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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

नौवाँ बयान


दोपहर का समय है। हवा खूब तेज चल रही है। मैदान में चारों तरफ बगूले उड़ते दिखायी दे रहे हैं। ऐसे समय में एक बहुत फैले हुए और गुंजान आम के पेड़ के नीचे नानक और भूतनाथ का सिपाही, जिसने अपना नाम दाऊ बाबा रक्खा हुआ था, बैठे हुए सफर की हिफाजत मिटा रहे हैं।

पास-ही में मनोरमा भी बैठी हुई है, जिसके हाथ-पैर कमन्द से बँधे हुए हैं। थोड़ी ही दूर पर एक घोड़ी चर रही थी, जिसकी लम्बी बागडोर एक डाल के साथ बँधी हुई थीं और जिसपर मनोरमा को लादके वे लोग लाये थे। इस सफर की हरारत मिटाने और धूप का समय टाल देने के लिए, वे लोग इस पेड़ के नीचे बैठे हुए बात कर रहे हैं।

नानक : (मनोरमा से) मुझे तुम्हारी सूरत शक्ल पर रहम आता है, तुम नाहक ही एक बदकार और नकली मायारानी के लिए अपनी जान दे रही हो।

मनोरमा : (लम्बी साँस लेकर) बात तो ठीक है, मगर अब जान बचाने की कोई उम्मीद भी तो नहीं है। सच कहती हूँ कि जिन्दगी का मजा मैंने कुछ भी नहीं पाया। मेरे पास करोड़ों रुपये की जमा मौजूद है, मगर वह इस समय मेरे किसी अर्थ की नहीं, न मालूम उस पर किसका कब्जा होगा और उसे पाकर कौन आदमी अपने को भाग्यवान मानेगा या, शायद लावारिसी माल समझ राजा ही...

नानक : तुम रोती क्यों हो, आँखे पोंछो, तुम्हारा रोना मुझे अच्छा नहीं मालूम होता। मैं सच कहता हूँ कि तुम्हारी जान बच सकती है और तुम अपनी दौलत का आनन्द अच्छी तरह भोग सकती हो, यदि बलभद्रसिंह और इन्दिरा का पता बता दो!

मनोरमा : मैं बलभद्रसिंह और इन्दिरा का पता भी बता सकती हूँ, और अपनी कुल दौलत भी तुमको दे सकती हूँ, यदि मेरी जान बच जाय और तुम एक सलूक मेरे साथ करो।

नानक : वह कौन-सा सलूक है, जो तुम्हारे साथ करना होगा? हाय मुझे तुम्हारी सूरत पर दया आती है। मैं नहीं चाहता कि एक ऐसी खूबसूरत परी दुनिया से उठ जाय।

मनोरमा : यह बात बहुत गुप्त है, इसलिए मैं नहीं चाहती कि इसे सिवाय तुम्हारे कोई और सुने।

दाऊबाबा : लो, हम आप ही अलग हो जाते हैं, तुम लोग अपना मजे में बातें करो, हमें इन सब बखेड़ों से कोई मतलब नहीं, हमें तो मालिक का काम होने से मतलब है, तब तक दो एक चिलम गाँजा उड़ाके सफर की थकावट मिटाते हैं।

इतना कहकर दाऊबाबा जो वास्तव में एक मस्त आदमी था, उठकर कुछ दूर चला गया और अपने सफरी बटुए में से चकमक निकालकर सुलगाने के बाद आनन्द के साथ गाँजा मलने लगा, इधर नानक उठकर मनोरमा के पास जा बैठा।

नानक : लो, कहो अब क्या कहती हो!

मनोरमा : यह तो तुम जानते ही हो कि मेरे पास बड़ी दौलत है!

नानक : हाँ, सो मैं खूब जानता हूँ कि तुम्हारे पास करोड़ों रुपये की जमा मौजूद है!

मनोरमा : और यह भी जानते हो कि तुम्हारी प्यारी रामभोली भी मेरे कब्जे में है!

नानक : (चौंककर) नहीं, सो तो मैं नहीं जानता! क्या वास्तव में रामभोली भी तुम्हारे ही कब्जे में है? हाय, यद्यपि वह गूँगी और बहरी औरत है, मगर मैं उसे दिल से प्यार करता हूँ। यदि वह मुझे मिल जाय तो मैं अपने को बड़ा भाग्यवान समझूँ!

मनोरमा : हाँ, वह मेरे ही कब्जे में है और तुम्हें मिल सकती है। मैं अपनी तमाम दौलत भी तुम्हें देने को तैयार हूँ और बलभद्रसिंह तथा इन्दिरा का पता भी बता सकती हूँ, यदि इन सब कामों के बदले में तुम एक उपकार मेरे साथ करो!

नानक : (खुश होकर) वह क्या?

मनोरमा : तुम मेरे साथ सादी कर लो, क्योंकि मैं तुम्हें जीजान से प्यार करती हूँ और तुम पर मरती हूँ।

नानक : यद्यपि तुम्हारी उम्र मेरे बराबर है, मगर मैं तुम्हें अभी तक नयी नवेली ही समझता हूँ, और तुम्हें प्यार भी करता हूँ, क्योंकि तुम खूबसूरत हो, लेकिन तुम्हारे साथ शादी मैं कैसे कर सकता हूँ, यह बात मेरा बाप कब मंजूर करेगा!

मनोरमा : इस बात से अगर तुम्हारा बाप रंज हो तो बड़ा ही बेवकूफ है। बलभद्रसिंह के मिलने से उसकी जान बचती है और इन्दिरा के मिलने से वह इन्द्रदेव का प्रेम-पात्र बनकर आनन्द के साथ अपनी जिन्दगी बितायेगा। तुम्हारे अमीर होने से भी उसको फायदा ही पहुँचेगा। इसके अतिरिक्त तुम्हारी रामभोली तुम्हें मिलेगी और मैं तुम्हारी होकर जिन्दगी-भर तुम्हारी सेवा करूँगी। तुम खूब जानते हो कि मायारानी के फेर में पड़े रहने के कारण अभी तक मेरी शादी नहीं हुई।

नानक (मुस्कुराकर) मगर दो-चार प्रेमियो से प्रेम जरूर कर चुकी हो!

मनोरमा : हाँ, इस बात से मैं इन्कार नहीं कर सकती, मगर क्या तुम इसी से हिचकते हो? बड़े बेवकूफ हो! इसी बात से भला कौन बचा है! क्या तुम्हारी अनोखी स्त्री ही जो आजकल तुम्हारे सिर चढ़ी हुई है, बची है! तुम इस बारे में कसम खा सकते हो! क्या तुम दुनिया-भर के भेद जानते हो और अन्तर्यामी हो! ये सब बातें तुम्हारे ऐसे खुशदिल आदमियों के सोचने के लायक नहीं। हाँ, इतना मैं प्रतिज्ञापूर्वक कह सकती हूँ कि इस काम से तुम्हारा बाप नाखुश न होगा। जरा ध्यान देकर सोचो तो सही कि तुम्हारे बाप ने इस जिन्दगी में कैसे-कैसे काम किये हैं। उसका मुँह नहीं कि तुम्हें कुछ कह सके, और दुनिया में मेरा तुम्हारा साथ और करोड़ों रुपये की जमा क्या यह मामूली बात है! हमसे-तुमसे बढ़कर भाग्यवान और कौन दिखायी पड़ता है! हाँ, इस बात की भी मैं कसम खाती हूँ कि तुम्हारी आजकलवाली स्त्री और रामभोली से सच्चा प्रेम करूँगी और चाहे ये दोनों मुझसे कितना ही लड़े, मगर मैं उनकी खातिर ही करूँगी।

मनोरमा की मीठी-मीठी और दिल लुभा लेनेवाली बातों ने नानक को ऐसा बेकाबू कर दिया कि वह स्वर्ग-सुख का अनुभव करने लगा। थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद उसने कहा, ‘‘मगर इस बात का विश्वास कैसे हो कि जितनी बात तुम कह गयी हो, उसे अवश्य पूरा करोगी!’’

इसके जवाब में मनोरमा ने हजारों कसमें खायीं और नानक के मन में अपनी बात का विश्वास पैदा कर दिया। इसके बाद उसने अपना हाथ-पैर खोल देने के लिए नानक से कहा, नानक ने हाथ-पैर खोल दिया और मनोरमा ने अपनी उँगली से वह अँगूठी, जिसको निकाल लेना भूतनाथ भूल गया था, उतारकर नानक की उँगली में पहिरा देने बाद नानक का मुँह चूमकर कहा, ‘‘इसी समय से मैंने तुम्हें अपना पति मान लिया। अब तुम मेरे घर चलो, बलभद्रसिंह और इन्दिरा को लेकर अपने बाप के पास भेज दो, मेरे घरबार के मालिक बनो और इसके बाद जोकुछ मुझे कहो मैं करने को तैयार हूँ। अब इससे बढ़कर सन्तोष दिलानेवाली बात मैं क्या कह सकती हूँ!’’

इतना कहकर मनोरमा ने नानक के गले में हाथ डाल दिया और पुनः उसका मुँह चूमकर कहा, ‘‘प्यारे, मैं तुम्हारी हो चुकी, अब तुम जो चाहो करो!’’

अहा, स्त्री भी दुनिया में क्या चीज है! बड़े-बड़े होशियारों, चालाकों, ऐयारों, अमीरों, पहलवानों और बहादुरों को बेवकूफ बनाकर मटियामेट कर देने की शक्ति जितनी स्त्री में है, उतनी किसी में नहीं। इस दुनिया में बड़ा ही भाग्यवान है जिसके गले में दुष्टा और धूर्त स्त्री की फाँसी नहीं लगी। देखिए दुर्वैव के मारे कमबख्त नानक ने क्या मुँह की खायी है और धूर्त्ता मनोरमा ने कैसा उसका मुँह काला किया है! मजा तो यह है कि स्त्रीरत्न पाने के साथ ही दौलत भी पाने की खुशी ने उसे और भी अन्धा बना दिया और जिस समय मनोरमा ने जहरीली अँगूठी नानक की उँगली में पहिराकर उसके गुण की प्रशंसा की, उस समय तो नानक को निश्चय हो गया कि बस अब यह हमारी हो चुकी। उसने सोचा कि इसे अपनाने में अगर भूतनाथ भी रंज हो जाय तो कोई परवाह की बात नहीं है, और रंज होने का सबब ही क्या है, बल्कि उसे तो खुश होना चाहिए क्योंकि मेरे ही सबब से उसकी जान बचेगी।

नानक ने भी मनोरमा के गले में हाथ डालके उससे कुछ ज्यादा ही प्रेम का बर्ताव किया जो मनोरमा ने नानक के साथ किया था, तब कहा, ‘‘अच्छा तो अब मैं भी तुम्हारा हो चुका तुम भी जहाँ तक जल्द हो सके, अपना वादा पूका करो।’’

मनोरमा : मैं तैयार हूँ, अपने साथी लण्ठाधिराज को बिदा करो और मेरे साथ जमानिया के तिलिस्मी बाग की तरफ चलो।

नानक : वहाँ क्या है?

मनोरमा : बलभद्रसिंह और इन्दिरा उसी में कैद हैं, पहिले उन्हीं को छुड़ाकर तुम्हारे बाप को खुश करना, मैं उचित समझती हूँ।

नानक : हाँ, राय बहुत अच्छी है, मैं अभी अपने साथी को समझा-बुझाकर बिदा करता हूँ।

इतना कहकर नानक अपने साथी के पास चला गया, जो गाँजे का दम लगा रहा था। मनोरमा का हाल नमक-मिर्च लगाकर उससे कहा और समझा-बुझाकर उसी अड्डे पर जहाँ से आया था  चले जाने के लिए राजी किया, बल्कि उसे बिदा करके पुनः मनोरमा के पास चला आया।

मनोरमा : तुम्हारा साथी तो सहज ही में चला गया।

नानक : आखिर वह मेरे बाप का नौकर ही तो है। अस्तु, जोकुछ मैं कहूँगा उसे मानना ही पड़ेगा। हाँ, तो अब तुम भी चलने के लिए तैयार हो जाओ।

मनोरमा :(खड़ी होकर) मैं तैयार हूँ, आओ।

नानक : ऐसे नहीं, मेरे बटुए में कुछ खाने की चीजें मौजूद है, लोटा, डोरी भी तैयार है, वह देखो सामने कुआँ भी है, अस्तु कुछ खा-पीकर आत्मा को हर लेना चाहिए, जिसमें सफर की तकलीफ मालूम न पड़े।

मनोरमा : जो आज्ञा।

नानक ने बटुए में से कुछ खाने को निकाला और कूएँ में से जल खींचकर मनोरमा के सामने रक्खा।

मनोरमा : पहिले तुम खा लो फिर तुम्हारा जूठा जो बचेगा, उसे मैं खा लूँगी।

नानक : नहीं नहीं, ऐसा क्या, तुम भी खाओ और मैं भी खाऊँ!

मनोरमा : ऐसा कदापि नहीं होगा, अब मैं तुम्हारी स्त्री हो चुकी और सच्चे दिल से हो चुकी, फिर जैसा मेरा धर्म है, वैसा ही करूँगी।

नानक ने कहा मगर मनोरमा ने कुछ भी न सुना। आखिर नानक को पहिले खाना पड़ा। थोड़ा-सा खाकर नानक ने जो कुछ छोड़ दिया, मनोरमा उसी को खाकर चलने को तैयार हो गयी। नानक ने घोड़ा कसा और दोनों आदमी उसी पर सवार होकर जंगल-ही-जंगल पूरब की तरफ चल निकले। इस समय जिस राह से मनोरमा कहती थी, नानक उसी राह से जाता था। शाम होते-होते ये दोनों खण्डहर के पास पहुँचे, जिसमें हम पहिले भूतनाथ और शेरसिंह का हाल लिख आये हैं, जहाँ राजा बीरेन्द्रसिंह को शिवदत्त ने घेर लिया था, जहाँ से शिवदत्त को रुहा ने चकमा देकर फँसाया था, या जिसका हाल ऊपर कई दफे लिखा जा चुका है।

मनोरमा : अब यहाँ ठहर जाना चाहिए!

नानक : क्यों?

मनोरमा : यह तो आपको मालूम ही हो चुका होगा कि इस खण्डहर में से एक सुरंग जमानिया के तिलिस्मी बाग तक गयी हुई है।

नानक : हाँ, इसका हाल मुझे अच्छी तरह मालूम हो चुका है। इसी सुरंग से मायारानी या उसके मददगारों ने पहुँचकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के साथ और भी कई आदमियों को गिरफ्तार कर लिया था।

मनोरमा : तो अब मैं चाहती हूँ कि उसी राह से जमानियावाले तिलिस्मी बाग के दूसरे दर्जे में पहुँचूँ और दोनों कैदियों को इस तरह निकाल बाहर करूँ कि किसी को किसी तरह का गुमान न होने पावे। मैं इस सुरंग का हाल अच्छी तरह जानती हूँ, इस राह से कई दफे आयी और गयी हूँ। इतना ही नहीं, बल्कि इस सुरंग की राह से जाने में और भी एक बात का सुबीता है।

नानक : वह क्या?

मनोरमा : इस सुरंग में बहुत-सी चीजें ऐसी हैं, जिन्हें हम लोग हजारों रुपये खर्चने और वर्षों परेशान होने पर भी नहीं पा सकते, और वे चीजें हम लोगों के बड़े काम की हैं, जैसे ऐयारी के काम में आने लायक तरह-तरह की रोगनी पोशाकें, जो न तो पानी में भीगेगें और न आग में जले एक-से-एक बढ़के मजबूत हल्के कमन्द, पचासों तरह के नकाब, तरह-तरह की दवाइयाँ, पचासों किस्म के अनमोल इत्र जो अब मयस्सर नहीं हो सकते, इसके अतिरिक्त ऐश व आराम की भी सैकड़ों चीजें तुमको दिखायी देंगी, जिन्हें अपने साथ लेते चलेंगे, (धीरे से) और मायारानी का एक ‘जवाहिरखाना’ भी इस सुरंग में है।

नानक : वाह वाह, तब तो जरूर इसी सुरंग की राह चलना चाहिए इससे बढ़कर ‘एक पन्थ दो काज’ हो ही नहीं सकता!

मनोरमा : और इन सब चीजों की बदौलत हम लोग अपनी सूरत भी अच्छी तरह बदल लेंगे और दो-चार हर्बे भी ले लेंगे।

नानक : ठीक है, मैं इस राह से जाने के फायदों को अच्छी तरह समझ गया, मगर हर्बों की हमें कुछ भी जरूरत नहीं है, क्योंकि कमलिनी का दिया हुआ एक खंजर ही मेरे पास ऐसा है, जिसके हजारों-लाखों बल्कि करोड़ों हर्बे झख मारें!!

मनोरमा : (आश्चर्य से) सो क्या? वह कैसा खंजर है, और कहाँ है?

नानक : (खंजर दिखाकर) यह मेरे पास मौजूद है, जिस समय तुम इसके गुण सुनोगी तो आश्चर्य करोगी।

इतना कहकर नानक घोड़े के नीचे उतर पड़ा और सहारा देकर मनोरमा को भी नीचे उतारा। मनोरमा ने एक पेड़ के नीचे बैठ जाने की इच्छा प्रकट की और कहा कि घोड़े को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि इसकी अब हम लोगों को जरूरत नहीं रही।

नानक ने मनोरमा की बात मंजूर की, अर्थात् घोड़े को छोड़ दिया और कुछ देर तक आराम लेने की नीयत से दोनों आदमी एक पेड़ के नीचे बैठ गये। मनोरमा ने तिलिस्मी खंजर का गुण पूछा और नानक से शेखी के साथ बखान करना शुरू किया और अन्त में खंजर का कब्जा दबाकर बिजली की रोशनी भी पैदा कर मनोरमा को दिखाया। चमक से मनोरमा की आँखे चौंधिया गयी और उसने दोनों हाथों से अपना मुँह ढाँप लिया। जब वह चमक बन्द हो गयी तो नानक के कहने से मनोरमा ने आँखे खोली और खंजर की तारीफ करने लगी।

थोड़ी देर तक आराम करने बाद दोनों आदमी खण्डहर के अन्दर गये, और उसी मामूली रास्ते से जिसका हाल कई दफे लिखा जा चुका है, उसी तहखाने के अन्दर गये, जिसमें शेरसिंह रहा करते थे या जिसमें से इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह गायब हुए थे। यह तो पाठकों को मालूम ही है कि राजा बीरेन्द्रसिंह की सवारी आने के कारण इस खँडहर की अवस्था बहुत कुछ बदल गयी थी, और अभी तक बदली हुई है, मगर इस तहखाने की हालत में किसी तरह का फर्क नहीं पड़ा था।

हमारे पाठक भूले न होंगे कि इस तहखाने में उतरने के लिए जो सीढ़ियाँ थीं, उनके नीचे एक छोटी-सी कोठरी थी, जिसमें शेरसिंह अपना असबाब रक्खा करते थे, और जिसमें से आनन्दसिंह, कमला और तारासिंह गायब हुए थे। मनोरमा की आज्ञानुसार नानक ने अपने ऐयारी के बटुए में से मोमबत्ती निकालकर जलायी और मनोरमा के पीछे-पीछे उसी कोठरी में गया। यह कोठरी बहुत ही छोटी थी, और इसके चारों तरफ की दीवार बहुत साफ और संगीन थी। मनोरमा ने एक तरफ की दीवार पर हाथ रखके कोई खटका या किसी पत्थर को दबाया, जिसका हाल नानक को कुछ भी मालूम न हुआ, मगर एक पत्थर की चट्टान भीतर की तरफ हटकर बगल में हो गयी और अन्दर जाने के लिए रास्ता निकल आया। मनोरमा के पीछे-पीछे नानक उस कोठरी के अन्दर चला गया और इसके साथ ही वह पत्थर की सिल्ली बिना हाथ लगाये, अपने ठिकाने चली गयी तथा दरवाजा बन्द हो गया। मनोरमा से नानक ने उस दरवाजे को खोलने और बन्द करने की तरकीब पूछी और मनोरमा ने उसका भेद बता दिया, बल्कि उस दरवाजे को एक दफे खोलके और बन्द करके भी दिखा दिया। इसके बाद दोनों आगे की तरफ बढ़े। इस समय जिस जगह ये दोनों थे, वह एक लम्बा-चौड़ा कमरा था, मगर उसके किसी तरफ जाने के लिए कोई दरवाजा दिखायी नहीं देता था, हाँ, एक तरफ दीवार में एक बहुत बड़ी आलमारी जरूर बनी हुई थी, और उसका पल्ला किसी खटके के दबाने से खुला था। मनोरमा ने उसके खोलने की तरकीब भी नानक को बतायी और नानक ही के हाथ से उसका पल्ला भी खुलवाया। पल्ला खुलने पर मालूम हुआ कि यह भी एक दरवाजा है और इसी जगह से सुरंग में घुसना होता है। दोनों आदमी सुरंग के अन्दर रवाना हुए। यह सुरंग इस लायक थी कि तीन आदमी एक साथ मिलकर जा सकें।

लगभग पचास कदम जाने के बाद फिर एक कोठरी मिली, जो पहिली कोठरियों की बनिस्बत ज्यादे लम्बी-चौड़ी थी। इसमें चारों तरफ कई खुली आलमारियाँ थीं, जो पचासों किस्म की चीजों से भरी हुई थीं। किसी में तरह-तरह के हर्बे थे, किसी में ऐयारी का समान, किसी में रंग-बिरंग के बनावटी दाढ़ी-मूँछ और नकाब इत्यादि थे, और कई आलमारियाँ बोतलों और शीशियों से भरी हुई थीं। इन सामानों को देखकर नानक ने मनोरमा से कहा, ‘‘यह सब तो है, मगर उस जवाहिरखाने का भी कहीं पता-निशान है जिसका होना तुमने बयान किया था!’’

मनोरमा : मैंने आपसे झूठ नहीं कहा था, वह जवाहिरखाना भी इसी सुरंग में मौजूद है।

नानक : मगर कहाँ है?

मनोरमा : इस सुरंग में और थोड़ी दूर जाने बाद, इसी तरह का एक कमरा पुनः मिलेगा। उसी कमरे में आप उन सब चीजों को देखेंगे। इस सुरंग में जमानिया पहुँचने तक इस तरहके ग्यारह अड्डे या कमरे मिलेंगे, जिनमें करोड़ों रुपये की सम्पत्ति देखने में आवेगी!

नानक : (लालच के साथ) जबकि तुम्हें यहाँ का रास्ता मालूम है, और ऐसी-ऐसी नादिर चीजें तुम्हारी जानी हुई हैं, तो इन सभों को उठाकर अपने घर में क्यों नहीं ले जाती!

मनोरमा : मायारानी की बदौलत मुझे किसी चीज की कमी नहीं है। रुपये-पैसे, गहने, जवाहिरात और दौलत से मेरी तबीयत भरी हुई है, इन सब चीजों की मैं कोई हकीकत नहीं समझती।

नानक : बेशक, ऐसा ही है!

मनोरमा : (बोतल और शीशियों से भरी हुई एक अलमारी की तरफ इशारा करके) देखो ये बोतलें ऐशोआराम की जान खुशबूदार चीजों से भरी हुई हैं।

इतना कह मनोरमा फुर्ती के साथ उस अलमारी के पास चली गयी और एक बोतल उठाकर, उसका मुह खोलकर सूँघकर बोली, ‘‘अहा सिवाय मायारानी के और तिलिस्म के राजा के ऐसी खुशबूदार चीजें और किसे मिल सकती हैं?’’

इतना कहकर वह बोतल, उसी जगह मुँह बन्द करके रख दी और दूसरी बोतल उठाकर नानक के पास ले चली, मगर वह बोतल उसके हाथ से छूटकर जमीन पर गिर पड़ी या शायद उसने जान-बूझकर ही गिरा दी। बोतल गिरने के साथ ही टूट गयी और उसमें खुशबूदार तेल चारों तरफ जमीन पर फैल गया। मनोरमा बहुत रंज और अफसोस करने लगी और उसकी मुरौवत से नानक ने भी रंज दिखाया। उस बोतल में जो तेल था, वह बहुत ही खुशबूदार और इतना तेज था कि गिरने के साथ ही उसकी खुशबू कमरे में फैल गयी और नानक उस खुशबू की तारीफ करने लगा।

निःसन्देह मनोरमा ने नानक को पूरा उल्लू बनाया। पहिले जो बोतल खोल कर मनोरमा ने सूँघी थी, उसमें भी एक प्रकार की खुशबूदार चीज थी, मगर उसमे यह असर था कि उसके सूँघने बाद दो घण्टों तक किसी तरह की बेहोशी का असर सूँघनेवाले पर नहीं हो सकता था, और जो दूसरी बोतल उसके हाथ से गिर गयी थी, उसमें बहुत तेज बेहोशी का असर था जिसने नानक को तो चौपट ही कर दिया। वह उस खुशबू की तारीफ करता-करता ही जमीन पर लम्बा हो गया, मगर मनोरमा पर उस दवा का कुछ भी असर न हुआ, क्योंकि वह पहिले ही से एक दूसरी दवा सूँघकर अपने दिमाग का बन्दोबस्त कर चुकी थी। नानक के हाथों से मनोरमा ने मोमबत्ती ले ली और एक किनारे जमीन पर जमा दी।

जब नानक अच्छी तरह बेहोश हो गया तो मनोरमा ने उसके हाथ से तिलिस्मी अँगूठी उतार ली और फिर तिलिस्मी खंजर के जोड़ की अँगूठी उतार लेने के बाद तिलिस्मी खंजर भी अपने कब्जे में कर लिया और इसके बाद एक लम्बी साँस लेकर कहा, ‘‘अब कोई हर्ज की बात नहीं है!’’

थोड़ी देर कुछ सोचने-विचारने के बाद मनोरमा ने एक हाथ में मोमबत्ती ली और दूसरे हाथ से नानक का पैर पकड़ घसीटती हुई बाहरवाली कोठरी में ले आयी। उस कोठरी का, जिसमें से निकली थी, दरवाजा बन्द कर दिया और साथ ही इसके एक तरकीब ऐसी और भी कर दी कि नानक पुनः उस दरवाजे को खोल न सके।

इन कामों से छुट्टी पाने के बाद मनोरमा ने नानक की मुश्कें बाँधी और हर तरह से बेकाबू करने बाद लखलखा सुँघाकर होश में लाने का उद्योग करने लगी। थोड़ी ही देर बाद नानक होश में आ गया और अपने को हर तरह से मजबूर और सामने हाथ में उसी का जूता लिये मनोरमा को मौजूद पाया।

नानक : (आश्चर्य से) यह क्या! तुमने मुझे धोखा दिया!!

मनोरमा : (हँसकर) जी नहीं, यह तो दिल्लगी की जा रही है! क्या तुम नहीं जानते कि ब्याह-शादी में लोग दिल्लगी करते हैं? मेरा कोई नातेदार तो है नहीं जो तुमसे दिल्लगी करके ब्याह की रस्म पूरी करे, इसलिए मैं स्वयं ही इस रस्म को पूरा किया चाहती हूँ!!

इतना कहकर मनोरमा तेजी के साथ ब्याह की रस्म पूरी करने लगी। जब नानक सिर की खुजलाहट से दुःखी हो गया तो हाथ जोड़कर बोला, ‘‘ईश्वर के लिए मुझ पर दया करो, मैं ऐसी शादी से बाज आया, मुझसे बड़ी भूल हुई।’’

मनोरमा : (रुककर) नहीं, घबड़ाने की कोई बात नहीं है। मैं तुम्हारे साथ किसी तरह की बुराई न करूँगी, बल्कि भलाई करूँगी। मैं देखती हूँ कि तुम्हारे हमजोली लोग सच्ची दिल्लगी से तुम्हें बड़ा दुःख देते हैं, और तुम्हारी स्त्री भी यद्यपि तुम्हारे ही नातेदारों और मित्रों को प्रसन्न करके गहने और कपड़े तथा सौगात से तुम्हारा घर भरती है, मगर तुम्हारी नाक का कुछ भी मुलाहिजा नहीं करती, अतएव तुम्हारी नाक ही पर हरदम सामत ही आती रहती है, इसलिए मैं दया करके तुम्हारी नाक को जड़ से उड़ा देना पसन्द करती हूँ, जिसमें आइन्दे के लिए तुम्हें कोई कुछ कह न सके। हाँ, इतना ही नहीं बल्कि तुम्हारे साथ में एक नेकी और भी किया चाहती हूँ, जिसका ब्योरा अभी कह देना उचित नहीं समझती।

नानक : क्षमा करो, क्षमा करो, मैं हाथ जोड़कर कहता हूँ कि मुझे माफ करो। मैं कसम खाकर कहता हूँ कि आज से मैं अपने को तुम्हारा गुलाम समझूगाँ और जो कुछ तुम कहोगी, वही करूँगा।

मनोरमा : (हँसकर) अच्छा तो आज से तू मेरा गुलाम हुआ!

नानक : बेशक, मैं आज से तुम्हारा गुलाम हुआ, असली क्षत्री होऊँगा तो तुम्हारे हुक्म से मुँह न मोड़ूँगा।

मनोरमा : (हँसती हुई) इसी में तो मुझको शक है कि तेरी जात क्या है! अस्तु, कोई चिन्ता नहीं, मैं तुझे हुक्म देती हूँ कि दो महीने तक अपने घर न जाइयो और इस बीच में अपने बाप या किसी दोस्त नातेदार से भी न मिलियो, इसके बाद जो इच्छा हो कीजियो, मैं कुछ न बोलूँगी, मगर मुझसे और मेरे पक्षापतियों से दुश्मनी का इरादा कभी न कीजियो!

नानक : ऐसा ही होगा।

मनोरमा : अगर मेरी आज्ञा के विरुद्ध कोई काम करेगा तो तुझे जान से मार डालूँगी, इसे खूब याद रखियो।

नानक : मैं खूब याद रक्खूँगा और तुम्हारी आज्ञा के विरुद्ध कोई काम न करूँगा, परन्तु कृपा करके मेरा खंजर तो मुझे दे दो!

मनोरमा : (क्रोध से) अब यह खंजर तुझे नहीं मिल सकता है, खबरदार इसके माँगने या लेने की इच्छा न कीजियो, अच्छा अब मैं जाती हूँ।

इतना कहकर मनोरमा ने तिलिस्मी खंजर नानक के बदन से लगा दिया और जब वह बेहोश हो गया तो उसके पैर खोल दिये, जलती हुई मोमबत्ती एक कोने में खड़ी कर दी और वहाँ से रवाना होकर खँडहर के बाहर निकल आयी। घोड़े को अभी तक खँडहर के पास चरते देखा उसके पास चली गयी, अयाल पर हाथ फेरा, दो-चार दफे थपथपाया और फिर सवार होकर पश्चिम की तरफ रवाना हो गयी।

इधर नानक भी थोड़ी देर बाद होश में आया। मोमबत्ती एक किनारे जल रही थी, उसे उठा लिया और अपनी किस्मत को धिक्कार देता हुआ खँडहर के बाहर होकर डरता और काँपता हुआ एक चरफ को चला गया।

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