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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

छठवाँ बयान


जो कुछ हम ऊपर लिख आये हैं, उसके कई दिन बाद जमानिया में दोपहर दिन के समय जब राजा गोपालसिंह भोजन इत्यादि से छुट्टी पाकर अपने कमरे की चारपाई पर लेटे हुए एक-एक करके बहुत चीठियाँ को पढ़-पढ़कर देख रहे थे, उसी समय चोबदार ने भूतनाथ को आने की इत्तिला की। गोपालसिंह ने भूतनाथ के अपने सामने हाजिर करने की आज्ञा दी। भूतनाथ हाजिर हुआ और सलाम करके चुपचाप खड़ा हो गया। उस समय वहाँ पर इन दोनों के सिवाय और कोई न था।

गोपाल : कहो भूतनाथ! अच्छे तो हो, इतने दिन तक कहाँ थे और क्या करते थे?

भूतनाथ आपसे बिदा होकर मैं बड़ी मुसीबत में पड़ गया।

गोपाल : सो क्या!

भूतनाथ : कमलिनीजी के मकान की बर्बादी का हाल तो आपको मालूम ही होगा।

गोपाल : हाँ, मैं सुन चुका हूँ कि कमलिनी के मकान को दुश्मनों ने उजाड़ दिया और उसके यहाँ जो कैदी थे वे भाग गये।

भूतनाथ : ठीक है, तो क्या आप किशोरी, कामिनी और तारा का हाल भी सुन चुके हैं, जो उस मकान में थीं!

गोपाल : उनका खुलासा हाल तो मुझे मालूम नहीं हुआ, मगर इतना सुन चुका हूँ कि अब वे सब कमलिनी के साथ रोहतासगढ़  में जा पहुँची हैं!

भूतनाथ : ठीक है, मगर उन पर कैसी मुसीबत आ पड़ी थी, उसका हाल आपको शायद मालूम नहीं।

गोपाल : नहीं, उसका खुलासा हाल दरियाफ्त करने के लिए मैंने एक आदमी रोहतासगढ़ में ज्योतिषीजी के पास भेजा है और एक पत्र भी लिखा है, मगर अभी तक जवाब नहीं आया है। तो क्या कमलिनी के साथ तुम भी वहाँ गये थे!

भूतनाथ : जी हाँ, मैं कमलिनी के साथ था।

गोपाल : तब तो मुझे सब खुलासा हाल तुम्हारी ही जुबानी मालूम हो सकता है, अच्छा कहो कि क्या-क्या हुआ?

भूतनाथ : मैं सब हाल आपसे कहता हूँ और उसी के बीच में अपनी तबाही और बर्बादी का हाल भी कहता हूँ।

इतना कहकर भूतनाथ ने किशोरी, कमलिनी, लक्ष्मीदेवी, भगवनिया, श्यामसुन्दरसिंह और बलभद्रसिंह का कुल हाल, जो ऊपर लिखा जा चुका है, कहा और इसके बाद रोहतासगढ़किले के अन्दर जो कुछ हुआ था, और कृष्णाजिन्न ने जोकुछ काम किया था, वह सब भी कहा।

पलँग पर खड़े राजा गोपालसिंह भूतनाथ की कुछ बातें सुन गये और जब वह चुप हो गया तो उठकर एक ऊँची गद्दी पर जा बैठे, जो पलँग के पास ही बिछी हुई थी। थोड़ी देर कुछ सोचने के बाद वे बोले, ‘‘हाँ तो इस ढंग से मालूम हुआ कि तारा वास्तव में लक्ष्मीदेवी हैं।’’

भूतनाथ : जी हाँ, मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी।

गोपाल : यह हाल बड़ा ही दिलचस्प है, अच्छा कृष्णाजिन्न की चीठी मुझे दो मैं देखू।

भूतनाथ : (चीठी देकर) आशा है कि इसमें कोई बात मेरे विरुद्ध लिखी हुई न होगी।

गोपाल : (चीठी देखकर) नहीं, इसमें तो तुम्हारी शिफारिश की है और मुझे मदद देने के लिए लिखा है।

भूतनाथ : कृष्णाजिन्न को आप जानते हैं?

गोपाल : वह मेरा दोस्त है, लड़कपन ही से मैं उसे जानता हूँ, उसे मेरे कैद होने की कुछ भी खबर न थी, पाँच-सात दिन हुए हैं, जब वह मुबारकबाद देने के लिए मेरे पास आया था।

भूतनाथ : तो मैं उम्मीद करता हूँ कि इस काम में आप मेरी मदद करेंगे?

गोपाल : हाँ हाँ, मैं इस काम में हर तरह से मदद देने के लिए तैयार हूँ, क्योंकि यह काम वास्तव में मेरा ही काम है, मगर मेरी समझ में नहीं आता कि मैं क्या मदद कर सकूँगा, क्यों कि मुझे इन बातों की कुछ भी खबर न थी और न है।

भूतनाथ : जिस तरह की मदद मैं चाहता हूँ अर्ज करूँगा, मगर उसके पहिले मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप राजा बीरेन्द्रसिंह और कमलिनी इत्यादि से मिलने के लिए रोहतासगढ़  जायेंगे?

गोपाल : जब तक राजा बीरेन्द्रसिंह मुझे न बुलावेंगे, मैं अपनी मर्जी से न जाऊँगा और न मुझे कमलिनी या लक्ष्मीदेवी से मिलने की जल्दी ही है, जब तुम्हारे मुकद्दमें का फैसला हो जायगा, तब जैसा होगा, देखा जायगा।

गोपालसिंह की बात सुनकर भूतनाथ को बड़ा ताज्जुब हुआ, क्योंकि लक्ष्मीदेवी की खबर सुनकर न तो उनके चेहरे पर किसी तरह की खुशी दिखायी दी, और न बलभद्रसिंह का हाल सुनकर उन्हें रंज ही हुआ। कमरे के अन्दर पैर रखते ही भूतनाथ ने जिस भाव में उन्हें देखा था, वैसी ही सूरत में अब भी देख रहा था। आखिर बहुत कुछ सोचने विचारने के बाद भूतनाथ ने कहा, ‘‘अपने खास बाग में मायारानी के कमरे की तलाशी ली थी!’’

गोपाल : तुम भूलते हो। खास बाग के किसी कमरे या कोठरी की तलाशी लेने से काम नहीं चल सकता। या तो तुम हेलासिंह के किसी पक्षपाती को जो उस काम में शरीक रहा हो, गिरफ्तार करो या दारोगा कमबख्त को दुःख देकर पूछो, मगर अफसोस इतना ही है कि दारोगा राजा बीरेन्द्रसिंह के कब्जे में है और उसके बिषय में उनको कुछ लिखना मैं पसन्द नहीं करता।

गोपालसिंह की इस बात से भूतनाथ को और भी आश्चर्य हुआ और उसने कहा, ‘‘तलाशी से मेरा और कोई मतलब नहीं है, मुझे ठीक पता लग चुका है कि मायारानी के पास तस्वीरों की एक किताब थी और उसमें उन लोगों की तस्वीरें थीं, जो इस काम में उसके मददगार थे, बस मेरा मतलब उसी किताब के पाने से है और कुछ नहीं।’’

गोपाल : हाँ ठीक है, मुझे इस प्रकार की एक किताब मिली थी, मगर उस समय मैं बड़े क्रोध में था,. इसलिए कमबख्त नकली मायारनी का असबाब कपड़ा-लत्ता इत्यादि जो कुछ मेरे हाद लगा, उसी में उस तस्वीरवाली किताब को भी रखकर मैंने आग लगा दी, मगर अब मुझे यह जानकर अफसोस होता है कि वह किताब बड़े मतलब की थी।

अब भूतनाथ को निश्चय हो गया कि राजा गोपालसिंह मुझसे बहाना करते हैं, और मेरी मदद करना नहीं चाहते। तब क्या करना चाहिए? इसके लिए भूतनाथ सिर झुकाये कुछ सोच रहा था कि राजा गोपालसिंह ने कहा–

गोपाल : मगर भूतनाथ, मुझे याद पड़ता है कि तस्वीरवाली किताब में तुम्हारी तस्वीर भी थी!

भूतनाथ : शायद हो!

गोपाल : खैर, अब तो वह किताब ही जल गयी, उसके बारे में कुछ भी कहना वृथा है।

भूतनाथ : (उदासी के साथ) मेरी किस्मत, मैं लाचार हूँ। बस मदद के लिए केवल एक ही किताब थी, जिसे पाने की उम्मीद में मैं आप के पास आया था, खैर अब जाता हूँ, जो कुछ हैरानी बदी है, उसे उठाऊँगा और जिस तरह बनेगा असली बलभद्रसिंह का पता लगाऊँगा।

गोपाल : मैं जानता हूँ कि इस समय जमानिया के बाहर होकर तुम कहाँ जाओगे और बलभद्रसिंह का पता क्योंकर लगाओगें। क्या करोगे!

भूतनाथ : (ताज्जुब से) वह क्या?  

गोपाल : बस काशी में मनोरमा का मकान तुम्हारा सबसे पहिला ठिकाना होगा।

भूतनाथ : बस बस ठीक है, आपने खूब समझा और अब मुझे विश्वास हो गया कि इस काम में आप मेरी बहुत कुछ मदद कर सकते हैं, मगर आश्चर्य है कि आप किसी तरह की सहायता नहीं करते।

गोपाल : खैर, अब हम तुमसे साफ-साफ कह देना ही अच्छा समझते हैं। कृष्णाजिन्न से और मुझसे निःसन्देह दोस्ती थी और वह अब भी मुझसे प्रेम रखता है, मगर किसी कारण से मेरी तबीयत उससे खट्टी हो गयी और मैं कसम खा चुका हूँ कि जिस काम में वह पड़ेगा, उसमें मैं दखल न दूँगा, चाहे वह काम मेरे ही फायदे का क्यों न हो या मदद न देने के सबब से मेरा कितना ही बड़ा नुकसान क्यों न हो, या मेरी जान ही क्यों न चली जाय। बस यही सबब है कि मैं तुम्हारी मदद नहीं करता।

भूतनाथ : (कुछ सोचकर) अच्छा तो फिर मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं जाऊँ और बलभद्रसिंह का पता लगाने के लिए उद्योग करूँ।

गोपाल : जाओ, ईश्वर तुम्हारी मदद करे।

भूतनाथ सलाम करके कमरे के बाहर चला गया। उसके जाने के बाद गोपालसिंह को हँसी आयी और उन्होंने आप-ही-आप धीरे-से कहा, ‘‘इसने जरूर सोचा होगा कि गोपालसिंह पूरा बेवकूफ या पागल है!’’

भूतनाथ महल की ड्योढ़ी पर आया जहाँ अपने साथी को छोड़ गया था और उसे साथ लेकर शहर के बाहर निकल गया। जब वे दोनों आदमी मैदान में पहुँचे जहाँ चारों तरफ सन्नाटा था तो भूतनाथ के साथी ने पूछा, ‘‘कहिए राजा गोपालसिंह की मुलाकात का क्या नतीजा निकला?’’

भूतनाथ : कुछ भी नहीं, मैं व्यर्थ ही आया।

आदमी : सो क्या?

भूतनाथ : उन्होंने किसी भी प्रकार की मदद देने से इन्कार कर दिया।

आदमी : बड़े आश्चर्य की बात है, यह काम तो वास्तव में उन्हीं का है।

भूतनाथ : सबकुछ, है मगर...

आदमी : तो क्या लक्ष्मीदेवी का पता लगने से वे खुश नहीं है?

भूतनाथ : मेरी समझ में कुछ नहीं आता कि वे खुश हैं या नाराज, न तो उनके चेहरे पर किसी तरह की खुशी दिखायी दी, न रंज हँसना तो दूर रहा, वे लक्ष्मीदेवी, बलभद्रसिंह, मायारनी और कृष्णाजिन्न का किस्सा सुनकर मुस्कुराये भी नहीं, यद्यपि कई बातें ऐसी थीं कि जिन्हें सुनकर उन्हें अवश्य हँसना चाहिए था।

आदमी : क्या उनके मिजाज में कुछ फर्क पड़ गया है।

भूतनाथ : मालूम तो ऐसा ही होता है, बल्कि मैं तो समझता हूँ कि वे पागल हो गये हैं। जब मैंने उनसे पूछा कि ‘राजा बीरेन्द्रसिंह या लक्ष्मीदेवी से मिलने के लिए आप रोहतासगढ़  जायेंगे’? तो उन्होंने कहा, ‘‘नहीं, जब तक राजा बीरेन्द्रसिंह न बुलावेंगे, मैं न जाऊँगा।’’ भला यह भी कोई बुद्धिमानी की बात है!

आदमी : मालूम होता है, वे सनक गये हैं।

भूतनाथ : या तो वे सनक ही गये हैं और या फिर कोई भारी धूर्तता करना चाहते हैं। खैर जाने दो, इस समय तो भूतनाथ स्वतन्त्र है, फिर जो होगा देखा जायगा। अब मुझे किसी ठिकाने बैठकर अपने आदमियों का इन्तजार करना चाहिए।

आदमी : तब उसी कुटी में चलिए, किसी-न-किसी से मुलाकात हो ही जायगी।

भूतनाथ : (हँसकर) अच्छा देखो तो सही भूतनाथ क्या-क्या करता है और कैसे-कैसे तमाशे दिखाता है।

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