चन्द्रकान्ता सन्तति - 4
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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...
छठवाँ बयान
कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह फिर उसी बड़ी तस्वीर के पास आये, जिसके नीचे महाराज सूर्यकान्त का नाम लिखा हुआ था। दोनों कुमार उस तस्वीर पर फिर से गौर करने और उस लिखावट को पढ़ने लगे, जिसे पहिले पढ़ चुके थे। हम ऊपर लिख आये हैं कि इस तस्वीर में कुछ लेख ऐसा भी था, जो बहुत बारीक हर्फों में लिखा होने के कारण कुमार से पढ़ा नहीं गया। अब दोनों उसी को पढ़ने के लिए उद्योग करने लगे, क्योंकि उसका पढ़ना उन दोनों ने बहुत ही आवश्यक समझा।
इस कमरे में जितनी तस्वीरें थीं, वे सब दीवार में बहुत ऊँचे पर न थीं, बल्कि इतनी नीचे थीं कि देखनेवाला उनके मुकाबले में खड़ा हो सकता था। यही सबब था कि महाराज सूर्यकान्त की तस्वीर में जो कुछ लिखा था, उसे दोनों कुमारों ने बखूबी पढ़ लिया था, मगर कुछ लेख वास्तव में बहुत ही बारीक अक्षरों में लिखा हुआ था और इसी से ये दोनों भाई उसे पढ़ न सके। दोनो भाईयों ने तस्वीर की बनावट और उसके चौकठे (फ्रेम) पर अच्छी तरह ध्यान दिया तो चारों कोने में छोटे-छोटे चार गोल शीशे जड़े हुए दिखायी पड़े, जिनमें तीन शीशे तो पतले और एक ही रंग-ढंग के थे, मगर चौथा शीशा मोटा दलदार और बहुत साफ था। इन्द्रजीतसिंह ने उस मोटे शीशे पर ऊँगली रक्खी तो वह हिलता हुआ मालूम पड़ा और जब कुमार ने दूसरा हाथ उसके नीचे रखकर उँगली से दबाया तो चौखटे से अलग होकर हाथ में आ रहा। इस समय आनन्दसिंह तिलिस्मी खंजर हाथ में लिये हुए रोशनी कर रहे थे। उन्होंने इन्द्रजीतसिंह से कहा, ‘‘मेरा दिल गवाही देता है कि यह शीशा उन अक्षरों के पढ़ने में अवश्य कुछ सहायता देगा जो बहुत बारीक होने के सबब से पढ़ नहीं जाते।’’
इन्द्रजीत : मेरा भी यही खयाल है और इसी सबब से मैंने इसे निकाला भी है।
आनन्द : इसीलिए यह मजबूती के साथ जड़ा हुआ भी नहीं था।
इन्द्रजीत : देखो अब सब मालूम ही हुआ जाता है।
इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह ने उस शीशे को उन बारीक अक्षरों के ऊपर रक्खा और वे अक्षर बड़े-बड़े मालूम होने लगे। अब दोनों भाई बड़ी प्रसन्नता से उस लेख को पढ़ने लगे। यह लिखा हुआ थाः–
स्व गिवर नर्ग दै कै पै
(खूब समझ के तब आगे पैर रक्खो)
6 - 3 - अ 5 - 3 - ए
3 - 3 - ए 8 - 4 - 0
7 - 4 - अ 8 - 3 - ए
7 - 3 - ए 1 - 1 - 0
3 - 1 - औ 7 - 3 - 0
5 - 1 - 0 2 - 3 - 0
7 - 2 - ए 6 - 5 - 0
6 - 5 - ए 5 - 1 - 0
5 - 1 - अ 2 - 1 - 0
7 - 3 - ई 7 - 2 - ओ
2 - 2 - ओ 5 - 5 - 0
3 - 3 - ओ 8 - 4 - ई
5 - 1 - इ 5 - 1 - ओ
7 - 3 - 0 3 - 3 - अ
8 - 3 - 0 5 - 5 - 0
6 - 5 - ई 6 - 1 - 0
2 - 2 - अं 7 - 2 - 0
3 - 3 - 0 1 - 1 - आ
7 - 2 - 0 6 - 3 - 0
1 - 1 - 0 5 - 5 - ए
6 - 1 - 0 2 - 3 - ई
5 - 5 - ए
थोड़ी देर तक तो इस लेख का मतलब समझ में न आया लेकिन बहुत सोचने पर आखिर दोनों कुमार उसका मतलब समझ गये* और प्रसन्न होकर आनन्दसिंह बोले–
(*पाठकों के सुभीते के लिए इन दोनों मजमूनों का आशय इस भाग के अन्तिम पृष्ठ पर दे दिया गया है, पर उन्हें अपनी चेष्टा से मतलब समझने की कोशिश अवश्य करनी चाहिए।)
आनन्द : देखिए तिलिस्म के सम्बन्ध में कितनी कठिनाइयाँ रक्खी हुई हैं!
इन्द्रजीत : यदि ऐसा न हो तो हरएक आदमी तिलिस्म के भेद को समझ जाय।
आनन्द : अच्छा तो अब क्या करना चाहिए?
इन्द्रजीत : सबसे पहिले बाजे की ताली खोजनी चाहिए, इसके बाद बाजे की आज्ञानुसार काम करना होगा।
दोनों भाई बाजे वाले चबूतरे के पास गये और घूम-घूमकर अच्छी तरह देखने लगे। उसी समय पीछे की तरफ से आवाज आयी, ‘‘हम भी आ पहुँचे!’’ दोनों भाइयों ने ताज्जुब के साथ घूमकर देखा तो राजा गोपालसिंह पर निगाह पड़ी।
यद्यपि कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को राजा गोपालसिंह के साथ पहिले ही मोहब्बत हो गयी थी मगर जब से यह मालूम हुआ कि रिश्ते में वे इनके भाई हैं, तब से मुहब्बत ज्यादे हो गयी थी और इसलिए इस समय उन्हें देखते ही इन्द्रजीतसिंह दौड़कर उनके गले से लिपट गये तथा उन्होंने ने भी बड़े प्रेम से दबाया। इसके बाद आनन्दसिंह अपने भाई की तरह गये मिले और जब अलग हुए तो गोपालसिंह ने कहा, ‘‘मालूम होता है कि महाराज सूर्यकान्त की तस्वीर के नीचे जो कुछ लिखा है, उसे आप दोनों पढ़ चुके हैं!’’
इन्द्रजीत : जी हाँ, और यह मालूम करके हमें बड़ी खुशी हुई कि आप हमारे भाई हैं! मगर मैं समझता हूँ कि आप इस बात को पहिले से जानत थे।
गोपाल : बेशक इस बात को मैं बहुत दिनों से जानता हूँ, क्योंकि इस जगह कई दफे आ चुका हूँ, लेकिन इसके अतिरिक्त तिलिस्म सम्बन्धी एक ग्रन्थ भी मेरे पास है, जिसमें भी यह बात लिखी हुई है।
आनन्द : तो इतने दिनों तक आपने हम लोगों से कहा क्यों नहीं?
गोपाल : उस किताब में जो मेरे पास है, ऐसा कहने की मनाही थी, मगर अब मैं कोई बात आप लोगों से नहीं छिपा सकता और न आप ही मुझसे छिपा सकते हैं।
इन्द्रजीत : क्या आप इसी राह से आते जाते हैं, और आज भी इसी राह से हम लोगों को छोड़कर निकल गये थे?
गोपाल : नहीं नहीं, मेरे आने-जाने का रास्ता दूसरा ही है। उसी कूएँ में आपने कई दरवाजे देखे होंगे, उनमें जो सबसे छोटा दरवाजा है, मैं उसी राह से आता-जाता हूँ, यहाँ दूसरे ही काम के लिए कभी-कभी आना पड़ता है।
इन्दजीत : यहाँ आने की आपको क्या जरूरत पड़ा करती है।
गोपाल : इधर तो मुद्दत से मैं आफत में फँसा हुआ था, आपही ने मेरी जान बचायी है, इसलिए दो दफे से ज्यादे आने की नौबत नहीं आयी। हाँ, इसके पहिले महीने में एक दफे अवश्य आना और इन कमरों की सफाई अपने हाथ से करनी पड़ती थी। जो किताब मेरे पास है और जिसका जिक्र मैंने अभी किया, उसके पढ़ने से इस तिलिस्म का कुछ हाल और जमानिया की गद्दी पर बैठनेवालों के लिए बड़े लोग जो-जो आज्ञा और नियम लिख गये हैं, आपको मालूम होगा। उसी नियमानुसार हर महीने की अमावस्या को मैं यहाँ आया करता था। आपकी, आनन्दसिंह की और अपनी तस्वीरें मैंने ही नियमानुसार इस कमरे में लगायी हैं और इसी तरह बड़े लोग अपने-अपने समय में अपनी और अपने भाइयों की तस्वीरें गुप्त रीति से तैयार कराके इस कमरे में रखते चले आये हैं। नियमानुसार यह एक आवश्यक बात थी कि जब तक आप लोग स्वयं इस कमरे में न आ जाँय, मैं हरएक बात आप लोगों से छिपाऊँ और इसलिए मैं इस तिलिस्म के बाहर भी आपको ले नहीं गया, जबकि आपने बाहर जाने की इच्छा प्रकट की थी, मगर अब कोई बात छिपाने की आवश्यकता न रही।
इन्द्रजीत : इस बाजे का हाल भी आपको मालूम होगा?
गोपाल : केवल इतना ही कि इसमें तिलिस्म के बहुत से भेद भरे हुए हैं, मगर इसकी ताली कहाँ है सो मैं नहीं जानता।
इन्द्रजीत : क्या आपके सामने यह बाजा कभी बोला?
गोपाल : इस बाजे की आवाज कई दफे मैंने सुनी है। (जमीन में गड़े एक पत्थर की तरफ इशारा करके) इस पर पैर पड़ने के साथ ही बाजा बजने लगता है, दो-तीन गत के बाद कुछ बातें कहता और फिर चुप हो जाता है, अगर इस पत्थर पर पैर न पड़े तो कुछ भी नहीं बोलता।
इन्द्रजीत : (वह किताब जिस पर बाजे की आवाज लिखी थी दिखाकर : यह आवाज भी आपने सुनी होगी?
गोपाल : हाँ, सुन चुका हूँ, मगर इसके लिए उद्योग करना, सबसे पहिले आपका काम है।
आनन्द : महाराज सूर्यकान्त की तस्वीर के नीचे बारीक अक्षरों में जो कुछ लिखा है, उसे भी पढ़ चुके हैं?
गोपाल : नहीं, क्योंकि अक्षर बारीक हैं, पढ़े नहीं जाते।
इन्द्रजीत : हम लोग इसे पढ़ चुके हैं?
गोपाल : (ताज्जुब से) सो कैसे?
कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने शीशेवाला हाल गोपालसिंह से कहा और जिस तरह स्वयं उन बारीक अक्षरों को पढ़ चुके थे, उसी तरह उन्हें भी पढ़ाया।
गोपाल : आखिर समय ने इस बात को आप लोगों के लिए रख ही छोड़ा था।
इन्द्रजीत : इसका मतलब आप समझ गये?
गोपाल : जी हाँ, समझ गया।
इन्द्रजीत : अब आप हम लोगों को बड़ाई के शब्दों से सम्बोधन न किया कीजिए, क्योंकि आप बड़े हैं और हमलोग छोटे हैं, इस बात का पता लग चुका है।
गोपाल : (हँसकर) ठीक है, अब ऐसा ही होगा, अच्छा तो बाजेवाले चबूतरे में से ताली निकालनी चाहिए।
इन्द्रजीत : जी हाँ, हम लोग इसी फिक्र में थे कि आप आ पहुँचे, लेकिन मुझे और भी बहुत-सी बातें आपसे पूछनी हैं।
गोपाल : खैर, पूछ लेना, पहिले ताली के काम से छुट्टी पा लो।
आनन्द : मैंने इस कमरे में एक औरत को आते हुए देखा था, मगर वह मुझ पर निगाह पड़ने के साथ ही पिछले पैर लौट गयी और दूसरी कोठरी में जाकर गायब हो गयी। इस बात का पता न लगा कि वह कौन थी या यहाँ क्योंकर आयी।
गोपाल : औरत! यहाँ पर!!
आनन्द : जी हाँ।
गोपाल : यह तो एक आश्चर्य की बात तुमने कही! अच्छा खुलाशा कह जाओ।
आनन्दसिंह अपना हाल खुलासा बयान कर गये, जिसे सुनकर गोपालसिंह को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और बोले, ‘‘खैर, थोड़ी देर के बाद इस पर गौर करेंगे। किसी औरत का यहाँ आना निःसन्देह आश्चर्य की बात है।’’
इन्द्रजीत : (खून से लिखी किताब दिखाकर) मेरी राय है कि आप इस किताब को पढ़ जाँय और जो तिलिस्मी किताब आपके पास है, उसे पढ़ने के लिए मुझे दे दें।
गोपाल : निःसन्देह, वह किताब आपके पढ़ने लायक है, उससे आपको बहुत फायदा पहुँचेगा और खाने-पीने तथा समय पड़ने पर इस तिलिस्म से बाहर निकल जाने के लिए अण्डस न पड़ेगी और यहाँ के कई गुप्त भेद भी आप लोगों को मालूम हो जायेंगे। आप इस बाजे की ताली निकालने का उद्योग कीजिए, तब तक मैं जाकर वह किताब ले आता हूँ।
इन्द्रजीत : बहुत अच्छी बात है, मगर बाजे की ताली निकालने के समय आप यहाँ मौजूद क्यों नहीं रहते? आपसे बहुत कुछ मदद हम लोगों को मिलेगी।
गोपाल : क्या हर्ज है, ऐसा ही सही, आप लोग उद्योग करें।
यह तो मालूम ही हो चुका था कि बाजे की ताली उसी चबूतरे में है, जिस पर बाजा रक्खा या जड़ा हुआ है, अस्तु तीनों भाई उसी तबूतरे की तरफ बढ़े। राजा गोपालसिंह के पास भी तिलिस्मी खंजर मौजूद था, जिसे उन्होंने हाथ में ले लिया और कब्जा दबाकर रोशनी करने के बाद कहा, ‘‘आप दोनों आदमी उद्योग करें मैं रोशनी दिखाता हूँ।’’
आनन्द : (आश्चर्य से) आप भी अपने पास तिलिस्मी खंजर रखते हैं?
गोपाल :हाँ, इसे प्रायः अपने पास रखता हूँ और जब तिलिस्म के अन्दर आने की आवश्यकता पड़ती है, तब तो अवश्य ही रखना पड़ता है, क्योंकि बड़े लोग ऐसा करने के लिए लिख गये हैं।
कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह दोनों भाई बाजेवाले चबूतरे के चारों तरफ घूमने और उसे ध्यान देकर देखने लगे। वह चबूतरा किसी प्रकार की धातु का और चौखूटा बना हुआ था। उसके दो तरफ तो कुछ भी न था, मगर बाकी दो तरफ मुट्ठे लगे हुए थे,जिन्हें देख इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा, ‘‘मालूम होता है कि ये दोनों मुट्ठे पकड़कर खींचने के लिए बने हुए हैं। ’’
आनन्द : मैं यही समझता हूँ।
इन्द्रजीत : अच्छा खैचों तो सही।
आनन्द : (मुट्ठे को अपनी तरफ खैंच और घुमाकर) यह तो अपनी जगह से हिलता नहीं! मालूम होता है कि हम दोनों को एक साथ उद्योग करना पड़ेगा, और इसीलिए इसमें दो मुट्ठे बने हुए हैं।
इन्द्रजीत : बेशक ऐसा ही है, अच्छा हम भी दूसरे मुट्ठे को खींचते हैं, दोनों आदमियों का जोर एक साथ ही लगना चाहिए।
दोनों भाइयों ने आमने-सामने खड़े होकर दोनों मुट्ठों को खूब मजबूती से पकड़ा और बायें दाहिने दोनों तरफ उमेठा, मगर वह बिल्कुल न घूमा। इसके बाद दोनों ने उन्हें अपनी तरफ खींचा और कुछ खिंचते देखकर दोनों भाइयों ने समझा कि इसमें अपनी पूरी ताकत खर्च करनी पड़ेगी। आखिर ऐसा ही हुआ, अर्थात् दोनों भाइयों के खूब जोर करने पर वे दोनों मुट्ठे खिंचकर बाहर निकल आये और इसके साथ ही उस चबूतरे की एक तरफ की दीवार (जिधर मुट्ठा नहीं था) पल्ले की तरह खुल गयी। राजा गोपालसिंह ने झुककर उसके अन्दर तिलिस्मी खंजर की रोशनी दिखायी और तीनों भाई बड़े गौर से अन्दर देखने लगे। एक छोटी-सी चौकी नजर आयी, जिस पर छोटी-सी ताँबे की तख्ती के ऊपर एक चाभी रक्खी हुई थी। इन्द्रजीतसिंह के अन्दर की तरफ हाथ बढ़ाकर चौकी खैंचना चाहा, मगर वह अपनी जगह से न हिली, तब उन्होंने ताँबे की तख्ती और ताली उठा ली, और पीछे की तरफ हटकर उस खुले हुए पल्ले को बन्द करना चाहा, मगर वह बन्द न हुआ, लाचार उसी तरह छोड़ दिया। ताँबे की तख्ती पर दोनों भाइयों ने निगाह डाली तो मालूम हुआ कि उस बाजे में ताली लगाने की तरकीब लिखी हुई है और ताली वही है, जो उस तख्ती के साथ थी।
गोपाल (इन्द्रजीतसिंह से) ताली तो आपको मिल ही गयी, मगर मैं उचित समझता हूँ कि थोड़ी देर के लिए आप लोग यहाँ से चलकर बाहर की हवा खायें और सुस्ताने के बाद फिर जो कुछ मुनासिब समझें, करें।
इन्द्रजीत : हाँ, मेरी भी यही इच्छा है, इस बन्द जगह में बहुत देर तक रहने से तबीयत घबड़ा गयी और सर में चक्कर आ रहा है।
आनन्द : मेरी भी यही हालत है, और प्यास बड़े जोर की मालूम होती है।
गोपाल : बस तो इस समय यहाँ से चले चलना ही बेहतर है। हम आप लोगों को एक बाग में ले चलते हैं, जहाँ हर तरह का आराम मिलेगा और खाने-पीने का भी सुभीता होगा।!
इन्द्रजीत : बहुत अच्छा चलिए, किस रास्ते से चलना होगा।
गोपाल : उसी राह से, जिससे आप आये हैं।
इन्द्रजीत : तब तो वह कमरा भी आनन्द के देखने में आ जायगा, जिसे मैं स्वयं इन्हें दिखाया चाहता था, अच्छा चलिए।
राजा गोपालसिंह अपने दोनों भाइयों को साथ लिये हुए वहाँ से रवाना हुए और उस कोठरी में गये, जिसमें से आनन्दसिंह ने अपने भाई इन्द्रजीतसिंह को आते देखा था। उस जगह इन्द्रजीतसिंह ने राजा गोपालसिंह से कहा, ‘‘क्या आप इसी राह से यहाँ आते थे! मुझे तो इस दरवाजे की जंजीर खंजर से काटनी पड़ी थी!’’
गोपाल : ठीक है, मगर हम इस ताले को हाथ लगाकर एक मामूली इशारे से खोल लिया करते थे।
आनन्द : इस तिलिस्म में जितने ताले हैं, क्या वे सब इशारे ही से खुला करते हैं या किसी खटके पर हैं?
गोपाल : सब तो नहीं मगर कई ऐसे ताले हैं, जिनका हाल हमें मालूम है।
इतना कह गोपालसिंह आगे बढ़े और उस विचित्र कमरे में पहुँचे जिसके बारे में इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा था कि उस कमरे में जो कुछ मैंने देखा सो कहने योग्य नहीं, बल्कि इस योग्य है कि तुम्हें अपने साथ ले चलकर दिखाऊँ।
वास्तव में वह कमरा ऐसा ही था और उसके देखने से आनन्दसिंह को भी बड़ा ही आश्चर्य हुआ। मगर अवश्य ही वह राजा गोपालसिंह के लिए कोई नयी बात न थी, क्योंकि वे कई दफे उस कमरे को देख चुके थे। तिलिस्मी खंजर की तेज रोशनी के कारण वहाँ की कोई चीज ऐसी न थी, जो साफ-साफ दिखायी न देती हो और इसीलिए वहाँ की सब चीजों को दोनों भाइयों ने खूब ध्यान देकर देखा।
इस कमरे की लम्बाई लगभग पचीस हाथ के होगी और यह इतना ही चौड़ा भी होगा। चारों कोने में चार जड़ाऊ सिंहासन रक्खे हुए थे, और उन पर बड़े-बड़े चमकदार हीरे, मानिक, पन्ने और मोतियों के ढेर लगे हुए थे। उनके नीचे सोने की थालियों में कई प्रकार के जड़ाऊ जेवर रक्खे हुए थे, जो औरतों और मर्दों के काम में आ सकते थे। चारों सिंहासनों के बगल से लोहे के महराबदार खम्भे निकले हुए थे, जो कमरे के बीचोबीच में आकर डेढ़ पुर्से की ऊँचाई पर मिले गये थे, और उनके सहारे एक आदमी लटक रहा था, जिसके गले में लोहे की जंजीर फाँसी के ढंग पर लगी हुई थी। देखने से यह मालूम होता था कि यह आदमी इस तौर पर फाँसी पर लटकाया गया है। उस आदमी के नीचे एक हसीन औरत सर के बाल खोले इस ढंग से बैठी हुई थी, जैसे उस लटकते हुए आदमी का मातम कर रही हो, तथा उसके पास ही एक दूसरी औरत हाथ में लालटेन लिये खड़ी थी, जिसे देखने के साथ ही आनन्दसिंह बोल उठे, ‘‘यह वही औरत है, जिसे मैंने उस कमरे में देखा और जिसका हाल आप लोगों से कहा था, फर्क केवल इतना ही है कि इस समय इसके हाथवाली लालटेन बुझी हुई है।’’
गोपाल : तुम भी तो अनोखी बात कहते हो, भला ऐसा कभी हो सकता है!
आनन्द : हो सके, चाहे न हो सके, मगर यह औरत निःसन्देह वही है, जिसे मैं देख चुका हूँ, अगर आपको विश्वास न हो तो इससे पूछकर देखिए।
गोपाल : (हँसकर) क्या तुम इसे सजीव समझते हो!
आनन्द : तो क्या ये निर्जीव है?
गोपाल : बेशक, ऐसा ही है। तुम इसके पास जाओ और हिला-डुला कर देखो।
आनन्दसिंह उस औरत के पास गये और कुछ देर तक खड़े होकर देखते रहे, मगर बड़ों के लिहाज से यह सोचकर हाथ नहीं लगाते थे कि कहीं यह सजीव न हो। राजा गोपालसिंह इसका मतलब समझ गये और स्वयं उस पुतली के पास जाकर बोले, ‘‘खाली देखने से पता न लगेगा, इसे हिला-डुला और ठोककर देखो!’’
इतना कहकर उन्होंने उस पुतली के सर पर दो-तीन चपत जमायीं, जिससे एक प्रकार की आवाज पैदा हुई, जैसे किसी धातु की पोली चीज को ठोंकने से निकलती है, उस समय आनन्दसिंह का शक दूर हुआ और वे बोले, ‘‘निःसन्देह यह निर्जीव है, मगर वह औरत भी ठीक ऐसी ही थी, डील-डौल, रंग-ढंग, कपड़ा-लत्ता किसी बात में फर्क नहीं है! ईश्वर जाने क्या मामला है!’’
गोपाल : ईश्वर जाने क्या भेद है! परन्तु जब से तुमने यह बात कही है, हमारे दिल को एक खुटका-सा लग गया है, जब तक उसका ठीक-ठीक पता न लगेगा जी को चैन न पड़ेगा, खैर, इस समय तो यहाँ से चलना चाहिए।
राजा गोपालसिंह उस लटकते हुए आदमी के पास गये और उसका एक पैर पकड़कर नीचे की तरफ दो-तीन झटका दिया, तब वहाँ से हटकर इन्द्रजीतसिंह के पास चले आये। झटका देने के साथ ही वह आदमी जोर, जोर से झोंके खाने लगा और कमरे में किसी तरह की भयानक आवाज आने लगी, मगर यह नहीं मालूम होता था कि आवाज किधर से आ रही है, हर तरफ से भयानक आवाज गूँज रही थी यह हालत चौथाई घड़ी तक रही, इसके बाद जोर की आवाज हुई और सामने की तरफ एक छोटा-सा दरवाजा खुला हुआ दिखायी दिया। उस समय कमरे में किसी तरह की आवाज सुनायी न देती थी, हर तरह से सन्नाटा हो गया था।
दोनों भाइयों को साथ लिये राजा गोपालसिंह दरवाजे के अन्दर गये, जो अभी खुला था। उसके अन्दर ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं, जिस राह से तीनों भाई ऊपर चढ़ गये और अपने को एक छोटे-से नजरबाग में पाया। यह बाग यद्यपि छोटा था, मगर बहुत ही खूबसूरत और सूफियाने किते का बना हुआ था। संगमरमर की बारीक नालियों में नहर का जल चकाबू के नक्शे की तरह घूम-फिरकर बाग की खूबसूरती को बढ़ा रहा था। खुशबूदार फूलों की महक हवा के हलके-हलके झपेटों के साथ आ रही थी, सूर्य अस्त हो चुका था, रात के समय खिलनेवाली कलियों को चन्द्रदेव की आशा लग रही थी। कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह बहुत देर तक अँधेरे में रहने तथा भूख-प्यास के कारण बहुत परेशान हो रहे थे, नहर के किनारे साफ पत्थर पर बैठ गये, कपड़े उतार दिये और मोती सरीखे साफ जल से हाथ-मुँह धोने बाद दो-तीन चुल्लू पीकर हरारत मिटायी।
गोपाल : अब आप लोग इस बाग में बेफिक्री के साथ अपना काम करें, मैदान जाँय और स्नान-सन्ध्या-पूजा से छुट्टी पाकर बाग की सैर करें, तब तक मैं खास बाग में जाकर कुछ खाने का सामान और तिलिस्मी किताब जो मेरे पास है, ले आता हूँ। इस बाग में मेवे के पेड़ भी बहुतायत से हैं, यदि इच्छा हो तो आप उनके फल खाने के काम में ला सकते हैं।
इन्द्रजीत : बहुत अच्छी बात है, आप जाइए, मगर जहाँ तक हो सके जल्द आइयेगा।
आनन्द : क्या हम लोग आपके साथ बाग में नहीं चल सकते?
गोपाल : क्यों नहीं चल सकते, मगर मैं इस समय आप लोगों को तिलिस्म के बाहर ले जाना पसन्द नहीं करता, और तिलिस्मी किताब में भी ऐसा करने की मनाही है।
इन्द्रजीत : खैर, कोई चिन्ता नहीं, आप जाइए और जल्द लौटकर आइए। जब तिलिस्मी किताब जो आपके पास है, हम लोग पढ़ लेंगे और आप भी इस ‘रिक्तगन्थ’ को जो मेरे पास है पढ़ लेंगे, तब जैसी राय होगी किया जायगा।
गोपाल : ठीक है, अच्छा तो मैं अब जाता हूँ।
इतना कहकर राजा गोपालसिंह एक तरफ चले गये और कुँअर इन्द्रजीतसिंह तथा आनन्दसिंह जरूरी कामों से छुट्टी पाने की फिक्र में लगे।
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