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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

।। सोलहवाँ भाग ।।

 

पहिला बयान

अब हम अपने पाठकों को पुनः जमानिया के तिलिस्म में ले चलते हैं, और इन्दिरा का बचा हुआ किस्सा उसी की जुबानी सुनाते हैं, जिसे छोड़ दिया गया था।

इन्दिरा ने एक लम्बी साँस लेकर अपना किस्सा यों कहना शुरू किया–

जब मैं अपनी माँ की लिखी चीठी पढ़ चुकी तो जी में खुश होकर सोचने लगी कि ईश्वर चाहेगा तो अब मैं बहुत जल्द अपनी माँ से मिलूँगी, और हम दोनों को इस कैद से छुटकारा मिलेगा, अब केवल इतनी ही कसर है कि दारोगा साहब मेरे पास आवें और जोकुछ वे कहें, मैं उसे पूरा कर दूँ। थोड़ी देर तक सोचकर मैंने अन्ना से कहा, ‘‘अन्ना, जोकुछ दारोगा साहब कहें, उसे तुरन्त कहना चाहिए।’’

अन्ना : नहीं बेटी तू भूलती है, क्योंकि इन चालबाजियों को समझने लायक अभी तेरी उम्र नहीं हैं। अगर तू दारोगा के कहे मुताबिक काम कर देगी तो तेरी माँ और साथ ही उसके तू भी मार डाली जायगी, क्योंकि इस में कोई सन्देह नहीं कि दारोगा ने तेरी माँ से जबर्दस्ती यह चीठी लिखवायी है।

मैं : तब तुमने इस चीठी के बारे में यह कैसे कहा कि मैं तेरे लिए खुश खबरी लायी हूँ?

अन्ना : ‘खुशखबरी’ से मेरा मतलब यह न था कि अगर तू दारोगा के कहे मुताबिक काम कर देगी तो तुझे और तेरी माँ को कैद से छुट्टी मिल जायेगी, बल्कि यह थी कि तेरी माँ अभी तक जीती-जागती है, इसका पता लग गया। क्या तुझे यह मालूम नहीं कि स्वयं दारोगा ही ने तुझे कैद किया है?

मैं : यह तो मैं तुझसे खुद कह चुकी हूँ कि दारोगा ने मुझे धोखा देकर कैद कर लिया है।

अन्ना : तो क्या तुझे छोड़ देने से दारोगा की जान बच जायगी? क्या दारोगा साहब इस बात को नहीं समझते कि अगर तू छूटेगी तो सीधे राजा गोपालसिंह के पास चली जायगी, और अपना तथा लक्ष्मीदेवी का भेद उनसे कह देगी?

उस समय दारोगा का क्या हाल होगा।

मैं : ठीक है, दारोगा मुझे कभी न छोड़ेगा।

अन्ना : बेशक, कभी न छोड़ेगा। वह कमबख्त तो अब तक तुझे मार डाले होता, मगर अब निश्चय हो गया है कि उसे तुम दोनों से अपना कुछ मतलब निकालना है, इसलिए अभी तक कैद किये हुए, जिस दिन उसका काम हो जायगा, उसी दिन तुम दोनों को मार डालेगा। जब तक उसका काम नहीं होता, तभी तक तुम दोनों की जान बची है। (चीठी की तरफ इशारा करके) यह चीठी उसने इसी चालाकी से लिखवायी है, जिससे तू उसका काम जल्द कर दे।

मैं : अन्ना, तू सच कहती है, अब मैं दारोगा का काम कभी न करूँगी चाहे जो हो।

अन्ना: अगर तू मेरे कहे मुताबिक करेगी तो निःसन्देह तुम दोनों की जान बच रहेगी, और किसी-न-किसी दिन तुम दोनों को कैद से छुट्टी भी मिल जायगी।

मैं : बेशक जो तू कहेगी, वही मैं करूँगी।

अन्ना : मगर मैं डरती हूँ कि अगर दारोगा तुझे धमकायेगा या मारे-पीटेगा तो तू मार खाने के डर से उसका काम जरूर कर देगी।

मैं : नहीं नहीं, कदापि नहीं, अगर वह मेरी बोटी-बोटी काट कर फेंक दे तो भी मैं तेरे कहे बिना उसका कोई भी काम न करूँगी।

अन्ना : ठीक है मगर साथ ही इसके यह भी कह न दीजियो कि अन्ना कहेगी तो मैं तेरा काम कर दूँगी।

मैं : नहीं, सो तो न कहूँगी, मगर कहूँगी क्या सो तो बताओ?

अन्ना : बस जहाँ तक हो टालमटोल जाइयो, आजकल के वादे पर दो-तीन दिन टाल जाना चाहिए, मुझे आशा है कि इस बीच में हम लोग छूट जायँगे।

सुबह की सुफेदी खिड़कियों में दिखायी देने लगी और दरवाजा खोलकर दारोगा कमरे के अन्दर आता हुआ दिखायी दिया, वह सीधे आकर बैठ गया और बोला, ‘इन्दिरा तू समझती होगी कि दारोगा साहब ने मेरे साथ दगाबाजी की और मुझे गिरफ्तार कर लिया मगर मैं धर्म की कसम खाकर कहता हूँ कि वास्तव में यह बात नहीं है, बल्कि सच तो यों है कि स्वयं राजा गोपालसिंह तेरे दुश्मन हो गये हैं। उन्होंने मुझे हुक्म दिया था कि इन्दिरा को गिरफ्तार करके मार डालो, और उन्हीं की आज्ञानुसार मैं उनके कमरे में बैठा हुआ, और मैं तुझे गिरफ्तार करने की तरकीब सोच रहा था कि यकायक तू आ गयी, और मैंने तुझे गिरफ्तार कर लिया। मैं लाचार हूँ कि राजा साहब का हुक्म टाल नहीं सकता, मगर साथ ही इसके, जब तुझे मारने का इरादा करता हूँ, तो मुझे दया आ जाती है और तेरी जान बचाने की तरकीब सोचने लगता हूँ। तुझे इस बात का ताज्जुब होगा कि गोपालसिंह तेरे दुश्मन क्यों हो गये, मगर मैं यह तेरा शक भी मिटाये देता हूँ। असल बात तो यह है कि राजा साहब को लक्ष्मीदेवी के साथ शादी करना मंजूर न था, जिस खूबसूरत औरत के साथ वह शादी किया चाहते थे, वह विधवा हो चुकी थी और लोगों की जानकारी में उसके साथ शादी नहीं कर सकते थे, इसलिए लक्ष्मीदेवी के बदले में यह दूसरी औरत उलट-फेर कर दी गयी। उनके अनुसार लक्ष्मीदेवी तो मार डाली गयी, मगर उन लोगों को भी चुपचाप मार डालने की आज्ञा राजा साहब ने दे दी जिन्हें यह भेद मालूम हो चुका था या जिनकी बदौलत इस भेद के खुल जाने का डर था। तेरे सबब से भी लक्ष्मीदेवी का भेद अवश्य खुल जाता इसीलिए तू भी उनकी आज्ञानुसार कैद कर ली गयी।’’

गोपाल : (क्रोध से) क्या कमबख्त दारोगा ने तुझे इस तरह समझाया-बुझाया?

इन्दिरा : जी हाँ, और यह बात उसने ऐसे ढंग से अफसोस के साथ कही कि मुझे और मेरी अन्ना को भी थोड़ी देर के लिए उसकी बातों पर पूरा विश्वास हो गया, बल्कि वह उसके बाद भी बहुत देर तक आपकी शिकायत करता रहा।

गोपाल : और मुझे वह बहुत दिनों तक तेरी बदमाशी का विश्वास दिलाता रहा था। अस्तु, अब मुझे मालूम हुआ कि तू मेरा सामना करने से क्यों डरती थी। अच्छा तब क्या हुआ।

इन्दिरा : दारोगा की बात सुनकर अन्ना ने उससे कहा कि जब आपको इन्दिरा पर दया आ रही है तो कोई ऐसी तरकीब निकालिए, जिसमें इस लड़की और इसकी माँ की जान बच जाय।

दारोगा : मैं खुद इसी फिक्र में लगा हुआ हूँ। इसकी माँ को बदमाशों ने गिरफ्तार कर लिया था, मगर ईश्वर की कृपा से वह बच गयी, मैंने उसे उन शैतानों के हाथ से बचा लिया।

अन्ना : मगर वह भी लक्ष्मीदेवी को पहिचानती है, और उसकी बदौलत लक्ष्मीदेवी का भेद खुल जाना सम्भव है।

दारोगा : हाँ, ठीक है, मगर इसके लिए भी मैंने एक बन्दोबस्त कर लिया है।

अन्ना : वह क्या?

दारोगा : (एक चीठी दिखाकर) देख सर्यू से मैंने यह चीठी लिखवा ली है, पहिले इसे पढ़ ले।

मैंने और अन्ना ने वह चीठी पढ़ी। उसमें यह लिखा हुआ था–‘‘मेरी प्यारी लक्ष्मीदेवी मुझे इस बात का बड़ा अफसोस है कि तेरे ब्याह के समय मैं न आ सकी! इसका बहुत बड़ा कारण है, जो मुलाकात होने पर तुमसे कहूँगी, मगर अपनी बेटी इन्दिरा की जुबानी यह सुनकर मुझे बड़ी खुशी हुई कि वह ब्याह के समय तेरे पास थी, बल्कि ब्याह होने के एक दिन बाद तक तेरे साथ खेलती रही।’’

जब मैं चीठी पढ़ चुकी तो दारोगा ने कहा कि बस अब तू भी एक चीठी लक्ष्मीदेवी के नाम से लिख दे, और उसमें यह लिख कि मुझे इस बात का रंज है कि तेरी शादी होने के बाद एक दिन से ज्यादे मैं तेरे पास न रह सकी, मगर मैं तेरी उस छवि को नहीं भूल सकती जो ब्याह के दूसरे दिन देखी थी। मैं ये दोनों चीठियाँ राजा गोपालसिंह को दूँगा और तुम दोनों को छोड़ देने के लिए उनसे जिद्द करके उन्हें समझा दूँगा कि अब सर्यू और इन्दिरा की जुबानी लक्ष्मीदेवी का भेद कोई नहीं सुन सकता, अगर ये दोनों कुछ कहेंगी तो इन चीठियों के मुकाबिले में स्वयं झूठी बनेंगी’

मैंने दारोगा की बातों का यह जवाब दिया कि बात तो आपने बहुत ठीक कही, अच्छा मैं आपके कहे मुताबिक चीठी कल लिख दूँगी।

दारोगा : यह काम देर करने का नहीं है, इसमें जहाँ तक जल्दी करोगी, तहाँ तक तुम्हें छुट्टी जल्दी मिलेगी।

मैं : ठीक है, मगर इस समय मेरे सर में बहुत दर्द है, मुझसे एक अक्षर भी न लिखा जायगा।

दारोगा : अच्छा, क्या हर्ज है, कल सही।

इतना कहकर दारोगा कमरे के बाहर चला गया और फिर मुझसे और अन्ना में बातचीत होने लगी। मैंने अन्ना से कहा, ‘‘क्यों अन्ना, तू क्या समझती है? मुझे तो दारोगा की बात सच जान पड़ती है।’’

अन्ना : (कुछ सोचकर) जैसी चीठी दारोगा तुमसे लिखाया चाहता है, वह केवल इस योग्य ही नहीं कि यदि राजा गोपालसिंह दोषी हैं, तो लोकनिन्दा से उनको बचावे, बल्कि वह चीठी बनिस्बत उनके, दारोगा के काम की ज्यादे होगी, अगर यह स्वयं दोषी है तो।

मैं : ठीक है, मगर ताज्जुब की बात है कि जो राजा साहब मुझे अपनी लड़की से बढ़कर मानते थे, वे ही मेरी जान के ग्राहक बन जायँ।

मैं : अच्छा तो अब क्या करना चाहिए?

अन्ना : (कुछ सोचकर) चीठी तो कभी न लिखनी चाहिए चाहे राजा गोपालसिंह दोषी हों या दारोगा दोषी हो, इसमें कोई सन्देह नहीं कि चीठी लिख देने के बाद तू मार डाली जायेगी।

अन्ना की बात सुनकर मैं रोने लगी और समझ गयी कि अब मेरी जान नहीं बचती और ताज्जुब नहीं कि दारोगा के मतलब की चीठी लिख देने के कारण मेरी माँ, इस दुनिया, से उठा दी गयी हो। थोड़ी देर तक अन्ना ने मेरे रोने में साथ दिया, लेकिन इसके बाद उसने अपने को सम्हाला और सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए। कुछ देर के बाद अन्ना ने मुझसे कहा कि ‘बेटी मुझे कुछ आशा हो रही है कि हमलोगों को इस कैदखाने से निकल जाने का रास्ता मिल जायगा। मैं पहिले कह चुकी हूँ और अब भी कहती हूँ कि रात को (कोठरी की तरफ इशारा करके) इस कोठरी से सर पर से गठरी फेंक देने की तरह धमाके की आवाज सुनकर मैं जाग उठी थी और जब उस कोठरी में गयी तो वास्तव में एक कोठरी में एक गठरी पर निगाह पड़ी। अब जो मैं सोचती हूँ तो विश्वास होता है कि कोठरी में कोई ऐसा दरवाजा जरूर है, जिसे खोलकर बाहरवाला उस कोठरी में आ सके या उसमें से बाहर जा सके। इसके अतिरिक्त इस कोठरी में भी तख्तेबन्दी की दीवार है, जिससे कहीं-न-कहीं दरवाजा होने का शक हरएक ऐसे आदमी को हो सकता है, जिस पर हमारी तरह मुसीबत आयी हो। अस्तु, आज का दिन तो किसी तरह काट ले रात को मैं दरवाजा ढूँढ़ने का उद्योग करूँगी।

अन्ना की बातों से मुझे भी कुछ ढाढस हुई। थोड़ी देर बाद कमरे का दरवाजा खुला और कई तरह की चीजें लिये हुए तीन आदमी कमरे के अन्दर जा पहुँचे। एक के हाथ में पानी का भरा हुआ घड़ा, लोटा और गिलास था, दूसरा कपड़े की गठरी लिये हुए था, तीसरे के हाथ में खाने की चीजें थीं। तीनों ने सब चीजें कमरे में रख दीं और पहले की रक्खी हुई चीजें और चिरागदान वगैरह उठा ले गये और जाती समय कह गये कि तुम लोग स्नान करके खाओ-पीओ, तुम्हारे मतलब की सब चीजें मौजूद है।

ऐसी मसीबत में खाना-पीना किसे सूझता है, परन्तु अन्ना के समझाने बुझाने से जान बचाने कि लिए सबकुछ करना पड़ा। तमाम दिन बीत गया, सन्धया होने पर फिर हमारे कमरे के अन्दर खाने-पीने का सामान पहुँचाया गया और चिराग भी जलाया गया, मगर रात को हम दोनों ने कुछ न खाया।

कैदखाने से निकल भागने की धुन में हम लोगों को नींद बिल्कुल न आयी। शायद आधी रात बीती होगी, जब अन्ना ने उठकर कमरे का वह दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया, जिस राह से वे लोग आये थे, और इसके बाद मुझे उठने और अपने साथ उस कोठरी के अन्दर चलने के लिए कहा, जिसमें से कपड़े की गठरी और माँ के हाथ से लिखी हुई चीठी मिली थी। मैं उठ खड़ी हुई और अन्ना के पीछे चली। अन्ना ने चिराग हाथ में उठा लिया और धीरे-धीरे कदम रखती हुई कोठरी के अन्दर गयी। मैं पहिले बयान कर चुकी हूँ कि उसके अन्दर तीन कोठरियाँ थीं, एक में पाखाना बना हुआ था और दो कोठरियाँ खाली थीं। उन दोनों कोठरियों के चारों तरफ की दीवारें भी तख्तों की थीं। अन्ना हाथ में चिराग लिये एक कोठरी के अन्दर गयी और उन लकड़ीवाली दीवारों को गौर से देखने लगी। मालूम होता था कि दीवार कुछ पुराने जमाने की बनी हुई है क्योंकि लकड़ी के तख्ते खराब हो गये थे, और तख्तों को घुन ने ऐसा बरबाद कर दिया था कि एक कमजोर लात खाकर भी उनका बच रहना कठिन जान पड़ता था। यह सबकुछ था, मगर जैसाकि देखने में वह खराब और कमजोर मालूम होती थी, वैसी वास्तव में न थीं, क्योंकि दीवार की लकड़ी पाँच या छः अंगुल से कम मोटी न होगी, जिसमे से सिर्फ अंगुल डेढ-अंगुल के लगभग घुनी हुई थी। अन्ना ने चाहा कि लात मारकर एक दो तख्तों को तोड़ डाले मगर ऐसा न कर सकी।

हम दोनों आदमी बड़े गौर से चारों तरफ की दीवार को देख रहे थे कि यकायक एक छोटे-से-कपड़े पर अन्ना की निगाह पड़ी, जो लकड़ी के दो तख्तों के बीच फँसा हुआ था। वह वास्तव में एक छोटा-सा रूमाल था, जिसका आधा हिस्सा तो दीवार के उस पार था और आधा हिस्सा हम लोगों की तरफ था। उस कपड़े को अच्छी तरह देखकर अन्ना ने मुझे कहा, ‘‘बेटी, देख यहाँ एक दरवाजा अवश्य है। (हाथ से निशान बताकर) यह चारो तरफ की दरार साफ बता रही है। कोई आदमी इस तरफ आया है, मगर लौट के जाती दफे, जब उसने दरवाजा बन्द किया तो उसका रुमाल इसमें फँसकर रह गया, शायद अँधेरे में उसने इस बात का खयाल न किया हो और देख इस कपड़े के फँस जाने के कारण दरवाजा भी अच्छी तरह बैठा नहीं है, ताज्जुब नहीं कि दरवाजा खटके पर बन्द होता हो और तख्ता अच्छी तरह न बैठने के कारण खटका भी बन्द न हुआ हो।’’

वास्तव में जो कुछ अन्ना ने कहा वही बात थी, क्योंकि जब उसने उस रूमाल को अच्छी तरह पकड़ कर अपनी तरफ खैंचा तो उसके साथ लकड़ी का तख्ता भी खिंचकर हम लोगों की तरफ चला आया और दूसरी तरफ जाने का रास्ता निकल आया। हम दोनों आदमी उस तरफ चले गये और कमरे में पहुँचे। उस लकड़ी के तख्ते में जो पेंच पर जड़ा हुआ था, और जिसे हटाकर हम लोग उस पार चले गये थे, दूसरी तरफ पीतल का एक मुट्ठा लगा हुआ था, अन्ना ने उसे पकड़कर खैंचा और वह दरवाजा जहाँ-का-तहाँ खट से बैठ गया। अब हम दोनों आदमी जिस कमरें में पहुँचे वह बहुत बड़ा था। सामने की तरफ एक छोटा-सा दरवाजा नजर आया और उसके पास जाने पर मालूम हुआ कि नीचे उतर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। दाहिनी और बायीं तरफ की दीवार में छोटी-छोटी कई खिड़कियाँ बनी हुईं थी, दाहिनी तरफ की खिड़कियों में से एक खिड़की कुछ खुली हुई थी, मैंने और अन्ना ने उसमें झाँककर देखा तो एक मरातिब नीचे छोटा-सा चौक नजर आया, जिसमें साफ-सुथरा फर्श लगा हुआ था, ऊँची गद्दी पर कमबख्त दारोगा बैठा हुआ था, उसके आगे एक शमादान जल रहा था और उसके पास ही में एक आदमी कलम-दवात और कागज लिये बैठा हुआ था।

हम दोनों आदमी दारोगा की सूरत देखते ही चौंके और डरकर पीछे हट गये। अन्ना ने धीरे से कहा, ‘‘यहाँ भी वही बला नजर आती है, कहीं ऐसा न हो वह कमबख्त हम लोगों को देख ले या ऊपर चढ़ आवे।’’

इतना कहकर अन्ना सीढ़ी की तरफ चली गयी और धीरे-से-सीढ़ी का दरवाजा खैंचकर जंजीर चढ़ा दी। वह चिराग जो अपने कमरे में से लेकर यहाँ तक आये थे एक कोने में रखकर हम दोनों फिर उसी खिड़की के पास गये और नीचे की तरफ झाँककर देखने लगे कि दारोगा क्या कर रहा है। दारोगा के पास जो आदमी बैठा था, उसने एक लिखा हुआ कागज हाथ में उठाकर दारोगा से कहा, ‘‘जहाँ तक मुझसे बन पड़ा मैंने इस चीठी के बनाने में बड़ी मेहनत की।’’

दारोगा : इसमें कोई शक नहीं कि तुमने ये अक्षर बहुत अच्छे बनाये है और इन्हें देखकर कोई यकायक नहीं कह सकता कि यह सर्यू का लिखा हुआ नहीं है। जब मैंने वह पत्र इन्दिरा को दिखाया तो उसे भी निश्चय हो गया कि यह उसकी माँ के हाथ का लिखा हुआ है, मगर जो मालूम पड़ता है। इन्दिरा लड़की है, वह इस बात को नहीं समझ सकती, मगर इन्द्रदेव जब इस पत्र को देखेगा तो जरूर पहिचान जायगा कि सर्यू के हाथ का लिखा नहीं है बल्कि बनाया गया है।

आदमी : ठीक है, अच्छा तो मैं इसके बनाने में एक दफे और मेहनत करूँगा, क्या करूँ सर्यू की लिखावट ही ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी है कि ठीक नकल नहीं उतरती, तिसमें इस चीठी में कई अक्षर ऐसे लिखने पड़े जोकि मेरे देखे हुए नहीं हैं, केवल अन्दाज से लिखे हैं।`

दारोगा : ठीक है, ठीक है, इसमें कोई शक नहीं कि तुमने बड़ी सफाई से इसे बनाया है, खैर एक दफे और मेहनत करो, मुझे आशा है अबकी दफे बहुत ठीक हो जायगा। (लम्बी साँस लेकर) क्या कहें विश्वास नहीं होता यद्यपि कल मैं उसे दिलासा दूँगा, अगर समझो नहीं तो तुम्हें पुनः मेहनत करनी पड़ेगी। सर्यू और इन्दिरा ने मेरे कहे मुताबिक चीठी लिख दी तो मैं बहुत जल्द उन दोनों को मारकर बखेड़ा तै करूँगा। क्योंकि मुझे गदाधरसिंह (भूतनाथ) का डर बराबर बना रहता है, वह सर्यू और इन्दिरा की खोज में लगा हुआ है और उसे घड़ी-घड़ी मुझी पर शक होता है। यद्यपि मैं उससे कसम खाकर कह चुका हूँ कि मुझे दोनों का हाल कुछ भी मालूम नहीं है मगर उसे विश्वास नहीं होता। क्या करूँ, लाखों रुपये दे देने पर भी मैं उसकी मुट्ठी में फँसा हूँ, यदि उसे जरा भी मालूम हो जायगा कि सर्यू और इन्दिरा को मैंने कैद कर रक्खा है तो बड़ा ही उधम मचावेगा और मुझे बर्बाद किये बिना न रहेगा।

आदमी : गदाधरसिंह तो मुझे आज भी मिला था।

दारोगा : (चौंककर) क्या वह फिर इस शहर में आया है! मुझसे तो कह गया था कि मैं दो-तीन महीने के लिये जाता हूँ, मगर वह तो दो-तीन दिन भी गैरहाजिर न रहा।

आदमी : वह बड़ा शैतान है, उसकी बातों का कुछ भी विश्वास नहीं हो सकता, और इसका जानना तो बड़ा ही कठिन है कि वह क्या करता है, क्या करेगा या किस धुन में लगा हुआ है।

दारोगा : अच्छा तो मुलाकात होने पर उससे क्या-क्या बात हुई?

आदमी : मैं अपने घर की तरफ जा रहा था कि उसने पीछे से आवाज दी, ‘‘ओ रघुबरसिंह ओ जैपालसिंह!’’* (* जैपालसिंह, बालसिंह और रघुबरसिंह ये सब नाम उसी नकली बलभद्रसिंह के हैं।)

दारोगा : बड़ा ही बदमाश है, किसी का अदब-लेहाज करना तो जानता ही नहीं! अच्छा तब क्या हुआ!

रघुबर : उसकी आवाज सुनकर मैं रुक गया, जब वह पास आया तो बोला, ‘‘आज आधी रात के समय मैं दारोगा साहब से मिलने जाऊँगा, उस समय तुम्हें भी वहाँ मौजूद रहना चाहिए।’’ बस इतना कहकर चला गया।

दारोगा : तो इस समय वह आता ही होगा!

रघुबर : जरूर आता होगा।

दारोगा : कमबख्त ने नाकों दम कर दिया है।

इतने ही में बाहर से घण्टी बजने की आवाज आयी, जिसे सुन दारोगा ने रघुबरसिंह से कहा, ‘‘देखो दरबान क्या कहता है, मालूम होता है गदाधरसिंह आ गया।’’

रघुबरसिंह उठकर बाहर गया और थोड़ी ही देर में गदाधरसिंह को अपने साथ लिये हुए दारोगा के पास आया। गदाधरसिंह को देखते ही दारोगा उठ खड़ा हुआ और बड़ी खातिरदारी और तपाक के साथ मिलकर उसे अपने पास बैठाया।

दारोगा : (गदाधरसिंह से) आप कब आये!

गदाधर : मैं गया कब और कहाँ था!

दारोगा : आप ही ने न कहा था कि मैं दो-तीन महीने के लिए कहीं जा रहा हूँ।

गदाधर : हाँ, कहा तो था, मगर एक बहुत बड़ा सबब आ पड़ने से लाचार होकर रुक जाना पड़ा।

दारोगा : क्या वह सबब मैं भी सुन सकता हूँ।

गदाधर : हाँ हाँ, आपही के सुनने लायक तो वह सबब है, क्योंकि उसके कर्ता-धर्ता भी आप ही हैं।

दारोगा : तो जल्द कहिए।

गदाधर : जीते-ही-जीते एक आदमी ने मुझे निश्चय दिलाया कि सर्यू और इन्दिरा आपही के कब्जे में हैं, अर्थात् आपही ने उन्हें कैद करके कहीं छिपा रक्खा है।

दारोगा : (अपने दोनों कानों पर हाथ रखके) राम राम! किस कमबख्त ने मुझ पर यह कलंक लगाया? नारायण नारायण! मेरे दोस्त, मैं तुम्हें कई दफे कसमें खाकर कह चुका हूँ कि सर्यू और इन्दिरा के विषय में कुछ भी नहीं जानता, मगर तुम्हें मेरी बातों का विश्वास ही नहीं होता।

गदाधर : न मेरी बातों पर आपको विश्वास करना चाहिए, और न आपकी कही हुई बातों को मैं ही ब्रह्मवाक्य समझ सकता हूँ बात यह है कि इन्द्रदेव को मैं अपने सगे भाई से बढ़के समझता हूँ, चाहें मैं आपसे रिश्वत लेकर बुरा काम क्यों न किया हो, मगर अपने दोस्त इन्द्रदेव को किसी तरह का नुकसान पहुँचने न दूँगा। आप सर्यू और इन्दिरा के बारे में बार-बार कसम खाकर अपनी सफाई दिखाते हैं और मैं जब उन लोगों के बारे में तहकीकात करता हूँ, तो बार-बार यही मालूम पड़ता है कि वे दोनों आपके कब्जे में हैं अस्तु, आज मैं एक आखिरी बात आपसे कहने आया हूँ, अबकी दफे आप खूब अच्छी तरह समझ-बूझकर जवाब दें।

दारोगा : कहो कहो, क्या कहते हो? मैं सब तरह से तुम्हारी दिलजमई करा दूँगा...

गदाधर : आज मैं इस बात का निश्चय करके आया हूँ कि इन्दिरा और सर्यू का हाल आपको मालूम है। अस्तु, साफ-साफ कहे देता हूँ कि यदि वे दोनों आपके कब्जे में हों तो ठीक-ठीक बता दीजिए, उनको छोड़ देने पर इस काम के बदले में जोकुछ आप कहें मैं करने को तैयार हूँ, लेकिन यदि आप इस बात से इनकार करेंगे और पीछे साबित होगा कि आपही ने उन्हें कैद किया था, तो मैं कसम खाकर कहता हूँ कि सबसे बढ़कर बुरी मौत जो कही जाती है, वही आपके लिए कायम की जायगी।

दारोगा : जरा जुबान सम्हालकर बात करो। मैं तो दोस्ताना ढंग पर नरमी के साथ तुमसे बातें करता हूँ और तुम तेज हुए जाते हो?

गदाधर : जी, मैं आपके दोस्ताना ढंग को अच्छी तरह समझता हूँ, अपनी कसमों का विश्वास तो उसे दिलाए, जो आपको केवल बाबाजी समझता हो! मैं तो आपको पूरा झूठा बेईमान और विश्वासघाती समझता हूँ, और आपका कोई हाल मुझसे छिपा हुआ नहीं है। जब मैंने कलमदान आपको वापस किया था, तब आपने कसम खायी थी कि तुम्हारे और तुम्हारे दोस्तों के साथ कभी किसी तरह की बुराई न करूँगा, मगर फिर भी आप चालबाजी करने से बाज न आये!

दारोगा : यह सबकुछ ठीक है, मगर मैं जब एक दफे कह चुका कि सर्यू और इन्दिरा का हाल मुझे कुछ भी मालूम नहीं है, तब तुम्हें अपनी बात पर ज्यादे खींचतान न करना चाहिए। हाँ, अगर तुम इस बात को साबित कर सको तो जो कुछ कहो मैं जुर्माना देने के लिए तैयार हूँ, यों अगर बेफायदे का तकरार बढ़ाकर लड़ने का इरादा हो तो बात ही दूसरी है। इसके अतिरिक्त अब तुम्हें जो कुछ कहना हो, उसको खूब सोच-समझकर कहो कि तुम किसके मकान में और कितने आदमियों को साथ लेकर आये हो।

इतना कहकर इन्दिरा रुक गयी और एक लम्बी साँस लेकर उसने राजा गोपालसिंह और दोनों कुमारों से कहा–

गदाधरसिंह और दारोगा में इस ढंग की बात हो रही थी और हम दोनों खिड़की में से सुन रहे थे। मुझे यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि गदाधरसिंह हम दोनों माँ-बेटियों को छुड़ाने की फिक्र में लगा हुआ है। मैं अन्ना के कान में मुँह लगाके कहा कि देख अन्ना दारोगा हम लोगों के बारे में कितना झूठ बोल रहा है! नीचे उतर जाने के लिए रास्ता मौजूद ही है, चलों हम दोनों आदमी नीचे पहुँचकर गदाधरसिंह के सामने खड़े हो जाँय। अन्ना ने जवाब दिया कि मैं भी यही सोच रही हूँ, मगर इस बात का खयाल है कि अकेला गदाधरसिंह हम लोगों को किस तरह छुड़ा सकेगा, कहीं ऐसा न हो कि हम लोगों को अपने सामने देखकर दारोगा गदाधरसिंह को भी गिरफ्तार कर ले, फिर हमारा छुड़ाने वाला कोई भी न रहेगा! अन्ना नीचे उतरने से हिचकती थी, मगर मैं उसकी बात न मानी, आखिर लाचार होकर मेरा हाथ पकड़े हुए वह नीचे उतरी और गदाधरसिंह के पास खड़ी होकर बोली, ‘‘दारोगा झूठा है, इस लड़की को इसी ने कैद कर रक्खा है और इसकी माँ को भी न मालूम कहाँ छिपाये हुए हैं।’’

मेरी सूरत देखते ही दारोगा का चेहरा पीला पड़ गया और गदाधरसिंह की आँखें मारे क्रोध के लाल हो गयीं। गदाधरसिंह ने दारोगा से कहा, ‘‘क्यों बे हमराजदे के बच्चे! क्या अब भी तू अपनी कसमों पर भरोसा करने के लिए मुझसे कहेगा!!’’

गदाधरसिंह की बातों का दारोगा ने कुछ भी जवाब न दिया और इधर-उधर झाँकने लगा। इत्तिफाक से वह कलमदान भी उसी जगह पड़ा हुआ था, जिसके ऊपर मेरी तस्वीर थी, और जो गदाधरसिंह ने रिश्वत लेकर दारोगा को दे दिया था। दारोगा असल में यह देख रहा था कि गदाधरसिंह की निगाह उस कलमदान पर तो नहीं पड़ी, मगर वह कलमदान गदाधर की नजरों से दूर न था। अस्तु, उसने दारोगा की अवस्था देखकर कलमदान फुर्ती के साथ उठा लिया और दूसरे हाथ से तलवार खींचकर सामने खड़ा हो गया। उस समय दारोगा को विश्वास हो गया कि उसकी जान किसी तरह नहीं बच सकती। यद्यपि रघुबरसिंह उसके साथ बैठा हुआ था, मगर वह इस बात को खूब जानता था कि हमारे ऐसे दस आदमी भी गदाधरसिंह को काबू में नहीं कर सकते, इसलिए उसने मुकाबिला करने की हिम्मत न की और अपनी जगह से उठकर भागने लगा, परन्तु जा न सका, गदाधरसिंह ने उसे ऐसी लात जमायी की वह धम्म से जमीन पर गिर पड़ा और बोला, ‘‘मुझे क्यों मारते हो, मैंने क्या बिगाड़ा है? मैं तो खुद यहाँ से चले जाने के लिए तैयार हूँ!’’

गदाधरसिंह ने कलमदान कमर में खोंसकर कहा, ‘‘मैं तेरे भागने को खूब समझता हूँ, तू अपनी जान बचाने की नीयत से नहीं भागता, बल्कि बाहर पहरेवाले सिपाहियों को होशियार करने के लिए भागता है। खबरदार अपनी जगह से हिलेगा तो अभी भुट्टे की तरह तेरा सर उड़ा दूँगा। (दारोगा से) बस अगर अब तुम भी अपनी जान बचाया चाहते हो तो चुपचाप बैठे रहो!’’

गदाधरसिंह की डपट से दोनों हरामखोर जहाँ-के-तहाँ रह गये, अपनी जगह से हिलने या मुकाबिला करने की हिम्मत न पड़ी। हम दोनों को साथ लिए हुए गदाधरसिंह उस मकान के बाहर निकल आया। दरवाजे पर कई पहरेदार सिपाही मौजूद थे, मगर किसी ने रोक-टोक न की और हमलोग तेजी के साथ कदम बढ़ाते हुए उस गली के बाहर निकल गये। उसी समय मालूम हुआ कि हम लोग जमानिया के बाहर नहीं हैं।

गली के बाहर निकलकर जब हम लोग सड़क पर पहुँचे तो दो घोड़ों का एक रथ और सवार दिखाई पड़े। गदाधरसिंह ने मुझको और अन्ना को रथ पर सवार कराया और आप भी उसी रथ पर बैठ गया। ‘हूँ’ करने के साथ ही रथ तेजी के साथ रवाना हुआ और पीछे-पीछे दोनों सवार भी घोड़ा फेंकते हुए जाने लगे।

उस समय मेरे दिल में दो बातें पैदा हुईं, एक तो यह कि गदाधरसिंह ने दारोगा को जीता हुआ क्यों छोड़ दिया, दूसरे यह कि हम लोगों को राजा गोपालसिंह के यहाँ न ले जाकर कहीं और क्यों लिए जाता है! मगर मुझे इस विषय में कुछ पूछने की आवश्यकता न पड़ी क्योंकि शहर के बाहर निकल जाने पर गदाधसिंह ने मुझसे स्वयं कहा, ‘‘बेटी इन्दिरा, नि:सन्देह कमबख्त दारोगा ने तुझे बड़ा कष्ट दिया होगा और तू सोचती होगी की मैंने दारोगा को जीता क्यों छोड़ दिया तथा तुझे राजा गोपालसिंह के पास न ले जाकर, आपने घर क्यों लिए जाता हूँ। अस्तु, मैं इसका जवाब इसी समय दे देना उचित समझता हूँ। दारोगा को मैंने इसलिए जीता छोड़ दिया कि अभी तेरी माँ का पता लगाना है, और निःसन्देह वह भी दारोगा ही के कब्जे में है, जिसका पता मुझे लग चुका है, तथा राजा साहब के पास मैं तुझे इसलिए नहीं ले गया कि महल में बहुत से आदमी ऐसे हैं, जो दारोगा के मेली हैं, राजा गोपालसिंह तथा मैं भी उन्हें नहीं जानता। ताज्जुब नहीं कि तू फिर वहाँ पहुँचने पर किसी मुसीबत में पड़ जाये।’’

मैं : आपका सोचना बहुत ठीक है, मेरी माँ भी महल से गायब हो गयी थी। तो क्या आप इस बात की भी खबर राजा गोपालसिंह को नहीं करेंगे?

गदाधर : राजा साहब को इस मामले की खबर जरूर की जायगी, मगर अभी नहीं।

मैं : तब कब?

गदाधर : जब तेरी माँ को भी कैद से छुड़ा लूँगा तब। हाँ, अब तू अपना हाल कह दारोगा ने तुझे कैसे गिरफ्तार कर लिया, और यह दाई तेरे पास कैसे पहुँची?

मैं अपना और अपनी अन्ना का किस्सा शुरू से आखीर तक पूरा-पूरा कह गयी, जिसे सुनकर गदाधर का बचा-बचाया शक भी जाता रहा, और उसे निश्चय हो गया कि मेरी माँ भी दारोगा ही के कब्जे में है।    

सवेरा हो जाने पर हम लोग सुस्ताने और घोड़ो को आराम देने के लिए एक जगह कुछ देर तक ठहरे, और फिर उसी रथ पर सवार हो रवाना हुए। दोपहर होते-होते हम लोग एक ऐसी जगह पहुँचे, जहाँ दो पहाड़ियों की तलहटी (उपत्यका) एक साथ मिली थी। वहाँ सभों को सवारी छोड़ कर पैदल चलना पड़ा। मैं यह नहीं जानती थी कि सवारी, साथ वाले और घोड़े किधर रवाना किए गये, या उनके लिए अस्तबल कहाँ बना हुआ था। मुझे और अन्ना को घुमाता और चक्कर देता हुआ गदाधरसिंह पहाड़ के दर्रे में ले गया, जहाँ एक छोटा सा मकान अनगढ़ पत्थर के ढोकों से बना हुआ था, कदाचित् वह गदाधरसिंह का अड्डा हो। वहाँ उसके कई आदमी थे, जिनकी सूरत आज तक मुझे याद है। अब जो मैं विचार करती हूँ, तो यही कहने की इच्छा होती है कि वे लोग बदमाशी, बेरहमी और डकैती के साँचे में ढले हुए थे तथा उनकी सूरत-शक्ल और पोशाक की तरफ ध्यान देने से डर मालूम होता था।

वहाँ पहुँचकर गदाधरसिंह ने मुझसे और अन्ना से कहा कि तुम दोनों बेखौफ होकर कुछ दिन तक आराम करो, मैं सर्यू को छुड़ाने की फिक्र में जाता हूँ, जहाँ तक होगा बहुत जल्द लौट आऊँगा। तुम दोनों को किसी तरह की तकलीफ न होगी, खाने-पीने का सामान यहाँ मौजूद ही है, और जितने आदमी यहाँ हैं, सब तुम्हारी खिदमत करने को तैयार हैं, इत्यादि बहुत-सी बातें गदाधरसिंह ने हम दोनों को समझायीं और अपने आदमियों से भी बहुत देर तक बातें करता रहा। दो पहर दिन और तमाम रात गदाधरसिंह वहाँ रहा, तथा सुबह के वक्त फिर हम दोनों को समझाकर जमानिया की तरफ रवाना हो गया।

मैं तो समझती थी कि अब मुझे पुनः किसी तरह की मुसीबत का सामना नहीं करना पड़ेगा और मैं गदाधरसिंह की बदौलत अपनी माँ तथा लक्ष्मीदेवी से भी मिलकर सदा के लिए सुखी हो जाऊँगी, मगर अफसोस मेरी मुराद पूरी न हुई, और उस दिन के बाद फिर मैंने गदाधरसिंह की सूरत भी न देखी। मैं नहीं कह सकती कि वह किसी आफत में फँस गया या रुपये की लालच ने उसे हम लोगों का दुश्मन बना दिया। इसका असल हाल उसी की जुबानी मालूम हो सकता है– यदि वह अपना हाल ठीक-ठीक कह दे तो। अस्तु, अब मैं यह बयान करती हूँ कि उस दिन के बाद मुझ पर क्या मुसीबते गुजरीं और मैं अपनी माँ के पास क्योंकर पहुँची।

गदाधरसिंह के चले जाने के बाद आठ दिन तक तो मैं बेखौफ बैठी रही, पर नौवें दिन से मेरी मुसीबतों की घड़ी फिर शुरू हो गयी। आधी रात का समय था, मैं और अन्ना एक कोठरी में सोयी हुईं थीं, यकायक किसी की आवाज सुनकर हम दोनों की आँखें खुल गयीं और तब मालूम हुआ कि कोई दरवाजे के बाहर किवाड़ खटखटा रहा है। अन्ना ने उठकर दरवाजा खोला तो पण्डित मायाप्रसाद पर निगाह पड़ी। कोठरी के अन्दर चिराग जल रहा था और मैं पण्डित मायाप्रसाद को अच्छी तरह पहचानती थी।

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