लोगों की राय

चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: author_hindi

Filename: views/read_books.php

Line Number: 21

निःशुल्क ई-पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

नौवाँ बयान


एक दिन लक्ष्मीदेवी कैद खाने में बैठी अपनी किस्मत पर रो रही थी कि दाहिनी तरफवाली कोठरी में से एक नकाबपोश को निकलते देखा। लक्ष्मीदेवी ने समझा कि यही वही नकाबपोश है, जिसने मेरे बाप का जान बचायी थी, मगर तुरंत ही उसे मालूम हो गया कि यह दूसरा कोई है, क्योंकि उसके और इसके डीलडौल में बहुत फर्क था। जब नकाबपोश जंगले के पास आया, तब लक्ष्मीदेवी ने पूछा, ‘‘तुम कौन हो और यहाँ क्यों आये हो?’’

नकाबपोश : मैं अपना परिचय तो नहीं दे सकता, परन्तु इतना कह सकता हूँ कि बहुत दिनों से मैं इस फिक्र में था कि इस कैदखाने से किसी तरह तुमको निकाल दूँ, मगर मौका न मिल सका, आज उसका मौका मिलने पर यहाँ आया हूँ, बस विलम्ब न करो और उठो।

इतना कहकर नकाबपोश ने जंगला खोल दिया।

लक्ष्मीदेवी : और मेरे पिता?

नकाबपोश : मुझे मलूम नहीं कि वे कहाँ कैद हैं, या किस अवस्था में हैं, यदि मुझे उनका पता लग जायगा तो मैं उन्हें भी छुड़ाऊँगा।

यह सुनकर लक्ष्मीदेवी चुप हो रही और कुछ सोच-विचारकर आँखों से आँसू टपकाती हुई जंगले के बाहर निकली। नकाबपोश उसे साथ लिये हुए उसी कोठरी में घुसा, जिससे वह स्वयं आया था। अब लक्ष्मीदेवी को मालूम हुआ यह एक सुरंग का मुहाना है। बहुत दूर तक नकाबपोश के पीछे जा और कई दरवाजे लाँघकर उसे आसमान दिखायी दिया, और मैदान की ताजी हवा भी मयस्सर हुई। उस समय नकाबपोश ने पूछा, ‘‘कहो अब तुम क्या करोगी और कहाँ जाओगी?’’

लक्ष्मीदेवी : मैं नहीं कह सकती की कहाँ जाऊँगी और क्या करूँगी, बल्कि डरती हूँ कि कहीं फिर दारोगा के कब्जे में न पड़ जाऊँ। हाँ, यदि तुम मेरे साथ कुछ और भी नेकी करो और मुझे घर तक पहुँचाने का बन्दोबस्त कर दो तो अच्छा हो।

नकाबपोश : (ऊँची साँस लेकर) अफसोस, तुम्हारा घर बरबाद हो गया और इस समय वहाँ कोई नहीं है। तुम्हारी दूसरी माँ, अर्थात् तुम्हारी मौसी मर गयी, तुम्हारी दोनों छोटी बहिनें राजा गोपालसिंह के यहाँ आ पहुँची हैं, और मायारानी को जो तुम्हारे बदले में गोपालसिंह के गले मढ़ी गयी है, अपनी सगी बहिन समझकर उसी के साथ रहती हैं।

लक्ष्मीदेवी : मैंने तो सुना था कि मेरे बदले में मुन्दर मायारानी बनायी गयी है।

नकाबपोश : हाँ, वही मुन्दर अब मायारानी के नाम से प्रसिद्ध हो रही है।

लक्ष्मीदेवी : तो क्या मैं अपनी बहिनों से या राजा गोपालसिंह से मिल सकती हूँ?

नकाबपोश : नहीं।

लक्ष्मीदेवी : क्यों?

नकाबपोश : इसलिए कि अभी महीना-भर भी नहीं हुआ कि राजा गोपालसिंह का भी इन्तकाल हो गया। अब तुम्हारी फरियाद सुननेवाला वहाँ कोई भी नहीं है और यदि तुम वहाँ जाओगी और मायरानी को कुछ मालूम हो जायगा तो तुम्हारी जान कदापि न बचेगी।

इतना सुनकर लक्ष्मीदेवी अपनी बदकिस्मती पर रोने लगी और नकाबपोश उसे समझाने-बुझाने लगा। अन्त में लक्ष्मीदेवी ने कहा, ‘‘अच्छा फिर तुम्हीं बताओ कि मैं कहाँ जाऊँ और क्या करूँ?’’

नकाबपोश : (कुछ सोचकर) तो तुम मेरे घर ही चलो, मैं तुम्हें अपनी ही बेटी समझूँगा और परवरिश करूँगा।

लक्ष्मीदेवी : मगर तुम तो अपना परिचय तक नहीं देते!

नकाबपोश : (ऊँची साँस लेकर) खैर, अब तो परिचय देना ही पड़ा और कहना ही पड़ा कि मैं तुम्हारे बाप का दोस्त ‘इन्द्रदेव’ हूँ।

इतना कहकर नकाबपोश ने चेहरे से नकाब उतारी और पूर्ण चन्द्र की रोशनी ने उसके चेहरे के हर एक रग-रेशे को अच्छी तरह दिखा दिया। लक्ष्मीदेवी उसे देखते ही पहचान गयी और दौड़कर उसके पैरों पर गिर पड़ी। इन्द्रदेव ने उठाकर उसका सिर छाती से लगा लिया और तब उसे अपने घर ले आकर गुप्त रीति से बड़ी खातिरदारी के साथ अपने यहाँ रक्खा।

लक्ष्मीदेवी का दिल फोड़े की तरह पका हुआ था। वह अपनी नयी जिन्दगी में तरह-तरह की तकलीफें उठा चुकी थी। अब भी वह अपने बाप को खोज निकालने की फिक्र में लगी हुई थी, और इसके अतिरिक्त उसका ज्यादा खयाल इस बात पर था कि किसी तरह अपने दुश्मनों से बदला लेना चाहिए। इस विषय पर उसने बहुत कुछ विचार किया और अन्त में यह निश्चय किया कि इन्द्रदेव से ऐयारी सीखनी चाहिए, क्योंकि वह खूब जानती थी कि इन्द्रदेव ऐयारी के फन में बड़ा ही होशियार है। आखिर उसने अपने दिल का हाल इन्द्रदेव से कहा और इन्द्रदेव ने भी इसकी राय पसन्द की तथा दिलोजान से कोशिश करके, उसे ऐयारी सिखाने लगा। यद्यपि वह दारोगा का गुरुभाई था, तथापि दारोगा की करतूतों ने उसे हद से ज्यादा रंजीदा कर दिया था और उसे इस बात की कुछ भी परवाह न थी कि लक्ष्मीदेवी ऐयारी के फन में होशियार होकर दारोगा से बदला लेगी। निःसन्देह इन्द्रदेव ने बड़ी मर्दानगी की और दोस्ती का हक जैसा चाहिए था, वैसा ही निबाहा। उसने बड़ी मुस्तैदी के साथ लक्ष्मीदेवी को ऐयारी की विद्या सिखायी, बड़े-बड़े ऐयारों के किस्से सुनाये, एक-से-एक बढ़े-चढ़े नुस्खे सिखलाये, और ऐयार के गूढ़ तत्त्वों को उसके दिल में नक्श (अंकित) कर दिया। थोड़े ही दिनों में लक्ष्मीदेवी पूरी ऐयारी हो गयी और इन्द्रदेव की मदद से अपना नाम तारा रखकर मैदान की हवा खाने और दुश्मनों से बदले लेने की फिक्र में घूमने लगी।

लक्ष्मीदेवी ने तारा बनकर जो-जो काम किया, सब में इन्द्रदेव की राय लेती रही और इन्द्रदेव भी बराबर उसकी मदद और खबरदारी करते रहे।

यद्यपि इन्द्रदेव ने लक्ष्मीदेवी की जान बचायी, उसे अपनी लड़की के समान पालकर सब लायक किया, और बहुत दिनों तक अपने साथ रक्खा, मगर उनके दो-एक सच्चे प्रेमियों के सिवाय लक्ष्मीदेवी का हाल और किसी को मालूम न हुआ, और इन्द्रदेव ने भी किसी को उसकी सूरत तक देखने न दी। इस बीच में पचीसों दफे कमबख्त दारोगा, इन्द्रदेव के घर गया और इन्द्रदेव ने भी अपने दिल का भाव छिपाकर हर तरह से उसकी खातिरदारी की, मगर दारोगा तक को इस बात का पता न लगा कि जिस लक्ष्मीदेवी को मैंने कैद किया था, वह इन्द्रदेव के घर में मौजूद है और इस लायक हो रही है कि कुछ दिनों के बाद हमीं लोगों से बदला ले।

लक्ष्मीदेवी का तारा नाम इन्द्रदेव ही ने रखा था। जब तारा हर तरह से होशियार हो गयी और वर्षों की मेहनत से उसकी सूरत-शक्ल में भी बहुत बड़ा फर्क पड़ गया, तब इन्द्रदेव ने उसे आज्ञा दी कि तू मायारनी के घर जाकर अपनी बहिन कमलिनी से मिल जो बहुत ही नेक और सच्ची है, मगर अपना असली परिचय न देकर उसके साथ मोहब्बत पैदा कर, और ऐसा उद्योग कर कि उसमें और मायारानी में लड़ाई हो जाय और वह उस घर से निकलकर अलग हो जाय, फिर जो कुछ होगा देखा जायगा। केवल इतना ही नहीं, इन्द्रदेव ने उसे एक प्रशंसापत्र भी दिया जिसमें यह लिखा हुआ था– ‘‘मैं तारा को अच्छी तरह जानता हूँ। यह मेरी धर्म की लड़की है। इसकी चालचलन बहुत ही अच्छी है और नेक तथा धार्मिक लोगों के लिए यह विश्वास करने योग्य है।’’

इन्द्रदेव ने तारा को यह भी कह दिया था कि मेरा यह पत्र सिवाय कमलिनी के और किसी को न दिखाइयो और जब इस बात का निश्चय हो जाय कि वह तुझ पर मुहब्बत रखती है, तब उसको एक दफे किसी तरह से मेरे घर ले आइयो, फिर जैसा होगा मैं समझ लूँगा।

आखिर ऐसा ही हुआ अर्थात् तारा इन्द्रदेव के बल पर निडर होकर मायारानी के महल में चली गयी और कमलिनी की नौकरी कर ली। उसे पहिचानना तो दूर रहा, किसी को इस बात का शक भी नहीं कि यह लक्ष्मीदेवी है।

तीन महीने के अन्दर उसने कमलिनी को अपने ऊपर मोहित कर लिया और मायारानी के इतने ऐब दिखाये कि कमलिनी को एक सायत के लिए भी मायारानी के पास रहना कठिन हो गया। जब उसने अपने बारे में तारा में बहुत जोर दिया। कमलिनी ने तारा से राय ली, तब तारा ने उसे इन्द्रदेव से मिलने के लिए कहा और इस बारे में बहुत जोर दिया। कमलिनी ने तारा की बात मान ली और तारा उसे इन्द्रदेव के पास ले आयी। इन्द्रदेव ने कमलिनी की बड़ी खातिर की और जहाँ तक बना पड़ा, उसे उभाड़कर खुद इस बात की प्रतिज्ञा की कि यदि तू मेरा भेद गुप्त रखेगी तो मैं बराबर तेरी मदद करता रहूँगा’।

उन दिनों तालाब के बीचवाला तिलिस्मी मकान बिल्कुल उजाड़ पड़ा हुआ था और सिवाय इन्द्रदेव के उसका भेद किसी को मालूम न था। इन्द्रदेव ही के बताने से कमलिनी ने उस मकान में अपना डेरा डाला और हर तरह से निडर होकर वहाँ रहने लगी और इसके बाद जो कुछ हुआ, हमारे प्रेमी पाठकों को मालूम ही है या हो जायगा।

...Prev | Next...

To give your reviews on this book, Please Login