से मुलाकात हुई थी। उसका (कुबेरसिंह का) ऐयार दुश्मनों की खोज-खबर लगाने के लिये कहीं गया हुआ था, क्योंकि माधवी और कुबेरसिंह ने इस जंगल में पहुँचकर निश्चय कर लिया था कि पहिले दुश्मनों का हाल-चाल मालूम करना चाहिए, इसके बाद जो कुछ मुनासिब होगा, किया जायगा।
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